हमारी धार्मिक आस्तिकता- एक विवेचन
बचपन में दो शब्द सुने थे, यह आस्तिक है और वह नास्तिक। आस्तिक से समझ लगी कि यह व्यक्ति भगवान में विश्वास करता है, और नास्तिक प्राणी भगवान की सत्ता में विश्वास नहीं करता। नास्तिक मानता है, कि भगवान से जुड़ी सभी मान्यताएँ केवल कपोल कल्पना है। देखा जाए तो आस्तिक शब्द कि व्युत्पत्ति ‘अस्ति’ धातु से है। जिसका अर्थ है- वह है,यानिकि प्रभु है, किस रूप में है? वह एक अलग विषय है। साकार रूप में है, या निराकार रूप में, यह हर धर्म की अपनी अपनी मान्यता है। गुरु गूगल देव के अनुसार इस संसार में 800 करोड़ लोग हैं। जिनमे से 240 करोड़ ईसाई धर्म को मानते हैं, 190 करोड़ मुस्लिम धर्म को मानते हैं और लगभग 120 करोड़ हिंदू हैं। इसके अलावा और भी कई दर्जन अन्य धर्म हैं, जिन्हें लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार मानते है। इतने सारे लोग अगर किसी सत्ता को मान रहे हैं, तो कुछ तो है, जो मानव जाति की क्षमताओं से ऊपर है, और इस संसार को चला रहा है। यह सभी किसी न किसी रूप में आस्तिक है, और प्रभु के प्रति समर्पित हैं।
आख़िर नास्तिक कौन है?
नास्तिकता असल में एक नकारात्मक दृष्टिकोण है। यह विचारधारा एक ऐसे अहम से प्रेरित है जो यह बात बड़ी दृढ़ता से मानती है, कि आदमी अपनी मेहनत और अपने पुरुषार्थ से बनता है। ऐसे प्राणी आसानी से अपने अलावा किसी और पर विश्वास नहीं करते। केवल अपनी आँखों देखी और अपने कानो सुनी बात पर विश्वास करना चाहते हैं। इसीलिए ऐसे नास्तिक लोग जब किसी भक्त को भगवान को भोग लगाते देखते हैं, या प्यार से झूला झुलाते देखते हैं, या कोई मधुर भजन सुनाते देखते हैं, तो सहसा कह उठते हैं। हमने तो किसी भगवान को तुम्हारा भोग खाते नहीं देखा। हमने तो किसी भगवान को तुम्हारे भजनों पर झूमते नहीं देखा। वोह लोग शायद यह भूल जाते हैं कि हमारे शरीर की शक्तियाँ बड़ी सीमित हैं। और इन सीमित शक्तियों से, उस अपार शक्ति वाले प्रभु को देखना लगभग असम्भव है। मेरी ऐसी धारणा है, कि नास्तिक लोग बचपन में कुछ ऐसी परिस्थितियों के शिकार होते हैं, जहाँ उन्हें किसी भरोसेमन्द परिवारीजन का साथ नहीं मिला होता, जिसके परिणाम स्वरूप वह लोग किसी और पर भरोसा करना सीखते ही नहीं, भगवान पर भी नहीं। ऐसे लोगो के संदेह को दूर करने के लिए कई ग्रंथों में बड़े सुंदर सुंदर उदाहरण दिये गए हैं।
आस्तिकता की पुष्टि:
क्या वास्तव में प्रभु हैं? क्या आस्तिक भाव का सबल आधार है? क्या प्रभु की सत्ता पर आँख मूँद कर विश्वास किया जा सकता है? इसका एक मात्र उत्तर है, हाँ और बिल्कुल हाँ। किसी कठिन समय में सच्चे मन से प्रार्थना करके देखिए, प्रभु अवश्य सुनते हैं। इस अनुभव के बाद उत्पन्न होता है, विश्वास। ज्यों ज्यों विश्वास गहन होता जाता है, तो उत्पन्न होती है, प्रीति। इन दोनो के मिलन से पैदा होता है, समर्पण। तुलसी बाबा इसी भाव को यों कहते हैं:
बिनु बिस्वास भगति नहि, तेहि बिनु द्रवहि न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहूँ, जीव न लह बिश्रामु
जब विश्वास हो जाता है, तब भक्ति अपने आप आ जाती है। और उससे उपजता है, एक कृतज्ञता का भाव। इसी भाव में बह कर, मीरा जैसी भक्त सब कुछ छोड़ कृष्ण की दीवानी ही जाती है। ऐसे में भगवान हाथ पकड़ लेते हैं, भक्त आँखें मूँद लेता है, तो प्रभु अपनी खुली आँखों से उसे सही दिशा में ले जाते हैं। अगर कोई उसे विष का प्याला भेजता है, तो प्रभु उसे भी अमृत बना देते हैं।
समर्पण के लिए स्वयं को खोना पड़ता है। स्वयं को प्रभु के समक्ष दीन भाव से समर्पित करना पड़ता है। ऐसे में प्रभु भक्त की, हर ज़िम्मेवारी, अपने ऊपर ले लेते हैं। भक्त का कष्ट भगवान का कष्ट बन जाता है। द्रौपदी की लाज बचाने के लिए, प्रभु हज़ारो गज़ लम्बी साड़ी तक बन जाते हैं। प्रभु ने गीता में कहा है, सब कुछ छोड़ मेरी शरण में आ जा, मैं तुझे हर प्रकार के पापों से मुक्त कर दूँगा, तो चिंता मत कर। तुलसी बाबा पूरी राम चरित मानस लिखने के बस प्रभु चरणों में गिर, बस यही कह पाये:
