दुर्गा सप्तशती के सात सौ श्लोकों में माँ दुर्गा की स्तुति गाई गई है. इन श्लोकों में ऋषियों ने माँ के सौम्य रूप से लेकर रौद्र रूप तक का वर्णन किया है. इस ग्रंथ के अंत में एक क्षमा प्रार्थना भी की गाई गई है.
जब भी कोई भक्त किसी भी देव या देवी की आराधना करता है, तो उस पूजा विधान के पश्चात एक विचार सहज ही आता है, कि कही मुझ से इस पूजा विधान में कोई भूल तो नहीं हो गई.
इसी भावना को मिटाने के लिए वह प्रभु से क्षमा प्रार्थना करने लगता है. ऐसा करते समय उसके मन में यह विश्वास भी होता है, मेरी इष्ट माँ इतना दयालु है, कि उसकी किसी भी भूल को सहज ही क्षमा कर देगी. यहाँ तो बात माँ दुर्गा की हो रही है, जो अपने भक्तों पर बच्चों जैसा अपार प्रेम करती है, और अपने बच्चों पर अपनी कृपा का हाथ हमेशा हमेशा बनाए रखती है. इसी भाव को हृदय में बनाए हुए, ऋषियों ने दुर्गा सप्तशती में क्षमा प्रार्थना का समावेश किया. इस प्रार्थना में आठ श्लोक हैं. अब मैं विस्तार से उन श्लोकों का अर्थ समझाने का प्रयास करूँगा.
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वरि॥1॥
पहला श्लोक:
हे माँ दुर्गे, मेरे द्वारा हर दिन, हर रात हजारों अपराध होते रहते हैं. कुछ मेरी सहज कमियों के कारण, कुछ मेरे सहज पापी स्वभाव के कारण. कुछ अपराध मेरी परिस्थियाँ मुझसे करवा लेती हैं, जिन पर मेरा बस नहीं चलता. कृपया मेरे इन सब अपराधों को भुला कर, और यह स्मरण करते हुए, कि मैं आपका दास हूँ आप अपनी कृपा मुझ अपराधी पर बनाए रखो, और मेरे अपराधों को माफ कर दो.
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि॥2॥
दूसरा श्लोक:
किसी भी पूजा विधि में पहले देवी देवताओं का आवाहन किया जाता है. और पूजा के बाद उन्हीं देवी देवताओं का विसर्जन किया जाता है. बंगाल और महाराष्ट्र में यह प्रथा बड़े धूमधाम ढंग से मनाई जाती है. बंगाल में नवरात्रि से पहले माँ दुर्गा की विशाल प्रतिमाएँ लाकर उनमें आवाहन द्वारा प्राण प्रतिष्ठा की जाती है, और नौ दिनों की पूजा अर्चना के बाद उनका विसर्जन किया जाता है.
इस श्लोक में भक्त माँ के सामने बड़ी विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर रहा है, कि उसे आवाहन की विधि नहीं आती. नहि उसे विसर्जन की पूरी प्रक्रिया आती है. और इन दोनों के बीच होने वाली पूजा विधि भी अच्छी तरह से नहीं आती. इसी लिए उसकी विनम्र प्रार्थना है, कि माँ उसकी इस अज्ञानता को अनदेखा कर, उसे क्षमा कर अपनी कृपा बनाए रखे.
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत्पूजितं मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे॥3॥
तीसरा श्लोक:
इस श्लोक में भक्त एक और कमी को स्वीकार कर रहा है. कृपालु माँ, मुझे तेरी पूजा करने के लिए मंत्र और तंत्र भी नहीं आते. मैं अत्यंत अज्ञानी हूँ. मुझे पूजाविधि अच्छी तरह मालूम नहीं है. पूजा में जिस भक्ति एवं लग्न की आवश्यकता होती है, वोह भी मुझ में नहीं है. फिर भी जिस भी भाव से मैंने आपकी जितनी अर्चना की है, उसे स्वीकार कर, मेरी मनोकामना पूर्ण करें.
अपराधशतं कृत्वा जगदम्बेति चोच्चरेत्।
यां गतिं समवाप्नोति न तां ब्रह्मादय: सुरा:॥4॥
चौथा श्लोक:
इस श्लोक के भाव में भक्त के हृदय में एक अटूट विश्वास है. वह माँ से कहता है, कि मैं अच्छी तरह से जानता हूँ, कि हे माँ दुर्गे, सैकड़ों अपराध करने वाला एक दुष्ट भक्त जब सच्चे मन से तेरी शरण मैं आकर अपने अपराध स्वीकार कर लेता है, और शरणागत हो जाता है, तो तू उसे क्षमा कर देती है. उसे वोह गति प्रदान करती है, जो ब्रह्मा आदि देवों को भी सुलभ नहीं है. इसीलिए मैं भी तेरी शरण में हूँ, मुझ पर भी अपनी कृपा बरसा.
