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भगवद गीता – अध्याय 3 सारांश

अर्जुन पूछता है – वह क्या है जो मुझे मेरे चुने हुए मार्ग से दूर ले जाता है और मुझसे वह काम करवाता है जो मुझे नहीं करना चाहिए? कृष्ण उत्तर देते हैं – यह इच्छा है, यह क्रोध है, जो रजस, जुनून की गुणवत्ता से पैदा हुआ है। दुश्मन भीतर है. वहाँ से बाहर नहीं. फिर भी आप बाहरी ताकतों से निपटने की कोशिश में कीमती समय और ऊर्जा बर्बाद करते हैं। इच्छा तीन रंगों में आती है – सत्व पवित्रता, राजस जुनून और तमस अंधकार । काव्य को दर्शन के साथ मिश्रित करते हुए कृष्ण बताते हैं कि कैसे ये तीन प्रकार की इच्छाएँ आत्मा को, आपके भीतर की दिव्य चिंगारी को ढक लेती हैं। सत्त्व अग्नि के चारों ओर धुएँ के समान है। सात्विक व्यक्ति में आत्मा की प्रतिभा और वैभव चमकता है । रजस आत्मा को दर्पण पर धूल की तरह ढक देता है। स्वार्थ और अहंकार स्वयं की छवि को धुंधला कर देते हैं। आप राजसिक व्यक्ति में दिव्यता देखने में असमर्थ हैं । तमस गर्भाशय में भ्रूण की तरह है। यह न केवल दिव्यता को पूरी तरह से ढक देता है बल्कि आपको सुस्ती और आलस्य से बाहर निकलने में भी समय लेता है।

कृष्ण कहते हैं, इच्छा आपकी सबसे बड़ी शत्रु है। वह इच्छा को शत्रु बताने के लिए चार अलग-अलग शब्दों का उपयोग करता है। यह बहुत ही ज्यादा खाने वाला होता है और अत्यधिक मानसिक अशांति और तनाव का कारण बनता है। यह आग की तरह बुझने वाली नहीं है। इच्छा को पूरा करके संतुष्ट करने की कोशिश करना आग में ईंधन डालकर उसे बुझाने की कोशिश करने जैसा है। इसके अलावा, यह क्रोध, लालच, भ्रम, ईर्ष्या और अहंकार जैसे अन्य अधिक विनाशकारी रूपों में बदल जाता है। फिर भी हर कोई इच्छा को बढ़ावा देने में व्यस्त है – व्यक्ति, संगठन और राष्ट्र भी।

फिर कृष्ण बाहर का रास्ता देते हैं। ऊंची इच्छा की ओर बढ़ें, निचली इच्छा आप पर अपनी पकड़ खो देगी। उन्होंने एक अत्यंत प्रेरक संदेश के साथ अपनी बात समाप्त की – उच्चतम इच्छा, यानी आत्म-साक्षात्कार की ओर बढ़ कर इच्छा के रूप में दुर्जेय शत्रु को मारें। अर्जुन के अंदर का योद्धा उत्तेजित हो जाता है और प्रतिक्रिया देता है।

अध्याय 3 से सीख

  1. कार्रवाई जरूरी है. सभी प्राणी कार्य करने के लिए प्रेरित हैं।
  2. अपने स्वधर्म को पहचानें – अपनी प्रतिभा, मूल रुचि।
  3. अपने स्वधर्म के क्षेत्र में एक उच्च आदर्श स्थापित करें ।
  4. ऊर्जा पैदा करें – बुद्धि को आदर्श पर केंद्रित करें, उसके प्रति समर्पण करें और उसके प्रति समर्पित होकर कार्य करें।
  5. अभिनय करते समय मन को अतीत की चिंता और भविष्य की चिंता के अनुत्पादक रास्ते में न जाने दें।
  6. सत्व को विकसित करें, रजस को परिष्कृत करें और तमस को खत्म करें।
  7. यह समझो कि इच्छा ही शत्रु है और इसे बुद्धि के वश में करो।
  8. अंत में उच्च इच्छाओं को उठाकर इच्छा को समाप्त करें जब तक कि मुक्ति की इच्छा सभी इच्छाओं को दूर न कर दे
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