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रामचरितमानस में वर्णित-नवधा भक्ति

प्रभु के पास जाने के दो मार्ग जगत प्रसिद्ध हैं. एक ज्ञान मार्ग और दूसरा भक्ति मार्ग. पढ़े लिखे ज्ञानी जन अध्यन, मनन और चिंतन कर प्रभु के निराकार रूप में रमने का प्रयास करते हैं. जबकि साधारण भक्त, अपनी सेवा भक्ति से प्रभु को प्यार कर रिझाने का प्रयत्न करते हैं. इसी रिझाने को भक्ति कहा गया है. मानस और श्रीमद्भागवत में नौ प्रकार की भक्ति का उल्लेख मिलता है, जो आने वाले संदर्भों में विस्तार से बताई गई है.

श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण लीला और गोपियों के प्रेम के संदर्भ में नौ प्रकार की भक्ति का बड़े विस्तार से वर्णन किया गया है. वह नौ भक्ति विधायें इस प्रकार हैं:
१) श्रवण २) कीर्तन ३) स्मरण ४) पद सेवा ५) अर्चना पूजा ६) नमस्कार या वंदना स्तुति ७) दास्य भाव ८) सखा भाव और ९) आत्म निवेदन या आत्म समर्पण.

आजकल जब कभी हम कृष्ण मंदिरों में जाते हैं तो इन विभिन्न भक्ति भावों, कीर्तन, कथा श्रवण, पूजा अर्चना, का बहुत दिव्य रूप देखने को मिलता है.

रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में जब रामजी शबरी के आश्रम में पधारते हैं, तो वहाँ भी भक्ति की चर्चा होती है. रामजी शबरी की सेवा और भक्ति भाव से बड़े प्रसन्न होते हैं. शबरी जो एक सहज सरल अनपढ़ भीलनी है, बार बार कहती है, प्रभु मैं आपकी सेवा के लायक नहीं हूँ. मुझे समझ नहीं आ रहा, कि मैं आपकी सेवा कैसे करूँ? इसे सुन प्रभु राम कहते हैं:

कह रघुपति सुनु भामिनी बाता, मानहूँ मैं एक भगति कर नाता
हे माँ, मेरी बात ध्यान से सुनो, मैं केवल एक ही नाते में विश्वास करता हूँ, और वह है भक्ति
का नाता. वह नाता तुम बड़े प्रेम भाव से निभा रही हो.

और पूछने पर रामजी ने शबरी को नवधा भक्ति, यानि नौ प्रकार की भक्ति का उपदेश दिया.

नवधा भगति कहहूँ तोहि पाहीं, सावधान सुनु धरु मन माहीं
प्रथम भक्ति संतन कर संगा, दूसरी रति मम कथा प्रसंगा।।

मेरी पहली भक्ति है, संतों का संग, यानिकि सत्संग. तुलसी बाबा ने पूरी मानस में सत्संग पर बहुत जोर दिया है. सत्संग भक्त के चरित्र को एक पावन दिशा प्रदान करता है. सत्संग बहुत सारे मानवीय गुणों का संचार करता है. जैसे दूसरों की सहायता करना, दूसरों के साथ प्रेम भाव से आचरण करना, छोटे बड़ों का मान सम्मान करना. प्रभु सिमरन में लीन रहना. बुरी आदतों और बुरे लोगों से दूर रहना. यह सब सत्संग के गुण हैं, इसीलिए रामजी ने कहा मेरी प्रथम भक्ति है- सत्संग, जिसके माध्यम से भक्त मुझ तक पहुँच सकता है.

दूसरी भक्ति, रति मम कथा प्रसंगा. यानि मेरी कथा के प्रति अत्यधिक प्रेम. मेरी कथा को भाव से, श्रद्धा से सुनना. कथा में आयी अच्छी अच्छी बातों को जीवन में धारण करना. उत्तरकांड में प्रभु ने, निष्कर्ष रूप में, यहाँ तक कह दिया:
राम चरण रति जो चह अथवा पद निर्वाण
भाव सहित सो यह कथा, करउ श्रवन पुट पान।।
अगर किसी को निर्वाण चाहिए या मेरे चरणों में अनन्य भक्ति चाहिए, तो उसका मार्ग है मेरी कथा. यदि कोई भक्त मेरी इस कथा को भाव सहित सुनेगा, तो उसे उसका मन चाहा फल अवश्य मिलेगा.

गुरु पद पंकज सेवा, तीसरि भगति अमान, चौथी भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।।

तीसरी भक्ति के लिए रामजी कहते हैं, गुरुओं का सम्मान. जो भक्त अपने गुरुओं की सेवा करते हैं, वे जन भी सीधे सीधे मेरी ही भक्ति करते हैं. गुरुओं से तात्पर्य केवल आध्यात्मिक गुरुओं से नहीं, बल्कि जो कोई भी तुम्हें जीवन में कुछ सिखा रहा है, वह भक्त का गुरु है. हमारे प्रथम गुरु हमारे मात पिता हैं, जो जन्म से लेकर बाल्यकाल तक जीवन जीने की कला सिखाते हैं. हमें पाल पोस कर, अच्छे संस्कार देकर, एक अच्छा इंसान बनाते हैं. ऐसे माँ पिता की सेवा भी एक बहुत उत्तम प्रकार की भक्ति मानी गई है, जो सीधा हमें रामजी से जोड़ती है.

