रामचरित मानस में प्रवाहित ऋषि परम्परा
By: Rajendra Kapil
प्रथम सोपान, रामायण के रचयिता- ऋषि वाल्मीकि
ऋषि वाल्मीकि को आदिकवि भी कहा जाता है, क्योंकि उन्हीं के मुख से पहला श्लोक निकला था, जिसने संस्कृत में रामायण महाकाव्य की नींव रखी. उन्हीं के आश्रम में, गर्भावस्था में, माँ सीता ने आश्रय लिया था. और दो सुंदर राजकुमारों लव और कुश को जन्म दिया था. वाल्मीकि का जन्म ऋषि भृगु के कुल में, त्रेता युग में हुआ था. उनका बचपन का नाम रत्नाकर था. जब रत्नाकर बड़े हुए, तो उनका विवाह हुआ, कुछ बच्चों का जन्म भी हुआ. उसी समय एक भारी अकाल पड़ा, और घर गृहस्थी का भार उठाना कठिन हो गया. इसने रत्नाकर को एक कुख्यात डाकू बना दिया, जो उधर से गुजरने वाले राहगीरों को लूटने लगा.
एक दिन रत्नाकर को नारद मुनि टकरा गए. जब वह उन्हें भी लूटने लगा, तो मुनि ने रत्नाकर को समझाने का प्रयास किया, कि यहसब पापकर्म है. रत्नाकर ने कहा नहीं, यह मेरी जीवका है, और इसे मैं अपने परिवार के गुजर लिए करता हूँ. तब मुनि नारद ने पूछा, कि, क्या तुम्हारे परिवार वाले तुम्हारे साथ यह पापकर्म बाटेंगे? रत्नाकर ने कहा, शायद हाँ!! मुनिवर ने कहा, चलो मैं यहाँ रुकता हूँ, तुम उनसे पूछ कर आओ. बाक़ी बात हम तुम्हारे लौटने पर करेंगे. संत तो आख़िर संत होते हैं, वहीं ठहर गए. थोड़ी देर बाद, परिवार से बात करने के बाद जब रत्नाकर लौटा, तो उसके चेहरे पर काफ़ी निराशा थी. कारण था कि, परिवार जनों ने उसके इस पापकर्म में भागीदार बनने से इंकार कर दिया था. ऐसे में नारद जी ने रत्नाकर को ज्ञान और भक्ति का उपदेश दिया और एक सही राह दिखाई. रत्नाकर को कहा, कि वह परम सरल ‘राम’ मंत्र का जप किया करे. लेकिन रत्नाकर की आत्मा इतनी मलिन हो चुकी थी, कि मुँह से ‘राम’ मंत्र निकल ही नहीं पा रहा था. सबको मारते मारते वह केवल ‘ मरा मरा’ का जाप ही कर पाया. चूकि मरा मरा में भी राम छिपा था, उससे ऋषि वाल्मीकि का उद्धार हो गया. इस पर तुलसी बाबा लिखते हैं:
महामंत्र जोइ जपत महेसु, कासी मुकुति हेतु उपदेसु
जान आदिकबि नाम प्रतापू, भयउ सुद्ध करि उल्टा जापू
नारद जी ने कहा, कोई चिंता नहीं, यह एक महा मंत्र है, जिसे शंभु निरंतर जपते रहते हैं. तुम इसे सीधा उल्टा, जैसे चाहो जपो, लेकिन एक ही शर्त है कि , सच्चे मन से जाप करो. तुम्हारा उद्धार अवश्य ही होगा. और कालांतर में यही सच हुआ. उल्टा नाम ‘ मरा मरा ‘ जपते जपते रत्नाकर एक सिद्ध ऋषि वाल्मीकि बन गए.
वाल्मीकि को इस समय तक संस्कृत का ज्ञान नहीं था. फिर भी एक दिन सहसा उनके मुख से संस्कृत का श्लोक बह निकला. हुआ यूँकि, एक दिन वाल्मीकि एक उपवन में बैठे, एक क्रोंच युगल को प्रेम क्रीड़ा में मगन निहार रहे थे. अचानक उधर से एक शिकारी आया, और उसने उस क्रोंच युगल में से एक को, अपने तीर का निशाना बना, मार गिराया. उसे देख दूसरा क्रोंच पक्षी तड़पने लगा. विलाप करने लगा. इससे वाल्मीकि का आदिकवि जाग्रत हो गया, और उसने उस शिकारी को, निम्न श्लोक में बहुत कोसा:
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्
अर्थात्: हे निषाद ! तुमको अनंत काल तक शांति न मिले, क्योंकि तुमने प्रेम, प्रणय-क्रिया में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी.
यह था वाल्मीकि का पहला श्लोक, जिसने बाद में रामायण की आधार शिला रखी. इसी रामायण को पढ़ कर बाद में गोस्वामी तुलसीदास ने उस समय की आसान भाषा अवधि में रामचरित मानस को लिखा, और राम कथा को आम आदमी के घर घर तक पहुँचाया. रामचरित मानस में ऋषि वाल्मीकि और उनके आश्रम कि चर्चा अयोध्या कांड में आती है. रामजी वनवास के समय घूमते घूमते एक दिन वाल्मीकि ऋषि के आश्रम जा पहुँचे.
