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शबरी के आराध्य- रामजी

Rajendra Kapil
847-962-1291

शबरी का नाम लेते ही एक प्यारी सी वृद्घा का चित्र सामने आ जाता है. जो एक कुटिया के बाहर बैठी रामजी की प्रतीक्षा कर रही है| आखिर यह शबरी कौन थी? रामचरितमानस मानस में शबरी प्रसंग बहुत ही सीमित है. इतिहास में जाकर देंखे तो पता चलता है, रामजन्म से भी पहले, शबरी भील जाति में पैदा हुई एक साधारण स्त्री थी. माँ पिता जी जंगलों में शिकार आदि करके परिवार का पेट पालते थे. इसीलिये शबरी को पशु पक्षियों से और जंगल के पेड़ पौधों से काफी लगाव था. जब शबरी युवा हुई तो माँ बाप ने उसका विवाह करने का निश्चय किया. इसी चक्कर मैं एक दिन उसके पिता घर में ढेर सारी बकरियाँ ले आए. उत्सुक शबरी ने माँ से पूछा तो पता चला की उसके विवाह पर इन सबकी बलि चढ़ा, एक विशाल भोज का आयोजन होगा. शबरी को यह सब बिलकुल अच्छा नहीं लगा. उसने माँ से कहा, अगर मेरे कारण इतने सारे पशुओं का वध होना है, तो वह विवाह नहीं करना चाहती. पर उसकी सुनने वाला वहाँ कोई नहीं था. वह मन ही मन बड़ी उदास रहने लगी.

इसी उधेड़बुन में एक दिन वह जंगल की ओर भाग निकली. जंगल के आस पास ऋषियों के बहुत सारे आश्रम थे. वह वहीं उनके आस पास रहने लगी. कभी किसी ऋषि की कुटिया की साफ सफाई कर देती और अपना जीवन यापन करने लगी. अचानक एक दिन, एक ऋषि को यह पता चल गया की यह भील जाति की निम्न महिला है. उसने बाकी ऋषियों को भी इसके बारे बता दिया. ऋषियों को शबरी पर बड़ा क्रोध आया और सबने उसका बहिष्कार कर दिया. शबरी को जाति पाँत का अधिक ज्ञान नहीं था, इसलिए उसे बहुत सारा अपमान सहना पड़ा. ऐसे रहते कुछ वर्ष और बीत गये. एक दिन टहलते टहलते वह ऋषि मतंग के आश्रम जा पहुँची. ऋषि मतंग थोड़ी उदार विचार धारा के संत थे. उन्होंने शबरी की कहानी सुनी और उसे अपने आश्रम मैं आश्रय दे दिया. अब शबरी दिन रात ऋषि मतंग की सेवा में जुट गई. ऋषि शबरी की सेवा से बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने उसे बेटी की तरह पाला पोसा. उसे गुरु दीक्षा भी दी.

एक दिन ऋषि मतंग ने शबरी को पास बुलाया और बोले, बिटिया मैं अब बूढ़ा हो गया हूँ, और शरीर त्यागना चाहता हूँ. शबरी यह सुन काफी परेशान हो गई, और बोली, मैं तो आपके सहारे इस जंगल में रह रही थी. अगर आप देह त्याग रहे हैं तो मैं भी देह त्यागने को तैयार हूँ. ऋषि ने तब शबरी को समझाया कि तुम्हें तो पहले रामजी से मिलना है, उनकी सेवा करनी है. उसके बाद तुम्हारा मोक्ष होगा. मेरे बाद तुम इसी कुटिया में रामजी का इंतजार करना. एक दिन वे आयेंगे और तुम्हारे आतिथ्य को स्वीकार करेंगे. तुम्हें उन्हें ढूँढने नहीं जाना पड़ेगा, वह स्वयं तुम्हारी कुटिया पर आ पहुँचेंगे. यह कहते कहते ऋषि मतंग ने प्राण त्याग दिये.

