रामचरित मानस और भगवद गीता हमारे हिंदू धर्म के दो आधार स्तंभ हैं. दोनों में ज्ञान और भक्ति की अविरल धारा बहती है. तरह तरह के तर्कों और कथाओं के माध्यम से जीवन के सहज मूल्यों की व्याख्या की गई है. मज़ेदार बात यह है, कि दोनों का जन्म एक संदेहात्मक जिज्ञासा से होता है. नीचे के विवरण से बात और भी स्पष्ट होती दिखाई पड़ती है.
गीता का आरंभ कुरुक्षेत्र के मैदान में, युद्ध के लिये तैयार खड़ी सेना के मध्य, खड़े दो महारथी अर्जुन और श्री कृष्ण के संवाद से होता है. युद्ध से पहले अर्जुन का मन तरह तरह के संदेहों से घिर जाता है. जिसके चलते उसके हाथ से गांडीव गिरने लगता है. शरीर शक्तिहीन निराशा से, घिर आता है. गला सूखने लगता है.
अर्जुन द्वारा शोक (विषाद) करना
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ৷৷1.28৷৷
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ৷৷1.29৷৷
भावार्थ : अर्जुन बोले- हे कृष्ण! युद्ध क्षेत्र में इकट्ठे हुए युद्ध की इच्छा वाले इस स्वजन कुटुम्ब समुदाय को सामने देखकर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है एवं मेरे रोंगटे खड़े हो रहे है.
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ৷৷1.30৷৷
भावार्थ : हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है, इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ.
दूसरी ओर रामचरित मानस का आरंभ शिव पार्वती के बीच, चल रही कथा से होता है. राम कथा कहते सुनते, उसी समय उधर से, रामजी का उधर से गुजरना होता है. जो सीता अपहरण के बाद, जंगलों में एक विरही पति की भाँति मारे मारे घूम, बड़ी व्याकुलता से सीता को खोज रहे हैं. उनकी यह दशा देख, पार्वती के मन में एक संदेह जन्म लेता है. जिस परात्पर महा प्रभुत्वशाली ब्रह्म राम की चर्चा उसके पतिदेव कर रहे हैं, वह एक साधारण पुरुष की तरह, पत्नी विरह में अधीर और व्याकुल कैसे हो सकता है? यह संदेह इतना प्रबल हो जाता है कि, भगवान शिव के मना करने पर भी पार्वती रामजी की परीक्षा लेने चल पड़ती है.
जय सच्चिदानंद जग पावन, अस कहि चलेउ मनोज नसावन
सती सो दसा संभु कै देखी, उर उपजा संदेह विसेषी
भगवान शिव ने पार्वती को समझाने बहुत का प्रयास किया, लेकिन शंका रूपी सर्प पूरा फन उठाए खड़ा था.
जासु कथा कुंभज ऋषि गाई, भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा, सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ||
फिर भी जब पार्वती का मन शांत नहीं हुआ, तो शंकर जी ने एक सुझाव दिया:
जो तुम्हरे मन अति संदेहू, तो किन जाहि परीछा लेहू
बस फिर क्या था, पार्वती उठी, और रामजी के समक्ष सीता रूप में जा खड़ी हुई. उसने सोचा रामजी अपनी सीता को देख, तुरंत प्रसन्न हो जाएँगे और उनकी असलियत सामने आ जाएगी. लेकिन राम तो राम ठहरे, उन्होंने तुरंत पार्वती का असकी रूप पहचान, उन्हें प्रणाम किया और महादेव की कुशल ख़ेम पूछी. पार्वती झेंप कर शिवजी के पास लौट आयी, और पूछने पर एक सरल सा झूठ बोल गई, कि मैंने कोई परीक्षा नहीं ली:
कछु न परीछा लीन्ह गोसाईं, कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं
जब शिवजी ने अंतर्ध्यान हो, पार्वती को सीता रूप में परीक्षा लेते देखा, तो मन मन बहुत दुःखी हुए, और पार्वती का मानसिक परित्याग कर अनंत काल तक समाधि में लीन हो गए.
