रामचरित मानस में प्रवाहित ऋषि परम्परा
By: Rajendra Kapil
दूसरा सोपान- ब्रह्म ऋषि विश्वामित्र
ऋषि विश्वामित्र का रामजी के जीवन में बहुत बड़ा योगदान है. सबसे पहले यह ऋषि विश्वामित्र ही थे, जिन्होंने राम और लखन के अदम्य शौर्य को पहचाना था. विश्वामित्र का जन्म राजा गाधि के कुल में एक क्षत्रिय परिवार में हुआ था. युवावस्था में उनका नाम कौशिक नरेश था. उन्होंने पिता के साम्राज्य को बढ़ाने के लिए, उन्होंने अनेक युद्ध किए. ऐसे ही एक बार युद्ध से लौटते समय उनकी भेंट ऋषि वशिष्ठ से हुई. ऋषि वशिष्ठ ने उनका आथित्य स्वीकार करने का आग्रह किया. चूँकि कौशिक नरेश के साथ सेना भी थी, तो उन्हें आथित्य स्वीकार करने में थोड़ा संकोच हुआ. लेकिन अधिक आग्रह करने पर, वह रुक गए. इतने में ऋषि वशिष्ठ ने कामधेनु का आवाहन किया, और देखते ही देखते, सेना समेत सभी को भर पेट भोजन करवा दिया. कौशिक नरेश को यह कामधेनु बड़ी अच्छी लगी. उन्होंने ऋषि वशिष्ठ से यह गाय उन्हें भेंट स्वरूप देने का आग्रह किया, तो ऋषि वशिष्ठ ने साफ़ मना कर दिया. और कहा कौशिक नरेश यह बड़े तप बल से प्राप्त होती है. बस फिर क्या था, कौशिक नरेश ने घोर तपस्या का निर्णय ले लिया.
तपस्या करते करते क्षत्रिय राजा कौशिक ब्राह्मत्व्य की ओर बढ़ चले. और जल्दी ही विश्वामित्र, अर्थात् विश्व के मित्र, के नाम से प्रसिद्ध हो गए. उनका मन तपस्या में अधिक से अधिक रमने लगा. ऋग्वेद के एक सूत्र के अनुसार ऋषि विश्वामित्र ने, इसी समय, गायत्री मंत्र की रचना की:
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥
हिंदी में अर्थ: हम उस प्राणस्वरूप सृष्टिकर्ता की महिमा पर मनन करते हैं; जिसने ब्रह्मांड को बनाया है; जो पूज्यनीय है; जो ज्ञान और प्रकाश का स्वरूप है; जो समस्त पापों और अज्ञानता को हरने वाला है; वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर ले जाये।
इसी गायत्री मंत्र को गीता में सभी मंत्रों में सबसे उत्तम माना गया है. भगवान कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा, अगर मंत्रों में अगर तुम मुझे देखना चाहो, तो गायत्री मंत्र मैं हूँ. इन्ही उपलब्धियों के कारण, ऋषि विश्वामित्र की गणना भारत के सप्तऋषियों में की जाने लगी.
Rishi Vishma mitra
कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः।
जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः॥
दहंतु पापं सर्व गृह्नन्त्वर्ध्यं नमो नमः॥
इस श्लोक में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, वसिष्ठ ऋषियों के नाम बताए गए हैं। इनके नामों के जाप से सभी पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं।
एक और घटना के अनुसार हमारे देश का नाम भारत भी कहीं न कहीं विश्वामित्र से जुड़ा है. कथा इस प्रकार है, कि एक बार जब विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे, तो देवता घबरा गए. ऋषि की तपस्या को भंग करने के लिए, देवराज इंद्र ने मेनका नाम की अति सुंदर अप्सरा को ऋषि के पास भेजा. मेनका ने अपने रूप लावण्य से ऋषि पर डोरे डालने शुरू कर दिये. बस काम का जादू काम कर गया. ऋषि की तपस्या भंग हो गई और ऋषि विश्वामित्र ने मेनका से विवाह रचा लिया. उस विवाह संयोग से उनकी एक कन्या उत्पन्न हुई, जिसका नाम रखा गया, शकुंतला. इसी शकुंतला को ऋषि कण्व ने पाला. जब शकुंतला बड़ी हुई, तो वह राजा दुष्यंत, पर मोहित हो गई. दोनों ने गंधर्व विवाह कर लिया, और उनका एक पुत्र हुआ, जिसका नाम रखा गया भरत. और कहा जाता है कि, इसी भरत के कारण हमारे देश का नाम भारत पड़ा.
रामचरितमानस में ऋषि विश्वामित्र को महामुनि कहा कि उपाधि दी गई:
विश्वामित्र महामुनि ज्ञानी, बसहि विपिन सुभ आश्रम जानी
जब ऋषि वृद्ध हुए, तो अपने शिष्यों के साथ सुंदर वन में रहने लगे और यज्ञ आदि करके लोक कल्याण में लग गए.
उसी वन के पास ताड़का नाम की एक राक्षसी अपने दो दुष्ट पुत्रों, मारीच और सुबाहु के साथ रहती थी. अपने राक्षसी स्वभाव के कारण वह समय समय पर ऋषियों के यज्ञ आदि में कई तरह के विघ्न डालती थी. इससे परेशान होकर, एक दिन ऋषि विश्वामित्र उपाय सोचने लगे, तो उन्हें भान हुआ, रामजी का जन्म राजा दशरथ के यहाँ हो चुका है:
गाधितनय मन चिंता व्यापी, हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी
तब मुनिवर मन कीन्ह बिचारा, प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा
यह सोच कर ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के दरबार में जा पहुँचे. राजा दशरथ ने उनका आदर सत्कार किया और उनके कष्ट को बड़े प्यार से सुना. राजा दशरथ ने उन्हें पूरी सेना देने का प्रस्ताव सुझा दिया, लेकिन विश्वामित्र तो कुछ और ही चाहते थे. इतने में वहाँ चारों राजकुमार आ गए. राजा दशरथ ने उन्हें ऋषिवर को प्रणाम करने को कहा.