शबरी को अपने गुरु पर पूरा विश्वास था. वह वहीं उसी कुटिया में रह कर प्रतिदिन रामजी की प्रतीक्षा करने लगी. रोज सुबह उठती, कुटिया को झाड़ती बुहारती, मटके में ताजा जल भरती, जंगल जा कुछ फल फूल ले आती और रामजी की प्रतीक्षा करती. फल चुनते चुनते कभी उन्हें चख भी लेती कि, कही कोई फल खट्टा या कड़वा न हो. उसका भाव यह रहता कि जब भी मेरे रामजी आएँ तो केवल मीठे फल ही खायें. प्रतीक्षा करते करते कई बरस बीत गए, शबरी अब बूढ़ी हो चली थी, लेकिन रामजी से मिलने की लालसा अभी भी युवा थी. शबरी ने प्रतीक्षा नहीं छोड़ी, उसने बेर चुनना नहीं छोड़ा. एक दिन शबरी सुबह की दिनचर्या समाप्त करके बैठी ही थी, कि उसने देखा, कुटिया पर दो सुंदर राजकुमार खड़े हैं, उन राजकुमारों का सुन्दर रूप देख शबरी स्तब्ध रह गई. उसे तुरंत विश्वास हो गया, कि हो न हो यही मेरे रामजी है:

सबरी देख राम गृह आये
मुनि के वचन समूझी जिय भाये
-रामजी को द्वार पर आये देख, मुनि मतंग के वचन याद आ गये और मन ही मन प्रसन्न हो उठी. शबरी बस उन दोनों भाइयों के रूप और सौंदर्य को देखती ही रह गई,

तुलसीदास लिखते हैं:
सरसिज लोचन बाहु बिसाला
जटा मुकुट सिर, उर बनमाला
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई
सबरी परी चरन लिपटाईे

अर्थात- दोनों भाइयों के सुंदर सुंदर कमल नयन, विशाल भुजाएँ, सिर पर जटाओं का मुकुट और हृदय पर सुंदर वनमाला धारण किए,सुंदर सांवले और गोरे रंग के दोनों भाईयों को देख शबरी मंत्र मुग्ध हो गई, और प्रभु के चरणों से जा लिपटी.

प्रेम मगन मुख वचन न आवा
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा
सादर जल लय, चरन पखारे
पुनि सुंदर, आसन बैठारे

वाणी कुछ बोल नहीं पा रही, जल का लोटा लाकर चरणों को धोती जा रही है. फिर एक आसन पर उन्हें बिठा उनके चरणों के पास खुद बैठ गई. आज शबरी के राम पधारे हैं. उसे कुछ नहीं सूझ रहा. बस एक ही लालसा है, कि मैं उनकी खूब सेवा करूँ. बेरों की टोकरी उठा लाई, उनमे से अच्छे अच्छे बेर चुन कर रामजी को खिलाती जा रही है. अगर कोई बेर ठीक न लगे, तो पहले उसे चख कर देख लेती है, कि बेर मीठा ही हो. इस तरह झूठे बेर प्रभु को देती जाती है, और रामजी अपने भक्त की भक्ति के बस, उन्हीं झूठे बेरों का भरपूर आनंद लेते जा रहे हैं. शबरी की आँखों से प्रेम की अविरल धारा बहती जा रही है, वह धुंधली आँखों से रामजी की सेवा में तल्लीन है. उसकी जीवन भर की प्रतीक्षा आज सफल हो गई है.उसके जीवन की सार्थकता संपूर्ण हो गई है. वह इस पल को पूरी तरह से जी लेना चाहती है.

जब थोड़ी सँभली तो प्रभु के सामने हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई:
पानि जोरी आगे भई ठाढी
प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढी

और कहने लगी:
केहि विधि अस्तुति करूँ तुम्हारी
अधम जाति, मैं जड़मति भारी
हे मेरे प्रभु मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ, मैं तो अधम जाति की एक साधारण एवं मूढ़ नारी हूँ. रामजी यह प्रेम देख पिघल गए. शबरी को गले से लगा लिया और पास बिठा कर बोले,

हे माते,
मैं तुम्हारे इस प्रेम और वात्सल्य को देख कर गद गद हो उठा हूँ. मुझे इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि, आप किस जाति की हैं, मुझे अंतर नहीं पड़ता कि आप नारी हैं, मैं तो केवल एक भक्ति का नाता मानता हूँ.

कह रघुपति सुनु भामिनी बाता
मानहू एक भगति कर नाता े

क्योंकि:
भगति हीन नर सोहई कैसे
बिनू जल वारिद देखिअ जैसे

भक्ति के बिना प्राणी उतना ही सारहीन है, जैसे पानी के बिना बादल. शबरी और रामजी की यह प्रेम गाथा आने वाले समय में प्रभु और भक्त के बीच में भक्ति के सहज रिश्ते का एक ज्वलंत उदाहरण बन कर रह गया. ऐसी रामजी की परम भक्त शबरी को कोटि कोटि नमन!!!!!

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