
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, नौवाँ अध्याय
By: Rajendra Kapil
भगवद् गीता का यह संवाद इतना रोचक है कि, इसे न तो सुनने वाले का मन भर रहा है और न ही कहने वाला थक रहा है. इसीलिए यह अर्जुन एवं भक्तों को अत्यंत प्रिय है. इस अध्याय में विशेष ज्ञान की बातें बताई गई हैं, इसीलिए इसे ज्ञान विज्ञान अध्याय भी कहा गया है. भगवान कृष्ण अर्जुन को कह रहें हैं कि, जो मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ वह अत्यंत गोपनीय है. यह राज विद्या है, इसे ध्यान से समझो. यह प्राप्त करने के लिए ज्ञानियों को बहुत यत्न करना पड़ता है. जिनका हृदय शुद्ध हो, जिनके मन में श्रद्धा हो, तथा जिनमें ज्ञान की प्यास हो, केवल उन्हीं को यह ज्ञान भाता है. इसे जानने के बाद कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता.
प्रभु कुछ आगे चल, एक दो उदाहरणों से इस ज्ञान को सरल शब्दों में समझाने का प्रयास करते हैं. पहली बात, मैं अविनाशी हूँ. मैं ही इस जगत का नियंता हूँ. यह सारा जगत् मेरे ही संकल्प से, तथा मेरी ही प्रकृति द्वारा उपजा है. मैं इसके कण कण में हूँ. लेकिन फिर भी मैं इससे अलग हूँ. उदाहरण के तौर पर, जल और बर्फ दोनों में जल है. लेकिन फिर भी जल में बर्फ़ नहीं है, पर बर्फ में जल है. इस जगत के जीव माया और प्रकृति से बँधे हैं, लेकिन मैं, माया एवं प्रकृति दोनों से ऊपर, पूर्णतया स्वतंत्र हूँ. बात बड़ी विरोधी लगती है. आइये इसे ज़रा गहराई से समझने का प्रयास करते हैं. क्योंकि मैं इस जगत को अपने संकल्प से उत्पन्न करता हूँ, इसीलिए सभी में व्याप्त हूँ. लेकिन मेरा वह स्वरूप इतना छोटा है कि, मैं उनमें न के बराबर हूँ. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि, आकाश में वायु एक विशाल रूप से विद्यमान है, वैसे ही मेरा विराट रूप सब जगह फैला हुआ है. लेकिन हर प्राणी में यही वायु स्वाँस रूप में, एक सूक्ष्म रूप में विराजमान है, जोकि मेरा ही आंशिक स्वरूप है.
यथाकाशस्थितोनित्यंवायुःसर्वत्रगोमहान् ।तथासर्वाणिभूतानिमत्स्थानीत्युपधारय॥ (६)
भावार्थ: जिसप्रकारसभीजगहबहनेवालीमहानवायुसदैवआकाशमेंस्थितरहतीहै, उसीप्रकारसभीप्राणीमुझमेंस्थितरहतेहैं।
प्रभु पुन: कहते हैं, इस जगत में जहाँ ज्ञानी जन हैं, वहाँ बहुत से मूढ़ जन भी हैं, जिनकी मेरे ब्रह्म स्वरूप में कोई रुचि नहीं है.
अवजानन्तिमांमूढामानुषींतनुमाश्रितम् ।परंभावमजानन्तोममभूतमहेश्वरम्॥ (११)
भावार्थ: मूर्खमनुष्यमुझेअपनेहीसमाननिकृष्टशरीरआधार (भौतिकपदार्थसेनिर्मितजन्म–मृत्युकोप्राप्तहोने) वालासमझतेहैंइसलियेवहसभीजीवात्माओंकापरम–ईश्वरवालेमेरेस्वभावकोनहींसमझपातेहैं।
जब जब मैं किसी शरीरी अवतार में प्रगट् होता हूँ, तो यह मूढ़ लोग मुझे केवल उसी शरीर वाला एक साधारण पुरुष मान लेते हैं. जैसे मैं देवकी के पुत्र में जन्मा तो, यह अज्ञानी लोग मुझे एक साधारण जन मानने लगे. मेरे अविनाशी और ब्रह्म स्वरूप को यह मूढ़ नहीं पहचान पाते.
