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शिव पार्वती विवाह – क्यों और कैसे

शिव अनादि हैं. शिव आशुतोष हैं, जल्दी प्रसन्न उठते है. शिव जन कल्याण के लिये हमेशा भक्तों पर कृपा बनाये रखते हैं. शिव हमेशा राम भक्ति एवं राम कथा में व्यस्त रहते हैं. लोक कल्याण के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं. शिव पार्वती विवाह का क्या संयोग बना? इस संदर्भ में रामचरितमानस में एक कथा आती है. एक बार शिव सती को राम कथा सुना रहे थे. सती बड़ी श्रद्धा से रामजी की लीला का गुणगान सुन रही थी. इतने में त्रेता युग में रामजी नर लीला करते हुए सीताजी के अपहरण के बाद, पत्नी विरह में अत्यंत व्याकुल हुए, इधर उधर सीता जी को ढूँढते वहाँ से गुजरे. उन्हें ऐसा देख सती बड़ी हैरान हुई. साथ ही सती को यह शंका हो जाती है कि, शिव जिस परम परात्पर ब्रह्म राम की कथा सुना रहे हैं, वह इतना पत्नी विरह में दुर्बल इंसान की भाँति कैसे हो सकता है?

रामजी की नर लीला सती की समझ में नहीं आई. शंकर जी ने बहुत समझाने का प्रयास किया लेकिन सती की शंका ज्यों कि त्यों बनी रही. सती ने मन ही मन रामजी की परीक्षा लेने का विचार बना लिया. और शिवजी को बताये बिना सीता का वेश धर रामजी की राह में खड़ी हो गई. जैसे ही रामजी ने सती को देखा तो उन्होंने सती को उसके असली रूप में पहचान कर पूछा, कैसी हो सती? महाराज शिव कैसे हैं?

सती थोड़ा झेंप गई, और तुरंत शिव के पास लौट आयी. शिव जी ने पूछा, कैसी रही तुम्हारी परीक्षा? सती साफ़ झूठ बोल गई. शिव तो अंतर्यामी थे. उन्होंने आँख बंद कर वह सब देख लिया, जो सती अभी अभी कर के आई थी:
सती कीन्ह सीता कर वेषा, सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा
जो अब करऊँ सती सन प्रीति, मिटइ भगति पथु होइ अनीती
पत्नी ने कुछ क्षणों के लिए ही सही, माँ सीता का रूप धारण कर लिया था. तो अब सती से पत्नी रूप में प्रीति नहीं हो सकती. यह विचार आते ही शिव ने सती का मन ही मन परित्याग कर समाधि में लीन हो गए.
संकर सुरूप सम्हारा, लागि समाधि अखंड अपारा
यह देख देवता अति प्रसन्न हुए. तभी एक आकाशवाणी हुई, हे महादेव, आपकी जय हो, आपने भक्ति की मर्यादा का बड़ी दृढ़ता से पालन किया.
चलत गगन भै गिरा सुहाई, जय महेस भली भगति दृढ़ाई
आकाशवाणी सुन सती भयभीत हो गई. सती ने बहुत पूछने का प्रयास किया लेकिन शिव ने बिना कोई उत्तर दिए समाधि में लीन रहे:
जदपि सती पूछा बहु भांति, तद्पि न कहेउ त्रिपुर आराती
सती के मन में बड़ी ग्लानि हुई. वह विचार करने लगी कि, किस प्रकार इस शरीर का परित्याग कर, घोर तपस्या करूँ, ताकि शकरजी को पुन: प्राप्त कर सकूँ:
कही न जाइ क्छु हृदय गलानी, मन महु रामहि सुमिर सयानी
बहुत वर्ष यूहीं पश्चाताप में बीत गए. अनेकों वर्षों के बाद शिवजी की भी समाधि टूटी.

