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रघुकुल रीत के प्रतिपालक – महाराज दशरथ

रामजी के रघुकुल वंश में रघु, इक्ष्वाकु, और अज के बाद एक और प्रतापी राजा हुआ, जिसका नाम था महाराज दशरथ. इसी कुल में रामजी ने भी उन्हीं के पुत्र के रूप में जन्म लिया. महाराज दशरथ पूर्व जन्म में मनु ऋषि थे, जिन्होंने अपनी पत्नी शतरूपा के साथ मिल कर कठोर तपस्या की थी. उनकी तपस्या से प्रसन्न हो, जब भगवान विष्णु उनके सामने प्रगट हुए और वरदान माँगने को कहा, तो पति पत्नी को समझ ही नहीं आया की क्या माँगे.

ऐसे में शतरूपा के मन में प्रभु जैसे पुत्र की कामना उत्पन्न हुई. तो उसने बड़े सकुचाते हुए प्रभु से कहा, महाराज आपको कुछ भी अदेय नहीं है, मेरी इच्छा है कि, मेरा आप जैसा एक पुत्र हो. भगवान विष्णु ने जब यह सुना, तो एक क्षण के लिये सोच में पड़ गए. फिर बोले मैं अपने जैसा बालक तो नहीं ला सकता, लेकिन मैं स्वयं आपका बेटा बन आपके घर जन्म ले सकता हूँ. उसी वरदान की पूर्ति के लिए मनु अगले जन्म में रघु वंश में दशरथ के रूप में जन्मे और रामजी उनके पुत्र के रूप में पधारे. और इस प्रकार प्रतापी राजा दशरथ ने रघुकुल की परम्परा को एक सुदृढ़ आधार दिया और अवधपुरी पर बरसों राज्य किया.

अवधपुरी रघुकुलमनि राऊ, बेद बिदित तेहि दशरथ नाऊँ
धरम धुरंधर गुननिधि ज्ञानी, हृदय भगति मति सारंगपानी||

तुलसी बाबा ने मानस में लिखा, अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम का एक राजा हुआ, जो वेदों में बहुत विख्यात था. यह महाराज दशरथ धर्म आचरण में प्रवीण थे, और उनका मन और बुद्धि हमेशा भगवान की भक्ति में लगी रहती थी. उनका विशाल राज्य था, और उनके पास अपार सम्पदा थी. एक बार राजा दशरथ अपने जीवन के बारे विचार कर रहे थे, की मेरे पास सब कुछ है, लेकिन इसके भोग के लिए कोई संतान नहीं है. उन्हें अपनी संतानहीनता की अनुभूति कटोचने लगी:

एक बार भूपति मन मॉहीं, भई ग्लानि मोरें सुत नाहीं
महाराज अपने गुरु वसिष्ठ के पास गए, और अपना दुख सुनाया. गुरु गृह गयऊ तुरत महिपाला, चरन लागि करि बिनय बिसाला ऋषि वशिष्ठ ने राजा के दुख को समझ उचित उपाय बताया. ऋषि वशिष्ठ एक त्रिकाल दर्शा थे, उन्होंने देख लिया एक महाराज जल्दी ही चार पुत्रों के पिता बनने वाले हैं. उसी के अनुरूप राजा दशरथ को परामर्श दिया.

सृंगि रिषिहि वसिष्ठ बुलावा, पुत्र काम सुभ जग्य करावा ||

इस पुत्रेष्टि यज्ञ स्वरूप अग्नि देव प्रगट हुए, और महाराज दशरथ को खीर से भरा एक कटोरा देकर बोले, आप इस खीर के हिस्से यथायोग्य भाग से अपनी रानियों में बाँट दीजिए, आपको शीघ्र ही संतान की प्राप्ति होगी. महाराज दशरथ बड़े प्रसन्न हुए. उन्होंने उस कटोरे का आधा भाग कौशल्या को दिया. बाक़ी जो बचा, उसके तीन हिस्से किए और एक कैकेयी को तथा दो हिस्से सुमित्रा को खिला दिए. कुछ ही समय में सभी रानियाँ गर्भवती हुई, और समय पाकर महाराज दशरथ के घर चार बेटों ने जन्म लिया. कौशल्या के राम, कैकेयी के भरत और सुमित्रा के पुत्र लखन और शत्रुघ्न आँगन में किलकारियाँ मारने लगे, तो राजा दशरथ फूले नहीं समाये.

