
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, छटा अध्याय
By: Rajendra Kapil
यह अध्याय ‘आत्म सयंम योग’ के नाम से जाना जाता है. आत्म संयम साधारणतः एक संन्यासी या योगी में पाया जाता है. इसीलिए इस अध्याय में, प्रभु कृष्ण ने, अर्जुन को एक संन्यासी के लक्षण बताने का प्रयास किया है. संन्यासी का सबसे पहला लक्षण है, वह योगी जो, अपने सब कर्तव्य कर्मों को, सहज भाव से करता हुआ, उनमें आसक्ति भाव नहीं रखता. ऐसा प्राणी एक सच्चा संन्यासी कहा गया है. ऐसे योगी को ‘योगारूढ़’ भी कहा जाता है. एक ऐसा संन्यासी, जिसने योग को पूरी तरह से जीत कर, उस पर पूर्ण क़ाबू पा लिया हो. ऐसे योगी के लिए अपने मन को पूर्णतया, अपने वश में करने की, महत्ता पर बड़ा ज़ोर दिया गया है. दूसरी ओर अगर कोई भक्त योग करता जा रहा है, और साथ ही साथ उसके मन में वासनाओं का उद्वेग भी चल रहा है तो, वह उद्वेग उसे अपने सही उद्देश्य तक नहीं पहुँचने देगा. मन के वशीकरण के बिना, किसी भी योगी की साधना अधूरी है. यही मन की दुर्बलता, उसे अधोगति की ओर ले जा सकती है. अर्जुन भी इसी मानसिक दुर्बलता का शिकार था. उसी के परिणाम स्वरूप, वह अपने आप को लड़ने में असमर्थ महसूस कर रह था.
आत्म सयंम योग:-
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥ (६)
भावार्थ: जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका वह मन ही परम–मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही परम–शत्रु के समान होता है।
इस श्लोक में प्रभु स्पष्ट करते हैं कि, मन ही हमारा सबसे बड़ा मित्र है और मन ही सबसे बड़ा शत्रु. हम मन की इस गति या चंचलता को कैसे नियंत्रित करते हैं, यह योगी के योगाभ्यास पर निर्भर करता है. जो योगी, यह जान कर, मन पर क़ाबू पा लेते हैं, वह आसानी से प्रभु से सहज ही जुड़ जाते हैं और परम शांति को प्राप्त कर लेते हैं. लेकिन जो मन को नियंतरण में लाने में असमर्थ होते हैं, वह काम वासनाओं के अधीन हो, न तो इस लोक में सुख पाते हैं और न ही परलोक में उन्हें कोई सुख प्राप्त होता है.
योगी का आचरण:-
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः ।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ (१०)
भावार्थ: ऎसा मनुष्य निरन्तर मन सहित शरीर से किसी भी वस्तु के प्रति आकर्षित हुए बिना तथा किसी भी वस्तु का संग्रह किये बिना परमात्मा के ध्यान में एक ही भाव से स्थित रहने वाला होता है।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मनः ।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ॥ (११)
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः ।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ (१२)
भावार्थ: योग के अभ्यास के लिये मनुष्य को एकान्त स्थान में पवित्र भूमि में न तो बहुत ऊँचा और न ही बहुत नीचा, कुशा के आसन पर मुलायम वस्त्र या मृगछाला बिछाकर, उस पर दृड़ता–पूर्वक बैठकर, मन को एक बिन्दु पर स्थित करके, चित्त और इन्द्रिओं की क्रियाओं को वश में रखते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करना चाहिये।
योगी का समय प्रभु चिंतन में बीतता है. इसलिए उसे एकांत बड़ा प्रिय लगता है. वह शारीरिक भोगों से कोसों दूर रहता है. वह अपनी सारी आकांक्षाओं से ऊपर उठ जाता है. उसका किसी प्रकार के भौतिक संग्रह में रुझान नहीं होता. वह एकांत में मृगशाला बिछा, उस पर आसान जमा, अपने मन को प्रभु चिंतन पर एकाग्र कर, ध्यान में लगा रहता है. मन में उठते विचारों के उद्वेग को रोक, आँखें बंद करके, नासिका के अग्र भाग पर, ध्यान केंद्रित किए, ब्रह्म ध्यान में लगा रहता है. ब्रह्मचर्य का पालन कर, काम आदि वासनाओं से दूर रहता है. क़न्दमूल का सेवन कर, जिह्वा के स्वादों से, अपने आप को दूर रखता है. उसकी इस साधना से, उसे प्रभु प्राप्ति के परम उद्देश्य की, प्राप्ति अवश्य होती है. फिर वह सांसारिक भौतिक सुखों से दूर रह, स्थिर मति से, सदा प्रभु चरणों में, परम सुख का अनुभव करता है. इस अनुभव से बड़ा कोई दूसरा आध्यात्मिक अनुभव हो नहीं सकता.