तभी सती के पिता राजा दक्ष ने अपनी सफलता पर एक विशाल यज्ञ किया. जिसमें उन्होंने शिव सती को छोड़, सभी परिवारी जनों को निमंत्रित किया. राजा दक्ष किसी कारण से शिवजी से नाराज़ थे. जब सती को पिता के यज्ञ का समाचार सुना, तो वहाँ जाने की ज़िद करने लगी. शंकरजी ने बहुत समझाया, कि पिता के घर भी बिना बुलाए नहीं जाना चाहिए. लेकिन सती एक न मानी. यज्ञ में सभी के लिए आसन बनाये गए थे. लेकिन शंकर एवं सती के लिए कोई आसन नहीं था.यहाँ तक कि, पिता प्रेम से मिले भी नहीं. सती यह अपमान सहन न कर पायी. और उसने उसी यज्ञ अग्नि में कूद अपने प्राणों का बलिदान दे दिया.
तजिहऊँ तुरत देह तेहि हेतू , उर धरि चन्द्रमौलि बृषिकेतु
अस कहि जोग अगिनी तनु जारा, भयउ सकल मख हाहाकारा
बस फिर क्या था? यज्ञ में खलबली मच गई. साथ आये शंभुजी के गणों ने सारे यज्ञ को विध्वंस कर दिया. तब सती ने महाराज हिमाचल के यहाँ पार्वती के रूप में जन्म लिया. हिमाचल अपनी पत्नी के साथ इस नयी नवेली पार्वती को प्यार से पालने पोसने लगे. पार्वती भी बड़ी हो चली थी. एक दिन नारद जी हिमाचल के यहाँ पधारे. पिता ने पुत्री को महर्षि से मिलवाया और बिटिया के भविष्य के बारे में पूछने लगे. नारद को अच्छी तरह से पता था कि यह पार्वती है, और उसके इस जन्म का उद्देश्य क्या है? नारद जी हिमाचल को बेटी के गुणों से अवगत करवाने लगे:
सुंदर सहज सुसील सयानी, नाम उमा अंबिका भवानी
सब लच्छन संपन्न कुमारी, होहहि संतत पियहि पिआरी
होइहि पूज्य सकल जग माही, एहि सेवत कछु दुर्लभ नाही
फिर नारद जी ने पार्वती के विवाह के बारे में एक भविष्यवाणी की, इसका पति बड़ा विचित्र होगा. कोई नग्न योगी ही इसका पति बनेगा. उस दूल्हे के माता पिता नहीं होंगे. बिल्कुल फक्कड़ साधू होगा. जिसका न कोई आगे होगा , न कोई पीछे.
अगुन अमान मातु पितु हीना, उदासीन सब संसय छीना
जोगी जटिल अकाम, मन नगन अमंगल वेष
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परि हस्त असि रेख

दूल्हे के यह सब लक्षण सुन हिमाचल दंपति थोड़े दुःखी हुए. लेकिन पार्वती मन ही मन बड़ी प्रसन्न हुई. हर्ष से बोली, मुनिवर, बिल्कुल ठीक कहा आपने. यही तो हैं, मेरे भोले बाबा शंकर महाराज. उसी दिन से पार्वती ऐसे पति को पाने के लिये उपवास एवं तपस्या करने लगी. तुलसी बाबा ने इस प्रसंग में एक बहुत बड़ी बात लिखी:
समरथ को नहीं दोष गुसाँई, रवि पावक सुरसरि की न्याईं
यानिकि समर्थ लोगो के दोष भी गुण बन जाते हैं. जैसेकि गंगा मैया. इस पवित्र एवं समर्थ नदी के प्रवाह में लोग भक्ष अभक्ष बहुत सी वस्तुएँ डाल देते हैं. फिर भी गंगा मैया सभी को आत्मसात कर पवित्र बना देती है, और अपने मीठे जल में परिवर्तित कर देती है.