पुनि चरननि मेले सुत चारी, राम देखिं मुनि देह बिसारी
भए मगन देखत मुख सोभा, जनु चकोर पूरन ससि लोभा
ऋषि विश्वामित्र रामजी के मुखारविंद की शोभा को देख मंत्र मुग्ध हो गए. राजा दशरथ से कहने लगे, मुझे सेना नहीं चाहिए. मुझे केवल यह दोनों भाई राम और लखन दे दीजिए, मेरा काम हो जाएगा.
अनुज समेत देहु रघुनाथा, निसिचर बध मैं होब सनाथा जब राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ के साथ ऋषि के आश्रम पहुँचे, तो इसका समाचार ताड़का को मिल गया. अगले ही दिन वह अपने दल बल के साथ ऋषि आश्रम आ धमकी और ललकारने लगी. ऋषि ने राम लखन को सज्ज किया.
चले जात मुनि दीन्ही देखाई, सुनि ताड़का क्रोध करि धाई एकहि बान प्रान हरि लीन्हा, दिन जानि तेहि निज पद दीन्हा रामजी ने एक ही बाण में ताड़का का वध कर दिया. और उसे अति दीन जान कर अपना धाम प्रदान किया. यह है रामजी कि परम दयालुता. अगर कोई उनसे वैर भी करता है, तो उसे भी रामजी अपने दयालु स्वभाव के कारण, अपना धाम ही प्रदान करते हैं. बाक़ी भी राक्षसों का सफ़ाया कर रामजी ने उस वन को निष्कंटक बना दिया. और ऋषि गण बड़ी शांति से अपने यज्ञ जप आदि शुभ कर्मों में व्यस्त हो गए.
एक दिन ऋषि विश्वामित्र के पास राजा जनक के दूत आये और उन्हें जनकपुत्री सीता के स्वयंवर का न्यौता दिया. कृपया आप अपने शिष्यों के साथ स्वयंवर में भाग लीजिए. ऋषि ने मन ही मन विचारा कि, इससे अधिक सुंदर अवसर, राम लखन को मिथिला ले जाने का नहीं हो सकता. यह सोच कर ऋषि ने दोनों राजकुमारों को समाचार सुनाया, और चलने की तैयारी करने को कहा. अगले दिन सभी मिथिला की ओर कूच कर गए. रास्ते में, गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या, जो शापवत एक शिला के रूप में, रामजी की प्रतीक्षा कर रही थी. रामजी ने अपने चरणों के स्पर्श से उसका उद्धार किया. वह ऋषि विश्वामित्र और रामजी का आशीर्वाद लेकर वैकुण्ठ धाम पहुँच गई. तुलसी बाबा रामजी की उदारता पर गद गद हो बोल उठे:
अस प्रभु दीनबंधु हरि, कारन रहित दयाल
तुलसीदास सठ तेहि भजु छाड़ी कपट जंजाल
मेरे प्रभु राम बिनु कारण ही दयालु हैं, इसीलिए मैं हर तरह का कपट त्याग इन्हें भजता रहता हूँ.
जब ऋषि मिथिला पहुँचे, तो यह समाचार चारों ओर फैल गया. महाराज जनक अगवानी के लिए दौड़े आए:
विश्वामित्र महामुनि आए, समाचार मिथिलापति पाए
कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा, दीन्ह असीस मुदित मुनिनाथा
जब राजा जनक ने ऋषि के साथ राजकुमारों को देखा, तो बड़े प्रसन्न हुए. उनका सहज वैरागी मन भक्तिमय् हो गया. ऋषिवर से पूछने लगे कि, इनका परिचय करवाइए. ऋषि ने बड़े प्यार से बताया, यह राजा दशरथ के राजकुमार हैं, और आजकल मेरी सहायता के लिए मेरे आश्रम में रह रहे हैं. अब मैं इन्हें इस स्वयंवर के लिए ले आया हूँ. राजा जनक को उन्हें देख अति प्रसन्नता हुई. उनका वैराग्य कहीं विलुप्त हो गया.
इन्हहि बिलोक़त अति अनुरागा, बरबस ब्रह्म सुखहि मन त्यागा
इसके बाद राजा जनक सभी धनुष शाला में ले आये, और होनेवाली सभी स्वयंवर विधि से परिचित करवाया. अगले दिन जब स्वयंवर था, तो ऋषि समेत दोनों राजकुमारों को एक विशेष मंच पर बिठाया गया. स्वयंवर की शर्त थी, कि इस सभा में से जो कोई भी शिव
धनुष को तोड़ देगा, सीता जी का विवाह उसी से कर दिया जाएगा. बहुत सारे राजा राज्य सभा में थे. सभी एक दूसरे को आंक रहे थे. रामजी को देख भिन्न राजाओं में अलग अलग भावना थी.
जाकी रहि भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी
जब कोई भी राजा धनुष न तोड़ पाया, तो राजा जनक काफ़ी निराश हो गए. तब विश्वामित्र जी ने उस निराशा को भापतें हुए राम को आदेश दिया:
विश्वामित्र समय सुभ जानी, बोले अति सनेहमय बानी
उठहु राम भंजहू भवचापा, मेटहु तात जनक कर परितापा
इस प्रकार ऋषि विश्वामित्र रामजी के विवाह का भी कारण बने. सप्त ऋषियों में से एक, ऐसे महान ऋषि विश्वामित्र को मेरा कोटि कोटि प्रणाम!!