सुची सुंदर आश्रमु निरखी हरषे राजीव नेन
सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगे आयउ लेन
वाल्मीकि के सुंदर आश्रम को देख, रामजी बड़े प्रसन्न हुए. जब मुनि ने सुना कि, रामजी आये हैं, तो अगवानी करने स्वयं द्वार पर आ पहुँचे. फिर रामजी ने मुनिवर को दंडवत् प्रणाम कर, उचित सम्मान दिया.
मुनि कहूँ राम दण्डवत कीन्हा, आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा
देखि राम छवि नयन जुड़ाने, करि सनमानु आश्रमहि आने
वाल्मीकि के शिष्यों द्वारा आवभगत शुरू हो गयी:
मुनिवर अतिथि प्रानप्रिय पाए, कंद मूल फल मधुर मँगाए
सिय सौमित्रि राम फल खाये, तब मुनि आश्रम दिए सुहाए
मुनिवर वाल्मीकि ने अतिथि सत्कार किया. कंद मूल फल से नाश्ता करवाया. और विशेष अतिथि को निहारते निहारते ऋषि वाल्मीकि गद गद हो गए.
एक दो दिन विश्राम के बाद रामजी ने ऋषि वाल्मीकि से पूछा, हे ऋषिवर, कृपया मुझे बताइए कि, मैं कहाँ कुटिया बना कर रहूँ? चूकि ऋषिवर जानते थे कि, पूछने वाला साधारण इंसान नहीं है, बल्कि स्वयं ब्रह्म है. ऐसे में वाल्मीकि ने प्रश्न के उत्तर में, उत्तर देने की जगह, रामजी से एक प्रश्न पूछ डाला:
पूँछेहु मोहि कि रहूँ कहाँ, मैं पूँछत सकुचाऊँ
जहाँ न होहु तहँ देहु कहि, तुम्महि देखाऊं ठाऊँ
हे प्रभु, पहले आप मुझे कोई ऐसा स्थान बता दीजिए, जहाँ आप विद्यमान नहीं हैं, तब मैं आपको बता दूँगा कि आप कहाँ रहें. चूकि आप तो कण कण में विराजमान हैं. यह बड़ा ही दार्शनिक प्रश्न था. रामजी ऋषि वाल्मीकि की, गूढ वाणी सुन कर, थोड़ा सकुचा गए:
सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने, सकुचि राम मन मुस्काने
तब ऋषिवर बोले:
सुनहु राम अब कहऊँ निकेता, जहाँ बसहु सिय लखन समेता
अब वाल्मीकि जी एक भक्त की तरह बोलने लगे. रामजी को भक्तों के हृदय में अपना घर बनाने की उत्तम सलाह दे डाली. लेकिन भक्त किस प्रकार के होने चाहिए?
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना, कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना
ऐसे, जिनके कान समुद्र के समान हों, जिनमे तुम्हारी कथा की नदिया सदा आकर विलीन होती रहे, लेकिन हृदय कभी तृप्त ही न हो. बल्कि और आने दो, निरंतर आने दो, कह राम कथा की लालसा को हमेशा बनाए रखें. और भक्त कैसे हों?
तुम्हहि निवेदित भोजन करही, प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं
सीस नवहि सुर गुर द्विज देखी, प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी
कर नित करहि राम पद पूजा, राम भरोस हृदय नहीं दूजा
चरन राम तीरथ चलि जाहीं, राम बसहु तिन के मन माही
जो भक्त खाने से पहले आपको भोग लगाते हों. फिर उसे प्रसाद समझ ग्रहण करते हों. गुरुओं और बड़े बूढ़ों को सम्मान देते हों, सभी से विनम्रतापूर्वक व्यवहार करते हों. जो हमेशा राम तीर्थ पर जाने को तत्पर रहते हों. हे प्रभु राम, आप ऐसे भक्तों के हृदय में निवास करो. यदि इनसे भी मन न भरे तो, उन भक्तों के मन प्राण में जा बसो, जिनके लिए आप सर्वस्व हो, जिनके आप सब कुछ हो:
स्वामि सखा पितु मातु गुर, जिन्ह के सब तुम तात
मन मंदिर तिन्ह के बसहु, सीय सहित दोउ भ्रात
रामजी आप उन भक्तों के मन मंदिर को अपना स्थान बनाओ, जो हमेशा आपका चिंतन करते रहते हैं, क्योंकि ऐसे भक्त केवल एक ही वरदान माँगते हैं:
सब करि माँगहि एक फलु, राम चरन रति होऊ
तिन्ह के मन मंदिर बसहु, सिय रघुनंदन दोऊ
इस सब भक्ति से परिपूर्ण बातचीत के बाद ऋषि वाल्मीकि ने रामजी को चित्रकूट पर्वत के निकट कुटिया बनाने का सुझाव दिया.
उसके बाद रामजी ने लक्ष्मण की सहायता से चित्रकूट में अपनी कुटिया बना, वाल्मीकि जी समेत बहुत सारे अन्य ऋषियों के साथ वहाँ कई वर्ष तक निवास किया. आज इसी कारण चित्रकूट भारत का एक बहुत ही महत्वपूर्ण राम तीर्थ बन चुका है. यहाँ हर वर्ष हज़ारों भक्त आकर, चित्रकूट की परिक्रमा कर, रामजी की उपस्थिति को अनुभव करते हैं. इस सुंदर प्रसंग के अधिनायक ऋषि वाल्मीकि जी को मेरा सादर नमन!!