By: Rajendra Kapil
गोस्वामी तुलसीदास ने मानस की रचना विक्रमी संवत् 1631 में की थी, और आजकल संवत् 2081 चल रहा है, यानीकि मानस की रचना आज से 450 वर्ष पहले हुई। तुलसी बाबा मानस के लेखन काल में त्रेता युग और राम राज्य की लहर में हमेशा खोये रहते थे। उस त्रेता युग में जहाँ कोई कभी बीमार नहीं पड़ता था। किसी के घर के दरवाज़े कभी बंद नहीं होते थे। सभी एक दूसरे से सहज प्रेम करते थे। विद्वानों की पूजा होती थी। लोग मर्यादा में रह कर अपने अपने धर्म का पालन करते थे। मानस समाप्त करते करते जब बाबा उत्तरकांड लिख रहे थे, तो उन्हें वर्तमान यानीकि कलियुग का ध्यान हो आया, जहाँ बहुत कुछ ग़लत हो रहा था। तब उनकी लेखनी ने उस समय के कलियुग का वर्णन किया।
संवत् सोलह सौ एक तीसा, करऊँ कथा हरि पद धरि सीसा
उस समय के समाज में काफ़ी कुरीतियाँ जन्म ले रही थी, विशेषरूप से बनारस जैसे नगर में, जहाँ धर्मगुरुओं का निर्बाध राज्य था। एक ओर यह पाखंडी धर्मगुरु थे, तो दूसरी ओर तुलसी बाबा जैसे सीधे साधे भक्त थे, जो सहज भाव से राम कथा गाने में व्यस्त थे। यह तथाकथित धर्म गुरु तुलसी जैसे भक्तों का निरादर करने से चूकते नहीं थे।संस्कृत भाषा आम आदमी की भाषा नहीं रह गई थी. ज्ञान एवं भक्ति की पहुँच भी आम आदमी से दूर हो गई थी, क्योंकि उसे बड़े बड़े संस्कृत आचार्य अपनी गद्दियों के नीचे छिपाये बैठ, अपना वर्चस्व बनाए बैठे थे. इसीलिए तुलसी जैसे संतों को लोकभाषा (अवधी) में मानस की रचना करनी पड़ी.
उत्तरकांड में जिस प्रकार तुलसी बाबा ने कलियुग का वर्णन किया. वोह आज भी सटीक है:
कलिमल ग्रसे धर्म सब, लुप्त भए सदग्रंथ
दम्भिन्ह निजमति कल्पि करि, प्रगट किए बहु पंथ
कलियुग के पापों ने सभी अच्छे धर्मों को ग्रस लिया था, जिसके परिणाम स्वरूप सभी सदग्रंथ लगभग ग़ायब हो गए थे. ऐसे में समाज के कुछ दंभी धर्मगुरुओं ने अपनी परिकल्पना से और सुविधानुसार नये नये धर्मों का आविष्कार कर लिया था, और ब्राह्मण लोग क्या करने लगे:
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन, कोउ नहि मान निगम अनुसासन
वह खुले आम वेद और पुराणों को बेच बेच कर धन अर्जन करने लगे थे. राजा लोग प्रजा पर मनमाना अत्याचार कर उन्हें लूटने लगे थे. शास्त्रों में वर्णित मर्यादा एवं अनुशासन को मानने से इंकार करने लगे थे.
मारग सोइ जा कहूँ जोइ भावा, पंडित सोइ जो गाल बजावा
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई, ता कहुँ संत कहइ सब कोई
जिसको जो भाता वही उसका धर्म बन जाता. उसी समाज में पंडित केवल वही पुरुष संत कहलाता जो ज्ञान की बड़ी बड़ी डींगें मारता था. सबसे ऊँचे लाउड स्पीकर पर ज़ोर ज़ोर से बोलने वाला महाज्ञानी कहलाता. अजीब अजीब से आडंबर रचे हुए, लंबे लंबे नाखून रखे हुए,
ढेर सारी मालाएँ पहने हुए, आडम्बरी पुरुष को लोग सबसे बड़ा संत समझ लेते थे. ऐसे आडम्बरी संत समाज में घूम घूम कर क्या रहे थे:
सोइ सयान जो पर धन हारी, जो कर दंभ सो बड़ आचारी
लोगो का पराया धन लूट रहे थे. लोगों को उपदेश करते धन माया है, इसका परित्याग कर उन्हें दे दो, और बहुत से भोले भाले भक्त उनकी इन चिकनी चुपड़ी बातों में आकर इन संतों के सामने अपना सब कुछ लुटा बैठते थे. समाज उसी को सबसे सयाना मानता जो लूटने की कला में अधिकतम माहिर होता.