मंगल भवन अमंगल हारी, द्रवहू सो दशरथ अजिर बिहारी||

रानियाँ और महाराज दशरथ बच्चों के बालपन का आनंद लेने लगे. माताएँ कभी उन्हें खिलाती, कभी झुलाती, कभी सुलाती और कभी उन्हें पैंजनिया पहना आँगन में खुला छोड़ देती हैं, और तुलसी बाबा गा उठे:

ठुमक चलत राम चन्दर, बाजत पैंजनिया किलकि किलकि उठत धाय गिरत भूमि लटपटाय, धाय मात गोद लेत, दशरथ की रनियाँ ठुमक चलत राम चन्दर, बाजत पैंजनिया!!!!!

महाराज दशरथ वैसे तो सभी बेटों से प्रेम करते थे, लेकिन रामजी में तो उनके प्राण बसते थे. एक बार उनके दरबार में ऋषि विश्वामित्र आए, और राक्षसों से लड़ने के लिए, महाराज से सहायता माँगने लगे. महाराज ने कहा, मैं और मेरी सेना आपकी सहायता के लिये तैयार हैं. विश्वामित्र ने कहा, मुझे राक्षसों से लड़ने के आपके दो पुत्र चाहिएँ. राजा दशरथ यह सुन थोड़े विचलित हो उठे, बोले ऋषिवर, आप मेरे प्राण ले लीजिए, पर मुझे रामजी से विलग मत कीजिए:

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं, राम देत नहि बनईं गोसाई
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा, कहँ सुंदर सुत परम किसोरा

अंत में राजा राम लखन को विश्वामित्र जी के साथ भेज देते हैं. रामजी वनों में बहुत सारे राक्षसों का वध कर ऋषियों को मुक्त भाव से रहने का वातावरण तैयार कर देते हैं. एक दिन ऋषि विश्वामित्र को राजा जनक के यहाँ से स्वयंवर का न्योता मिलता है. ऋषिवर दोनों भाईयों को लेकर वहाँ पहुँचते हैं, और सीता स्वयंवर की शर्त को पूर्ण कर सीता जी के गले में वरमाला डालते हैं. महाराज दशरथ को जब यह समाचार मिलता है, तो उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता. राजा जनक के दूत राजा दशरथ से कहते हैं:

सुनहु महिपति मुकुटमनि तुम सम धन्य न कोउ
राम लखन जिन्ह के तनय, विस्व विभूषन दोउ||

रामजी जी सभी भाईयों के साथ विवाह कर जब अयोध्या लौटे, तो उनका भरपूर स्वागत हुआ, अयोध्या ख़ुशी से चहक उठी. राजा दशरथ जो अब थोड़े बूढे हो चले थे, सोचने लगे, अब बच्चे बड़े हो गए हैं, यह राज पाट उन्हें सौप देना चाहिए. इस विचार के आते ही उन्होंने गुरुओं से विचार विमर्श किया. और सबकी सलाह से रामजी को युवराज बना उन्हें गद्दी पर बिठाने की घोषणा कर दी.

नाथ राम करिहऊँ जुबराज़ू, कहिअ कृपा करि करिअ समाजू
मोहि अछत यहू होइ उछाहू, लहहि लोग सब लोचन लाहू ||
प्रभु प्रसाद सिव सबइ निबाहीं, यह लालसा एक मन माहीं||

मेरे जीते जी राम राजा हो जायें, बस मन में एक यही अभिलाषा रह गई है. सभी ने महाराज के इस निर्णय का अनुमोदन किया. अयोध्या में ख़ुशी की लहर दौड़ गई, हर तरफ़ ज़ोर शोर से तैयारियाँ आरंभ हो गई. फिर क्या था, देवताओं को यह नहीं भाया. उन्होंने अपना खेल, खेल मंथरा के माध्यम से कैकेयी की बुद्धि बिगाड़ दी. कैकेयी को यह समाचार अच्छा नहीं लगा. उसे ईर्षा हुई, कि युवराज राम नहीं बल्कि उसका बेटा भरत होना चाहिए. और इसी बात से कुपित हो वह कोप भवन जा पहुँची. महाराज दशरथ को जब पता चला तो कारण पूछने वह भी कोप भवन जा पहुँचे. जब राजा ने कारण पूछा, तो कैकेयी बोली:

मागु मागु पै क़हहु पिय, कबहुँ न देहु न लेहु
देन कहेहु बर दान दुइ, तेउ पावत संदेहु ||

आप बस माँग माँग कहते रहते हो, पर कभी कुछ देते नहीं हो. एक बार दो वचन देने का वचन दिया था, पर आज तक नहीं दिए. दशरथ बोले, यह तो मामूली सी बात है, फिर रघुवंशी तो अपने वचन के बड़े पक्के होते हैं. तुम आज दो की बजाय चार माँग लो. रघुवंशी प्राण दे देंगे, पर वचन से कभी नहीं फिरेंगे.