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति ।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥ (३०)
भावार्थ : जो मनुष्य सभी प्राणीयों में मुझ परमात्मा को ही देखता है और सभी प्राणीयों को मुझ परमात्मा में ही देखता है, उसके लिए मैं कभी अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिए कभी अदृश्य नहीं होता है।
इस श्लोक में प्रभु कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि, जब योगी मुझ में पूर्ण रूप से तल्लीन ही जाता है तो, उसे दुनिया के हर कण में, मैं ही दिखाई पड़ता हूँ. वह अपना आपा, यानि अपना अस्तित्व खो कर, हर जगह केवल और केवल मुझे ही देखता है. पशु पक्षी, हर पुरुष नारी में, उसे मेरे दिव्य स्वरूप के दर्शन होते हैं. ग़रीब अमीर, मूर्ख और बुद्धिमान, उसे सब समान दीखने लगते हैं. वह कोई भेदभाव न करता है, न ही कर सकता है. कहा जाता है कि, संत कबीर अपनी बड़ी उमर में पहुँच, इस अवस्था में आ गए थे. तभी उन्होंने एक बार गाया:
लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल
लाली देखन मैं गई, तो मैं भी हो गई लाल
ऐसे भक्त, विरागी योगी, प्रभु को बड़े प्रिय लगते हैं.
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥ (३४)
भावार्थ: हे कृष्ण! क्योंकि यह मन निश्चय ही बड़ा चंचल है, अन्य को मथ डालने वाला है और बड़ा ही हठी तथा बलवान है, मुझे इस मन को वश में करना, वायु को वश में करने के समान अत्यन्त कठिन लगता है।
अर्जुन प्रभु की बात सुनकर कहता है, हे मधुसूदन, आपने जिस योग और संन्यास की बात की है, वह सुनने में बहुत अच्छा लगता है, लेकिन उसे व्यवहार में लाना उतना ही कठिन है. क्योंकि जिस मन को आप वश में लाने की निरन्तर बात करते हैं, वह करना अत्यंत कठिन है. क्योंकि मन बहुत चंचल है. वह आसानी से क़ाबू में नहीं आता. उसे नियंत्रण मैं लाने का कोई सरल सा उपाय बताओ.
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ (३५)
असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ (३६)
भावार्थ: श्री भगवान ने कहा, इसमे कोई संशय नही है कि चंचल मन को वश में करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु इसे सभी सांसारिक कामनाओं को त्याग (वैराग्य) और निरन्तर अभ्यास द्वारा वश में किया जा सकता है। जिस मनुष्य द्वारा मन को वश में नही किया गया है, ऐसे मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) असंभव है लेकिन मन को वश में करने वाले प्रयत्नशील मनुष्य के लिये परमात्मा की प्राप्ति (योग) सहज होता है – ऎसा मेरा विचार है।
अर्जुन का प्रश्न सुन, भगवान कृष्ण कहते हैं कि, तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो. यह मन बहुत ही चंचल है. लेकिन ऐसा नहीं कि, इसे वश में किया नहीं जा सकता. इसे वश में करने के लिए, बहुत ही अभ्यास और साधना की आवश्यकता है. इसे इंद्रियों के सुखों एवं भोग विलासों से मुक्त करने के लिए बार बार अभ्यास करना पड़ता है. अभ्यास तथा ध्यान की एकाग्रता से इसे निश्चित रूप से वश में किया जा सकता है, यह मेरा अनुभव है. आगे प्रभु अर्जुन को समझाते हैं की, जो कोई संन्यासी, जो सदा शुभ कर्मों में लगा, मुझे निरंतर भजता रहता है, वह कभी पथ भ्रष्ट नहीं होता. ऐसे शुद्ध आत्मा योगी बड़े संस्कारी घरों में जन्म लेते हैं. इससे उस कुल का भी उद्धार हो जाता है. ज्ञानियों के यहाँ जन्म ले, वह अपनी, प्रभु प्राप्ति की अधूरी यात्रा को सहज ही पूरा कर लेते हैं. लेकिन एक बात सत्य है कि, इस प्रकार का जन्म अति दुर्लभ है. लेकिन जब मैं ऐसे भक्तों पर प्रसन्न होता हूँ, तो मेरी कृपा से इस प्रकार का जन्म, जो अति दुर्लभ है, वह भीआसानी से संभव हो जाता है. इसलिए हे अर्जुन, तू हर प्रकार का संशय त्याग कर, ऊपर कहे गए लक्षणों वाला संन्यासी बनने का प्रयास कर. मन को नियंत्रित कर, हानि लाभ की चिंता से ऊपर उठ, अपना हर कर्तव्य कर्म कर. औरअपने द्वारा किए गए हर कर्म को मुझे समर्पित करता चल. आलस्य और संशय को त्याग, एक वीर योद्धा की तरह, इस युद्ध के लिए तत्पर हो जा. मैं तुझ जैसे संन्यासी के साथ हमेशा खड़ा रहूँगा, मुझ पर अपना अटूट विश्वास बनाये रख. जय श्री कृष्णा!!!!!