मो सम दीन न दीन हितु, तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि, हरहु विषम भव भीर
जब नास्तिक कहता है, मैंने तो कभी भगवान को नहीं देखा तो, उसके उत्तर में, स्वयं भगवान कृष्ण गीता के दसवें अध्याय में बड़ी विश्वसनीयता से कहते हैं:
आदित्यनाम् अहं विष्णुज्योतिर्षाम रविरंशुमान, मरीचि मरूतामस्मि नक्षत्रणामहं शशि
मैं अदिति के बारह ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य हूँ तथा मैं उनचास वायुदेवताओं का तेज और नक्षत्रों का अधिपति चंद्रमा हूँ॥21॥
बृहत्साम तथा साम्नांगायत्री छन्दसामहम् ।मासानां मार्गशीर्षोऽह-मृतूनां कुसुमाकरः
तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूँ॥35॥
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणांदेवर्षीणां च नारदः गन्धर्वाणां चित्ररथःसिद्धानां कपिलो मुनिः
मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष, देवर्षियों में नारद मुनि, गन्धर्वों में चित्ररथ और सिद्धों में कपिल मुनि हूँ॥26॥
भगवान कृष्ण ने आगे भी बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा, अगर कोई इस संसार में मुझे साक्षात रूप में देखना चाहे तो:
दिन में चमकता हुआ सूर्य मैं हूँ।
रात में आकाश को प्रकाशित करता हुआ चन्द्रमा मैं हूँ
पशुओं में सिंह मैं हूँ, पक्षियों में मोर मैं हूँ।
नदियों में गंगा मैं हूँ, मंत्रों में गायत्री मंत्र मैं हूँ।
और मेरा सबसे प्रिय सिद्ध मुनियों में, कपिल मुनि मैं हूँ।
भगवान कृष्ण ने गीता में यह भी कहा है, कि मेरा भक्त अगर मुझे पत्ते, पुष्प, फल या जल जो भी अर्पित करे, वह सब मैं सगुण रूप से प्रकट होकर सहर्ष स्वीकार करता हूँ, और खाता हूँ।
पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छति, तद्हम् भक्त्यु अपहृतम अश्नामि प्रयतात्मन:
इस प्रकार संसार में प्रभु की प्रभुत्व का दर्शन हर रोज़ किया जा सकता है। दुर्गा सप्तशती तो इससे भी एक कदम आगे पहुँच नास्तिक को ऐसा उत्तर देती है, कि वह हक्का बक्का रह जाता है। इस ग्रंथ में ऋषियों ने माँ की वन्दना इस रूप में की:
या देवी सर्व भूतेषू क्षुधा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:
या देवी सर्व भूतेषू निद्रा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमो नम:
या देवी सर्व भूतेषू तृष्णा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमो नम:
या देवी सर्व भूतेषू श्रद्धा रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै, नमो नम:
हे माँ, तू हमारे शरीर आत्मा में भूख रूप में बिराजमान है,
निद्रा रूप में बिराजमान है,
प्यास रूप में विराजमान है,
श्रद्धा रूप में विराजमान है,
तुम्हारे उस भूख, निद्रा, प्यास और श्रद्धा रूपी अस्तित्व को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं।
नास्तिकों को ईश्वर का विश्वास दिलाने के लिए एक और आधुनिक उदाहरण दिया जाता है। वोह यह कि, प्रभु उसी तरह हर जगह विद्यमान है, जैसे आजकल इंटरनेट, हर जगह विद्यमान है। परमात्मा देखने का नहीं, महसूस करने का विषय है। वह दिखाई भले ही न दे, पर आप उसकी उपस्थिति का अनुभव हर जगह कर सकते हैं। जैसे इंटरनेट को कोई देख नहीं पाता, लेकिन उसका सिग्नल वायु की तरंगों के माध्यम से आपके फ़ोन या लैपटॉप में आसानी से पहुँच जाता है, और उन उपकरणों में एक सजीवता का संचार कर देता है। ठीक ऐसे ही, जब एक भक्त पूरी आस्तिकता के साथ प्रभु को याद करता है, तो प्रभु बिना किसी विलम्ब के तुरंत ही भक्त के मन प्राण में आ बसते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
निष्कर्षता आस्तिकता जीवन का एक सहज अंग है। उस परम पिता परमेश्वर से जुड़ने की सरल प्रक्रिया है। इसीलिए विश्व की अधिकांश मानव जाति, उस परम तत्व में किसी न किसी रूप में विश्वास कर, अपने आप को उसके सुरक्षित हाथों में सौंप कर, निश्चिंत हो जाना चाहती है। वह इस विश्वास के साथ जीना चाहती है कि, उसकी कृपा से जीवन मैं सब कुछ मंगल ही होगा:
मंगल भवन अमंगल हारि, द्रवहु सो दसरथ अजिर बिहारीं !