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शीर्षक: प्रेम की शक्ति: सच्चा प्रेम व्यापार नहीं करता

हमारे जीवन की एक कड़वी सच्चाई यह है कि हम किसी से प्रेम का दावा तो करते हैं, मगर प्रेम करते हैं पूरा नाप-तौल कर। यहाँ एक छोटी सी कहानी है जो इस बात को अच्छी तरह से समझाती है कि जहाँ प्रेम होता है वहाँ हिसाब-किताब नहीं होता, और जहाँ हिसाब-किताब होता है वहाँ प्रेम नहीं होता, केवल व्यापार होता है।

एक साधु, हाथ में माला लेकर, मनकों को गिन-गिन कर माला फेर रहा था। तभी उसकी नजर दूर बैठी एक गुजरी पर पड़ी, जो दूध बेच रही थी और सबको नाप-नाप कर दूध दे रही थी। उसी समय एक नौजवान दूध लेने आया, और गुजरी ने बिना नापे ही उसका बर्तन दूध से भर दिया।

साधु असमंजस में पड़ गया और पास ही बैठे व्यक्ति से इस घटना का कारण पूछा। उस व्यक्ति ने बताया कि जिस नौजवान को गुजरी ने बिना नाप के दूध दिया, वह उससे प्रेम करती है, इसलिए उसने उसे बिना नाप के दूध दे दिया। यह बात साधु के दिल को छू गई। उसने सोचा, “एक दूध बेचने वाली गुजरी, जिससे प्रेम करती है, तो उसका हिसाब नहीं रखती, और मैं अपने जिस ईश्वर से प्रेम करता हूँ, उसके लिए सुबह से शाम तक मनके गिन-गिन कर माला फेरता हूँ। मुझसे तो अच्छी यह गुजरी ही है।”

साधु ने माला तोड़कर फेंक दी और समझ गया कि सच्चा प्रेम किसी भी प्रकार के हिसाब-किताब से परे होता है। सच्चे प्रेम में कोई व्यापार नहीं होता, केवल समर्पण और निश्छलता होती है।

कहानी का मुख्य संदेश:

कहानी का मुख्य संदेश यह है कि सच्चा प्रेम निश्छल और निस्वार्थ होता है। जब हम वास्तव में किसी से प्रेम करते हैं, तो हम किसी प्रकार के लाभ या नुकसान की गणना नहीं करते। प्रेम एक ऐसा भाव है जो बिना शर्त होता है, और इसमें कोई नाप-तौल या हिसाब-किताब नहीं होता। साधु ने यह समझा कि उसका भगवान के प्रति प्रेम उस गुजरी के प्रेम के मुकाबले कितना कमज़ोर है जो उसने उस नौजवान के लिए महसूस किया।

यही कारण है कि सच्चे प्रेम में हमें किसी भी प्रकार की गणना और अपेक्षा से मुक्त होना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि सच्चा प्रेम केवल देने का नाम है, बिना किसी प्रतिफल की अपेक्षा के।

भगवान से प्रेम निःस्वार्थ होना चाहिए:

अगर हम भगवान की पूजा करते हैं और भगवान से प्रेम करते हैं, तो यह निःस्वार्थ भाव से होना चाहिए। लेकिन हम अक्सर पहले अपनी शर्त रखते हैं कि “हे प्रभु, मेरा यह काम कर दो तो मैं प्रसाद चढ़ाऊँगा या मैं यह कर दूँगा या वह कर दूँगा।” यह भक्ति या प्रेम नहीं है, यह तो व्यापार हुआ। सच्ची भक्ति और प्रेम बिना किसी शर्त के होते हैं, और इसमें किसी प्रकार की व्यापारिक गणना नहीं होती।


दोहा:

माला फेरत जग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।।

इस दोहे का अर्थ यह है कि माला फेरते हुए सारा संसार बीत जाता है, लेकिन मन का फेर नहीं बदलता। इसलिए, हाथ की माला को छोड़कर मन के मनके को फेरना चाहिए, यानी सच्चे प्रेम और भक्ति में मन को शुद्ध और निस्वार्थ रखना चाहिए।

यह कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्चा प्रेम और भक्ति किसी भी प्रकार के व्यापारिक गणना से परे होते हैं। सच्चा प्रेम वही है जो निश्छल और निस्वार्थ होता है, और यही हमारे जीवन की सच्ची राह है।

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