तुलसी बाबा ने उस समय के समाज का चित्रण करते आगे लिखा:
नारी बिबस नर सकल गोसाई, नाचहि नट मरकट की नाईं
सब नर काम लोभ रत क्रोधी, देव बिप्र श्रुति संत विरोधी||
हर पुरुष स्त्रियों के वश में इतना बेबस था, कि उन्हें समझ ही नहीं लगता कि क्या उचित है? वह सब ऐसा प्रतीत होता, कि मानो पुरुष बंदरों की तरह स्त्रियों के आसपास नाच रहे हैं. पुरुष काम के वश स्त्रियों के इशारों पर नाचने में कोई संकोच महसूस नहीं करते. और स्त्रियों का चरित्र कैसा था?
सौभागिनी विभूषण हीना, विधवन्ह के सिंगार नबीना ||
गुरसिष बधिर अंध का लेखा, एक न सुनई एक नहि देखा
सौभाग्यवती स्त्रियाँ ग़रीब स्थिति में बिना किसी सिंगार और आभूषण के घूमती नज़र आती. और विधवा महिलाएँ खुले आम सज धज कर घूमती हुई, पर पुरुषों को रिझाते दीख पड़ती. गुरू शिष्य का रिश्ता ऐसा दिखाई पड़ता, जैसे कोई एक अंधा हो और दूसरा बहरा. एक को दिखाई नहीं पड़ता, और दूसरे को सुनाई नहीं पड़ता. पूरी तरह से आरजकता दिखाई पड़ रही थी. और समाज में कैसा माहौल था?
सूद्र द्विजनह उपदेसहि गयाना, मेलि जनेऊ लेहि कुदाना
समाज में शूद्र लोग तरह तरह के आडंबरों से युक्त हो, ब्राह्मणों को उपदेश देते नज़र आते. उनसे दान में धन आदि लूट, उन्हें कुदान यानीकि फावड़ा पकड़ा मज़दूरी के काम में व्यस्त करते नज़र आते. यह ऐसे संन्यासी लोग भला थे कौन?, तुलसी बाबा उनके बारे में लिखते हैं:
नारि मुई गृह सम्पति नासी, मूँड़ मुड़ाई होहि संन्यासी
यह वोह लोग थे, जिनकी पत्नी की मृत्यु हो चुकी होती थी. घर की सब सम्पति नष्ट हो चुकी होती थी. ऐसे लोग अपना सिर मुंडवा कर संन्यासियों का भेष बना समाज को लूटने के लिए सज्ज हो जाते. कई कई तो बाहर समाज में मौन धारण कर मौनी बाबा के रूप में अपने आप को प्रचलित कर समाज के भोले भाले लोगों को ठग, अपना उल्लू सीधा करते नज़र आते. समाज में उनकी दृष्टि होती दूसरों के धन पर और परायी स्त्रियों पर. और मौक़ा मिलते ही उन्हें ठगने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता.
पर त्रिय लम्पट कपट सयाने, मोह द्रोह ममता लपटाने
ऐसे संत परायी स्त्रियों में आसक्त रहते उन्हें हर तरह के कपट से, छलावे में रखते और मौका मिलते ही उनका भरपूर शारीरिक एवं मानसिक शोषण करते फिरते. जो उनके उस आचरण का विरोध करता, उसके साथ द्रोह ठान लेते, और अपने चमचे शिष्य उनके पीछे लगा देते. मानस में ऐसे झूठे संतों का उल्लेख पढ़ आज के “ बापू आसाराम” जैसे कपटी लोगों का चित्र सामने आ जाता है, जो समाज में चार सौ साल पहले भी घूम रहे थे, और आज भी घूम रहे हैं.
रामचरित मानस के मनन से एक बात बड़ी स्पष्ट हो जाती है कि तुलसी जैसे कवि युग द्रष्टा थे. वह उस समय भी समाज की कुरीतियाँ को, आम आदमी की आम भाषा (अवधी) में, सामने ला कर समाज को सचेत कर, समाज का एक सही मार्ग दर्शन कर रहे थे. इसके बावजूद भी उस युग के तथाकथित संस्कृत आचार्यों ने उनका जम कर विरोध किया. लेकिन तुलसी बाबा ने उनकी परवाह किए बिना एक ऐसे महान ग्रंथ रामचरित मानस की रचना की, जो आज भी विश्व के कोने कोने बस रहे, हर रामभक्त के घर में श्रद्धा पूर्वक गाया और पूजा जाता है. ऐसे युग पुरुष तुलसी बाबा, को मेरा कोटि कोटि नमन!