(सर्वत्रव्याप्तभगवानकेस्वरूपकावर्णन)अहंक्रतुरहंयज्ञःस्वधाहमहमौषधम्।मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहंहुतम्॥ (१६)
भावार्थ: हेअर्जुन! मैंहीवैदिककर्मकाण्डकोकरनेवालाहूँ, मैंहीयज्ञहूँ, मैंहीपितरोंकोदियेजानेवालातर्पणहूँ, मैंहीजडी़–बूटीरूपमेंओषधिहूँ, मैंहीमंत्रहूँ, मैंहीघृतहूँ, मैंहीअग्निहूँऔरमैंहीहवनमैदीजानेवालीआहूतिहूँ।
एक और उदाहरण से प्रभु अर्जुन को यह विशिष्ट ज्ञान समझाने का प्रयास करते हैं. यदि कोई भक्त मेरी प्राप्ति के लिए यज्ञ कर रहा है, तो उस यज्ञ प्रक्रिया में, आहुति मैं हूँ. मैं ही यज्ञ में डाला जाने वाला घी हूँ. मैं ही बोला जाने वाला मन्त्र हूँ. मैं ही यज्ञ करता हूँ. मैं ही यज्ञ अग्नि हूँ, जो आहुति स्वीकार कर रही है. मैं ही भक्त के यज्ञ करने के प्रेरणा हूँ और मैं ही उसे फल देने वाला देवता हूँ. मैं ही चारों वेद (ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद तथा अथर्वेद) हूँ. मैं ही इस संसार की आदि ध्वनि ऊँ कार हूँ. वेदों में दिए गए विधानों को पूर्ण कर, जो भक्त सकाम भाव से मेरी पूजा अर्चना करता है, वह अपने उन पुण्य कर्मों के फलस्वरूप स्वर्ग लोक को प्राप्त कर, अनेकानेक सुख भोगते हैं. जब पुण्य कर्म समाप्त हो जाते हैं, तो यही प्राणी पुन: मृत्युलोक में लौट आते हैं. इस प्रकार इनका जीवन चक्र में आवागमन बना रहता हैं. लेकिन मेरे प्रिय भक्त, जो केवल मुझे चाहते हैं, इन सबसे अलग हैं. वह स्वर्ग लोक के भोगों की कामना नहीं करते हैं, बल्कि अपना सारा जीवन मेरी प्राप्ति के यत्न में बिता देते हैं.
अनन्याश्चिन्तयन्तोमांयेजनाःपर्युपासते।तेषांनित्याभियुक्तानांयोगक्षेमंवहाम्यहम्॥ (२२)
भावार्थ: जोमनुष्यएकमात्रमुझेलक्ष्यमानकरअनन्य–भावसेमेराहीस्मरणकरतेहुएकर्तव्य–कर्मद्वारापूजाकरतेहैं, जोसदैवनिरन्तरमेरीभक्तिमेंलीनरहताहैउसमनुष्यकीसभीआवश्यकताऎंऔरसुरक्षाकीजिम्मेदारीमैंस्वयंनिभाताहूँ।
मेरे सच्चे भक्त केवल मेरा ही निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं. मैं ऐसे भक्तों का योग पूर्ण करता हूँ. मुझे इस प्रकार के भक्त अत्यंत प्रिय हैं. उन सब की चिंता, मैं अपने ऊपर ले लेता हूँ. उनके कुशल क्षेम को मैं स्वयं वहन करता हूँ. मेरे ऐसे भक्तों और सकाम भक्तों इतना ही अंतर है कि, एक यानि सकाम योगी मुझे तत्व रूप अर्थात् ब्रह्म स्वरूप को नहीं जानते, बल्कि पूजा अर्चना के बाद, वह सुखों और भोगों की कामना करते हैं. जबकि दूसरे निष्काम कर्म करने वाले योगी, मेरे ब्रह्म रूप को जानते हुए केवल उसी की कामना करते हैं. वह सब कर्मों को मुझे समर्पित करते हुए, हर शुभ अशुभ फल का त्याग कर, केवल मुझे पाने की प्रार्थना करते रहते हैं. मैं ऐसे भक्तों को अपनी शरण में लेकर, उन्हें अपने धाम में लाकर, मोक्ष प्रदान करता हूँ. फिर यह भक्त, इस दुखदाई संसार के पीड़ादायक, आवागमन के चक्कर से विमुक्त होकर, सदा सदा के लिए मेरे धाम को बस जाते हैं.
अपिचेत्सुदुराचारोभजतेमामनन्यभाक् ।साधुरेवसमन्तव्यःसम्यग्व्यवसितोहिसः॥ (३०)
क्षिप्रंभवतिधर्मात्माशश्वच्छान्तिंनिगच्छति।कौन्तेयप्रतिजानीहिनमेभक्तःप्रणश्यति॥ (३१)
मांहिपार्थव्यपाश्रित्ययेऽपिस्युपापयोनयः।स्त्रियोवैश्यास्तथाशूद्रास्तेऽपियान्तिपरांगतिम्॥ (३२)
ऊपर के श्लोकों में प्रभु ने उन्हें निर्मल मन से भजने वालों के लिए यहाँ तक कह दिया कि, अगर कोई दुराचारी भी उन्हें शुद्ध भाव से भजता है, तो वह साधु मानने योग्य है. क्योंकि उसने अपने मन में यह दृढ़ विश्वास बना लिया कि, प्रभु के भजन के अलावा कुछ भी सत्य नहीं है. इसलिए भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, हे अर्जुन, मेरा भक्त चाहे दुराचारी हो, चाहे पापी हो, चाहे चाण्डाल हो, चाहे किसी शूद्र जाति से हो, जब तक वह मुझे भजता रहेगा, मुझे हर काम समर्पित करता रहेगा, तब तब तक वह मेरी कृपा का पात्र बना रहेगा. मैं ऐसे भक्त को अपने मोक्ष धाम मैं ले जाता हूँ.
यह था इस नौवें अध्याय का ज्ञान विज्ञान योग. यह अपने आप में बहुत ही अनूठा है. जिसे यह गोपनीय ज्ञान समझ में आ जाता है, वह केवल प्रभु को पाने की चेष्टा में जुड़ जाता है. और प्रभु भी ऐसे भक्तों पर अपनी अपार कृपा कर, उन्हें अपने मोक्ष धाम में ले जातें हैं, जहाँ पहुँच कर कोई इस संसार में नहीं लौटता. आइये हम भी भी ऐसे ही सच्चे एवं शुद्ध हृदयी भक्त बनें. “जय श्री कृष्ण “