झूठेहूँ हमहि दोषु जनि देहू, दुइ कै चारि मागि मकु लेहू
रघुकुल रीत सदा चली आई, प्रान जाए पर वचन न जाई

बस फिर क्या था कैकेयी का रुद्र रूप सबल हो उठा और उसने जो दो वर माँगे, उससे अयोध्या का भाग्य ही पलट गया. थोड़ी कठोर हो बोली:

सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का, देहू एक बर भरतहि टीका
और दूसरा:

तापस वेष विशेष उदासी, चौदह बरिस राम बनवासी।।

बस फिर क्या था, महाराज दशरथ को तो मानो साँप सूँघ गया हो.
गयउ सहमि नहि कछु कहि आवा, जनु सचान बन झपटेउ लावा राजा दशरथ सहम गए, मुँह निस्तेज हो गया. वाणी निशब्द हो गई. ऐसा लगा मानो किसी कोमल पक्षी पर बाज झपट पड़ा हो. थोड़ा संभले तो कैकेयी को बहुत समझाने का प्रयत्न किया, लेकिन रानी टस से मस नहीं हुई. तुलसी बाबा लिखते हैं, तब से राजा दशरथ का नारी पर से विश्वास उठ गया:

कवने अवसर का भयउ, गयऊँ नारी बिस्वास
जोग सिद्धि फल समय, जिमी जतिहि अविद्या नास

जब कैकेयी पर बस नहीं चला तो दशरथ जी ने रामजी को समझाने का प्रयास किया, कि तुम मेरे वचन को मानने से इंकार कर दो. रामजी ने कहा यह हमारी कुल की परंपरा के विपरीत होगा. राम के साथ उनकी पत्नी सीता और लक्ष्मण भी बन के लिये तैयार हो गए. जब सब मंत्री सुमंत्र के रथ पर सवार होकर जाने लगे तो दशरथ जी ने सुमंत्र को समझाया, इन्हें कुछ दिन वन घुमा कर लौटा लाना. इनको पता चल जाएगा कि वन बहुत कठिन है. मैं तब तक तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा. थोड़े दिन बाद जब सुमंत्र लौटे महाराज दशरथ बहुत टूट गए. वह रामजी के विरह का दुख झेल नहीं पाए.

 

कौशल्या पास थी, उससे अपना हाल चाल बाटनें लगे. तापस अंध पाप सुधि आई, कौशल्यहि सब कथा सुनाई

महाराज दशरथ को अपने अतीत की एक कहानी याद आ गई. कौशल्या को वही कहानी सुनाने लगे. उनसे युवावस्था में अनजाने में एक पाप हो गया था. एक शिकार के अन्तर्गत, उन्होंने श्रवण कुमार नामक एक युवक को, जोकि अपने अन्धे माँ बाप के लिए सरोवर से जल भर रहा था, एक पशु समझ, उसे अपने शब्दभेदी बाण का शिकार बना लिया था. जिससे श्रवण कुमार की मृत्यु हो गई. श्रवण कुमार के मातापिता को जब बेटे की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने राजा दशरथ को श्राप दे दिया. उन्होंने कहा, हम पुत्र वियोग में प्राण त्याग रहे हैं. तुम्हारे जीवन में भी एक दिन ऐसा आएगा, जब तुम भी पुत्र वियोग में तड़प तड़प कर प्राण त्याग दोगे.

कौशल्या के साथ यह सब चर्चा करते करते भोर हो आई और महाराज दशरथ बिलखने लगे:

हा रघुनन्दन प्रान पिरीते, तुम बिन जियत बहुत दिन बीते
हा जानकी लखन हा रघुबर, हा पितु हित चातक जलधर||

और बस राम लखन को याद करते, उनके विरह की असैह्य पीड़ा झेलते झेलते महाराज दशरथ शैय्या पर लुढ़क गए. और तुलसी बाबा ने अश्रुपूरित आँखों से लिखा:

राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम
तनु परिहरि रघुबर बिरह, राऊ गयऊ सुरधाम||

राम विरह में महाराज दशरथ ने प्राण त्याग, अपने पिता का धर्म निभाया.
ऐसे महा प्रतापी एवं रामजी को अनन्य प्रेम करने वाले महाराज दशरथ को सादर प्रणाम!!!

Rajendra Kapil
847-962-1291

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