सापराधोऽस्मि शरणं प्राप्तस्त्वां जगदम्बिके।
इदानीमनुकम्प्योऽहं यथेच्छसि तथा कुरू॥5॥
पाँचवा श्लोक:
इस श्लोक में भी भक्त अपने आप को खुले रूप से अपराधी मान रहा है. वह पूर्ण विश्वास के साथ माँ के समक्ष खड़ा है, की माँ उसकी सभी गलतियाँ माफ कर देगी. इसी भावना के साथ वह माँ से, उसकी असीम अनुकम्पा, उसकी सहज दयालुता की बिनती कर रहा है. कहता है, माँ मैं आपके समक्ष प्रस्तुत हूँ. आप मेरा साथ वही व्यवहार करो, जिसके मैं योग्य हूँ. मेरा लिए जो भी उचित है, वही सजा दो. मैं हर तरह से उसे स्वीकारने के लिए सज्ज हूँ.
अज्ञानाद्विस्मृतेर्भ्रान्त्या यन्न्यूनमधिकं कृतम्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देवि प्रसीद परमेश्वरि॥6॥
छठा श्लोक:
गलतियाँ कई प्रकार से होती हैं. कई बार अज्ञान के कारण होती है. भक्त को पता ही नहीं होता, कि क्या सही है और क्या गलत. कई बार गलती भूल (विस्मृति) के कारण होती है.
भक्त किसी और विचार या परिस्थिति में होने के कारण भूल जाता है, कि क्या करना उचित है अथवा अनुचित. इस श्लोक में भक्त माँ से प्रार्थना बद्ध है, कि हे कृपालु माँ, मैंने अज्ञान से या भूल से आपकी पूजा में कुछ ऊँच नींच कर दी हो, तो कृपया उसे भोली सी भूल समझ, क्षमा कर दें, और मुझ पर अपनी कृपा हमेशा बनाए रखें.
कामेश्वरि जगन्मात: सच्चिदानन्दविग्रहे।
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या प्रसीद परमेश्वरि॥7॥
सातवाँ श्लोक:
हे जगद माता, कामेश्वरी दुर्गा, आप सच्चिदानंद स्वरूपा हैं. कृपया मेरे सब अपराधों को क्षमा कर, मेरी सब गलतियों को भुला कर, मेरे द्वारा की गई इस पूजा को प्रेम पूर्वक स्वीकार करें. मुझ पर प्रसन्न होवें, मुझ पर अपनी कृपा का वरद हस्त सदा रखे रहें.
गुह्यातिगुह्यगोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि त्वत्प्रसादात्सुरेश्वरि॥8॥
आठवाँ श्लोक:
हे माँ सुरेश्वरी, आप सब भक्तों की गोपनीय (सीक्रेट) से गोपनीय वस्तु एवं बात की रक्षा करने वाली हो. मेरी इस प्रार्थना को भी गोपनीय रखना. मेरी इस गोपनीय मनोकामना को अपने तक ही रखना. मेरी इस प्रार्थना को ध्यान में रखते हुए, मुझ दास को, अपनी शरण मैं ले लो. मेरे द्वारा की गई इस छोटी सी पूजा को स्वीकार कर, मेरे हर अपराध को क्षमा कर दो. मुझे पूर्ण विश्वास है,
यदि आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देंगी, तो मेरे सब अपराधों के बावजूद, मुझे मेरी मनोकामना की सिद्धि अवश्य प्राप्त होगी. इस प्रकार ऋषियों ने क्षमा प्रार्थना की रचना कर भक्तों के लिये माँ से मनचाही मनोकामनाएँ पाने का मार्ग सुगम बना दिया. बच्चे तो अपने स्वभाव के कारण, कभी अज्ञान से, तों कभी भूल से, हजारों भूलें करते रहेंगे. लेकिन इस क्षमा प्रार्थना के माध्यम से माँ से अपनी बात भी मनवाते रहेंगे. ऐसी परम दयालु, जगद जननी माँ जगदम्बा के चरणों में हमारा शत शत नमन