शिव पार्वती विवाह का एक और कारण:
इधर पार्वती जी की तपस्या चलती रही और उधर शिव जी की समाधि. पार्वती ने पहले भोजन छोड़ा, फल और पत्तों पर जीवत रहने लगी. फिर उसने पत्ते यानि पर्ण भी छोड़ दिए, तब से उनका एक और नाम पड़ गया- अपर्णा. इसी समय एक बहुत बलशाली तारक नाम के राक्षस का प्रभाव बढ़ गया था. उसने देवताओं पर बहुत अत्याचार करना आरंभ कर दिया था.
तारकु असुर भयउ तेहि काला, भुज प्रताप बल तेज बिसाला
अजर अमर सो जीति न जाई, हारे सुर करि बिबिध लराई
तब देवताओं ने ब्रह्मा जी से उससे छुटकारा पाने का उपाय पूछा. ब्रह्मा जी ने कहा इसकी मृत्यु केवल शिवजी से उत्पन्न पुत्र से हो सकती है, और शिव अखंड समाधि में थे. तब ब्रह्मा जी ने आगे बताया कि, हिमाचल पुत्री पार्वती शंकरजी के लिये घोर तपस्या कर रही है, अगर शंकर जी पार्वती से विवाह कर लें तो उससे उत्पन्न पुत्र तारक असुर को समाप्त कर सकता है. पर सवाल यह है था, कि शिव की समाधि को कैसे तोड़ा जाए? और उनके मन में विवाह करने की भावना को कैसे पैदा किया जाए? इसके लिए ब्रह्मा जी ने सुझाया, कि कामदेव से प्रार्थना की जाए तो काम बन सकता है:
पठवहु कामू जाइ सिव पाही, करै छोभ संकर मन माही
एहि बिधि देवहित होइ, मत अति नीक कहइ सब कोइ
फिर क्या था, देवताओं ने कामदेव के पास जाकर गुहार लगाई. लेकिन कामदेव यह सब करने को तैयार नहीं थे. महादेव की समाधि भंग करने में काफ़ी ख़तरा था. लेकिन देवताओं के अधिक कहने पर कामदेव लोक कल्याण के लिए यह कम करने के लिए तैयार ही गए, और चारों ओर कामुक वातावरण बना दिया:
तव आपन प्रभाउ बिस्तारा, निज बस कीन्ह सकल संसारा
सबके हृदय मदन अभिलाषा, लता निहारि नवहि तरु साखा
नदी उमगि अंबुधि कहूँ धाईं, संगम करहि तलाव तलाई

 


तुलसी बाबा लिखते हैं:
जहँ अस दसा जड़नह कै बरनी, को कह सकत सचेतन करनी
पसु पच्छि नभ जल थल चारी, भए काम बस समय बिसारी
जड़ चेतन पशु और पक्षी समय की मर्यादा को भूल काम क्रीड़ा में विलीन हो गए. केवल वही बचे, जिन पर राम जी की कृपा बनी रही:
सबके मन मनसिज हरे, धरी न काहुँ धीर,
ते उबरे तेहि काल महूँ, जे राखे रघुबीर
इस वातावरण का प्रभाव शिवजी पर भी पड़ा, उनकी समाधि टूटी और वह कुपित हो उठे. उनके इस कोप को देख तीनों लोक काँप उठे. शिव ने क्रोध में अपना तीसरा नेत्र खोला और कामदेव को भस्म कर दिया:
सौरभ पल्लव मदनु बिलोका, भयउ कोपु कंपेउ त्रैलोका
तव सिव तीसर नयन उघारा, चितवत् कामू भयउ जरि छारा
जब कामदेव की पत्नी रति को पति की मृत्यु का समाचार मिला, तो वह बिलखने लगी. रोते रोते शंकर जी के सामने आई, और दया की भीख माँगने लगी. शिव तो आशुतोष हैं, जल्दी ही पिघल गए. उन्होंने रति से कहा, तुम्हारे पति ने एक अपराध किया, थोड़ी सज़ा तो मिलेगी, मैं इसे सब प्राणियों के हृदय में पुन: जीवत कर देता हूँ. तब से काम भावना सभी के मन मस्तिष्क में आज भी एक विकार के रूप में जीवत है.

जब सब शांत हो गया, तब देवता गण शंकरजी के पास पहुँचे और प्रार्थना की, महाराज पार्वती ने आपके लिए घोर तपस्या की है. कृपया आप उनसे विवाह के लिए तैयार हो जाइए. आप दोनों के संयोग से जो संतान होगी, उससे तारक असुर का संहार कर हम सब का उद्धार कीजिए. शंकर जी लोक कल्याण के लिए हमेशा तत्पर रहते हैं, तुरंत राज़ी हो गए:
पारबती तपु कीन्ह अपारा, करहु तासु अब अंगीकारा
देवता की प्रार्थना स्वीकार हुई:
तब देवन्ह दुंदुभी बजाई, बरषि सुमन जय जय सुर साईं
सकल सुरन्ह के हृदय अस संकर परम उछाहु
निज नयनन्ही देखा चहहीं नाथ तुम्हार बिबाहु
इस प्रकार महादेव शिव ने देवताओं की रक्षा के लिए और पार्वती की तपस्या का मान रखने के लिए विवाह रच भक्तों को प्रसन्न किया. बोलो हर हर महादेव!!!

Rajendra Kapil 
847-962-1291

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