एही तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं, सिव संकल्प कीन्ह मन माहीं
दोनों ग्रंथों का अगर गहराई से अध्धयन किया जाए, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि, एक भक्त कई बार, माया के प्रभाव से, आसानी से, भ्रमित हो जाता है. उसकी बुद्धि इतनी दुर्बल हो जाती कि, कई प्रकार की सांसारिक दुविधाओं से घिर जाती है. यदि हम यहाँ हम अर्जुन की बात करें तो, वह अपने चचेरे भाइयों से सारी उम्र ईर्षा, छलावा, और धोखेपन का व्यवहार झेलता आया था. कई बार बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर ने दुर्योधन से न्याय की माँग की, लेकिन सत्ता का लोभ, और वर्तमान राजा का ज्येष्ठ पुत्र होने का अहंकार, दुर्योधन को न्याय संगत बनने ही नहीं देता था. यहाँ तक कि दुर्योधन जब छल का जुआ खेल, उन्हें हर तरह से कंगाल बना देता है, तो पांडव केवल पाँच गाँव की माँग करते हैं, तो भी दुष्ट दुर्योधन यही कहता है कि मैं युद्ध किये बिना सुई की नोक के बराबर ज़मीन भी इन भाइयों को नहीं दूँगा. स्थिति युद्ध तक पहुँच जाती है, तब भी अर्जुन का मन पुनः संदेह से भर जाता है, कि क्या इस सब के लिये इन परिजनों को मारना उचित है? क्या गुरुओं के साथ युद्ध करना ठीक होगा?
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ৷৷1.34৷৷
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ৷৷1.35৷৷
भावार्थ : आचार्य, पिता, पुत्र ,और उसी प्रकार पितामह, मामा,श्वसुर,पौत्र, साले तथा अन्य भी संबंधी लोग हैं जिनके प्रहार करने पर भी में इनको नही मारना चाहता .हे मधुसूदन! तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?
भगवान कृष्ण को इस संदेह की घड़ी में अर्जुन को क्षत्रिय धर्म समझाना पड़ता है. कर्म योग का उपदेश दे, उसे युद्ध के लिये तैयार करना पड़ता है. भगवान कृष्ण उसे बताते हैं, की युद्ध कर्म तुम्हारा स्वभाव है. तुम चाह कर भी उससे मुँह नहीं मोड़ सकते. इसलिए हर प्रकार के संदेह और सोच को त्याग कर, अपना कर्म करो.
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥2.47॥
भावार्थ : तेरा कर्तव्य कर्म करने में ही अधिकार है, उनके फलों में कभी नहीं। कर्मफल का हेतु (कारण) भी मत बन और तेरी अकर्मण्यता (कर्म न करना) में भी आसक्ति न हो ।
एक बात और जो सामने आती है, वह यह कि, जब मन संदेह या शंका से घिर जाता है, तो बुद्धि बड़ी अशांत हो जाती है. भक्त का भरोसा डगमगा जाता है. उसके विश्वास की शिला हिल जाती है. ऐसे में भगवान का उपदेश ही सही दिशा दिखाता है. वही उपदेश मन को आश्वस्त करता है. यही पार्वती जी के साथ हुआ. उनकी शंका ने, उन्हें हिला के रख दिया. स्वयं अपने पति भगवान शिव पर भी वह भरोसा नहीं कर पायी, परिणाम स्वरूप उसकी बहुत बड़ी क़ीमत उन्हें चुकानी पड़ी.
इहाँ संभु अस अनुमाना, दच्छसुता कहुँ नहि कल्याना
मोरेहु कहे न संसय जाहीं, बिधि बिपरीत भलाई नाही||
ऐसे बड़े बड़े प्रश्न बड़ी जिज्ञासा को जन्म देते हैं. और वही जिज्ञासा अपनी खोज में, रामचरित मानस और भगवद् गीता जैसे महान ग्रंथों को जन्म देती है. ज्ञान पिपासा योग्य गुरुओं के पास ले जाती है. गुरु अपनी अनुभव की पोटली में से ऐसे ऐसे मोती निकाल कर, शिष्यों की झोली में डाल देते हैं, कि उनसे न केवल शिष्यों का उद्धार होता है, बल्कि आने वाली अनेकानेक पीढ़ियों का उद्धार हो जाता है. अर्जुन जैसे योग्य शिष्य के संदेह निवारण के लिये भगवान कृष्ण ने जो भी कहा या समझाया, वही गीता अमृत बन गया. हज़ारों वर्षों के बाद भी गीता का उपदेश, विश्व भर में, हिंदू समाज के लिए जीवन जीने का एक सुदृढ़ आधार बन गया है. उसे विश्व के कोने कोने में अनेकानेक भाषाओं में अनुवादित कर, पूरी मानव जाति के लिए उपलब्ध कराया जा रहा है. यह दोनों ही ग्रंथ, चाहे वोह रामचरित मानस हो, या फिर भगवद् गीता हो, यह महान रचनायें विश्व कल्याण में एक सक्रिय भूमिका निभा रही है, और विश्व हिंदू समाज को एक सही दिशा दिखा रही हैं. इनके रचनाकारों को मेरा सादर नमन !!!
Rajendra Kapil
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