चौथी भक्ति हैं, मेरा भजन कीर्तन. कैसे करना है? कपट रहित, बिना किसी दिखावे के. बिना किसी छलावे के. केवल शुद्धभाव से किया गया कीर्तन सीधे रामजी तक पहुँचता है. कीर्तन का भाव किसी की संपत्ति लूटने की न हो. कीर्तन का भाव किसी को प्रभावित कर, उसका अनैतिक लाभ उठाना न हो. कीर्तन का भाव हो प्रभु के प्रेम में मस्ती से डूब जाना. ऐसे निर्मल हृदयी भक्त रामजी को बड़े प्रिय हैं. इसी लिए सुंदरकांड में तुलसी बाबा कहते हैं:

निर्मल मन जन सो मोही पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।

पाँचवी और छठीं भक्ति:
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा, पंचम भजन सो बेद प्रकासा
छठ दम सील बिरति बहु करमा, निरत निरंतर सज्जन धरमा ।।

पाँचवी भक्ति है – मेरा मंत्र जाप. बहुत सारे भक्त रामजी की माला जपते हैं. निरंतर राम नाम से अभिवादन करते हैं. वेदों पुराणों का अध्ययन, मनन. वेदों में वर्णित आचरण को जीवन में धारण करते हैं. उनके मन में एक दृढ़ विश्वास होता है, कि अगर मैं रामजी को हमेशा याद करता रहूँगा, तो रामजी मेरे सुख दुख में हमेशा मेरे साथ रहेंगे. इस विश्वास से उमड़ती है, प्रीति. और प्रीति से जन्मती है श्रद्धा. फिर इसी श्रद्धा भाव से उपजती है अनन्य भक्ति. इस प्रकार की भक्ति से होता है भक्त का उद्धार.

छठी प्रकार की भक्ति में संयम नियम की बात कही गई है. भक्त का आचरण विशिष्ट होता है. भक्त का जीवन बड़ा नियमित होता है. वह संसार के भोगों से दूर रह, बड़ा ही संयमित जीवन जीता है. इन्द्रियों को अपने वश में करके, भोग विलासों से बचते हुए, एक ऐसा आचरण अपनाता है, जिसे सज्जन पुरुषों का आचरण कहा जाता है. इसी लिए सज्जन पुरुष जगत में सम्माननीय कहे जाते हैं. अभिप्राय यह कि सज्जनता भी एक प्रकार की भक्ति है, जो रामजी तक पहुँचने में सहायक है.

सातवीं, आठवीं और नौवीं भक्ति:
सातव सम मोहि मय जग देखा, मोते संत
अधिक कर लेखा
आठव जथा लाभ सन्तोषा, सपनेहू नहि
देखीं परदोषा ।।
नवम सरल सब छल हीना, मम भरोस हियँ
हर्ष न दीना ।।

सातवीं भक्ति के रूप में रामजी ने शबरी से कहा, कि मेरा भक्त इस जगत में हर जगह मेरी छवि देखता है:

सिय राम मय सब जग जानी, करहूँ प्रणाम जोरी जुग पाणि।।

अगर हर जगह भक्त मेरी छवि देखेगा, तो सबके साथ बड़ा प्रेम एवं सद्भाव पूर्ण व्यवहार करेगा. अगर कोई संत उसे मिल जाए तो उसे संत में मेरा साक्षात् दर्शन हो जाता है, इसी लिये संतों को मेरा भक्त मुझसे भी अधिक आदर सत्कार देता है, जो मुझे बहुत प्रिय है.

आठवीं भक्ति है- संतोष. कबीर ने कहा है, जब आवे संतोष धन, सब धन धूरी समान. संतोष के आते ही संसार की बाकी सभी तथाकथित धन दौलत मिट्टी समान हो जाती है, यानि अर्थहीन हो जाती है. भक्त हर हाल में प्रसन्न एवं संतुष्ट रहता है. हर हानि लाभ में, हर दुख सुख में, निंदा स्तुति में, रामजी की इच्छा देख संतुष्ट रहता है. भक्त में इसी संतोष के कारण एक और गुण आ जाता है, और वो होता हर एक में कोई भी दोष न देखना. हर एक में कोई न कोई अच्छाई ढूँढ लेना. ऐसे गुणों से संपन्न मेरा भक्त मुझे बहुत प्रिय है. ऐसा भक्त बस यही गाता रहता है:

जिस बिधि राखे राम, तिस बिधि रहिए। सीता राम सीता राम सीता राम कहिए।।

नौवीं भक्ति है – सरलता. छल रहित, कपट रहित सरल व्यवहार. सबके साथ पूरी पारदर्शिता के साथ हमेशा सहज सरल आचरण करना. हमेशा रामजी पर भरोसा बनाए रखना:

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई रे
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई रे

ऐसा इष्ट अगर विष का प्याला भी भेजे तो, उसे भी इस विश्वास के साथ पी जाना कि, उसने चरणामृत ही भेजा होगा, ऐसे में मुझे पीने में कोई हिचकिचाहट क्यों? यह है भक्ति की चरम सीमा, भक्ति की पूर्ण पराकाष्ठा.

नव महूँ एकऊ जिन के होई, नारी पुरुष सचराचर कोई
सोइ अतिसय प्रिय भामिनी मोरें, सकल प्रकार भक्ति दृढ़ तोरें

अंत में रामजी ने शबरी से कहा, हे माँ इस नौ प्रकार की भक्ति में से अगर कोई भक्त एक प्रकार की भक्ति को भी अपना ले तो वह मुझे अत्यंत प्रिय है, लेकिन माँ, आप में तो सभी प्रकार की भक्ति का आविर्भाव है. इसी लिए आप मुझे प्रिय हैं, और मेरे लिये आदरणीय हैं.

ऐसी भक्ति का अगर एक भी अंश हमारे जीवन में आ जाये, तो हमारा जीवन धन्य हो जाएगा।।।

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