गीता स्वाध्याय, मेरी समझ से – ग्यारहवाँ अध्याय

गीता स्वाध्याय, मेरी समझ से – ग्यारहवाँ अध्याय

By:Rajendra Kapil

भगवान कृष्ण का विराट रूप. भगवान का अद्भुत एवं चौका देने वाला रूप. प्रभु का एक ऐसा रूप, जो देख कर भय लगता है, जिसमें ब्रह्मांड का कण कण समाया हुआ है. विश्व की समस्त सुन्दरता और सारी कुरूपता समाई हुई है. विराट रूप में एक ऐसी भयंकर निर्दयता, जिसकी कोई भक्त, कल्पना भी नहीं कर सकता. वह है भगवान कृष्ण का यही विराट रूप, इस अध्याय का मुख्य केन्द्र बिन्दु है. अर्जुन के कहने पर प्रभु ने, अपने भक्त को अपने विराट रूप के दर्शन करवाए.  अपनी प्राकृत आँखों से, उस विराट रूप को देख पाना, अर्जुन या किसी के लिए भी संभव ही नहीं था, इसीलिए प्रभु को, अर्जुन को कुछ देर के लिए, दिव्य दृष्टि प्रदान करनी पड़ी. ऐसी ही दिव्य दृष्टि भगवान कृष्ण ने, गीता के आरम्भ में धृतराष्ट्र के सचिव संजय को भी प्रदान की थी, ताकि वह हस्तिनापुर में बैठे बैठे, कुरुक्षेत्र के युद्ध का सारा आँखों देखा हाल, धृतराष्ट्र को सुना सके.

तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ()


भावार्थ: किन्तु तू अपनी इन आँखो की दृष्टि से मेरे इस रूप को देखने में निश्चित रूप से समर्थ नहीं है, इसलिये मैं तुझे अलौकिक दृष्टि देता हूँ, जिससे तू मेरी इस ईश्वरीय योग-शक्ति को देख. 

अर्जुन ने उस दिव्य दृष्टि से प्रभु के विराट रूप के दर्शन किए. अर्जुन उसे देखते ही आश्चर्य चकित हो गया. थोड़ी देर बाद, एकदम निशब्द हो गया, और फिर भय से काँपने लगा. अर्जुन के सामने एक बहुत विचित्र रूप प्रगट था. उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि, प्रभु का ऐसा विकराल रूप भी हो सकता है. लेकिन अगर भक्त की इच्छा हो तो, प्रभु को माननी तो पड़ती है. आइए देखते हैं कि, अर्जुन और संजय ने प्रभु के इस विराट रूप में क्या क्या देखा.

अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्
नान्तं मध्यं पुनस्तवादिंपश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप (१६)

किरीटिनं गदिनं चक्रिणं तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम्‌
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम्‌ (१७)

भावार्थ: हे विश्वेश्वर, मैं आपके शरीर में अनेकों हाथ, पेट, मुख और आँखें तथा चारों ओर से असंख्य रूपों को देख रहा हूँ, हे विश्वरूप, न तो मैं आपका अन्त, न मध्य और न आदि को ही देख पा रहा हूँ.

 मैं आपको चारों ओर से मुकुट पहने हुए, गदा धारण किये हुए और चक्र सहित, अपार तेज से प्रकाशित देख रहा हूँ. और आपके रूप को सभी ओर से अग्नि के समान जलता हुआ, सूर्य के समान चकाचौंध करने वाले प्रकाश को, कठिनता से देख पा रहा हूँ। 

प्रभु के विराट रूप को देख अर्जुन विस्मित है. उसे उस विराट रूप में, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, आठ वसु, विश्वदेव, ब्रह्मा, अनंत गंधर्व और राक्षसों का समुदाय एक ही समय पर दिखाई पड़ रहे थे. कईयों का रूप अत्यधिक क्रूर था, तो कईयों का रूप बहुत ही सौम्य. किसी का रूप महा भयानक था, तो कईयों का प्रसन्नचित्त. प्रभु के सैंकड़ों मुख थे, हज़ारों आँखें थी. इसी तरह उनके उस रूप में हज़ारों हाथ थे, किसी में धनुष, किसी में गदा, किसी में कोई अन्य शस्त्र. यह सब एक समय में एक ही स्थान पर, एक ही रूप में देख अर्जुन घबरा सा गया.

अमी त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः
भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः (२६)

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि
केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्‍गै (२७)

अर्जुन ने एक बहुत ही अजीब दृश्य देखा. अर्जुन जिन धृतराष्ट्र पुत्रों एवं गुरु द्रोण तथा भीष्म पितामह जैसी पूजनीय हस्तियों से युद्ध करने में संकोच कर रह था. वह सब भगवान के विराट रूप के मुख में समाये जा रहे थे.  जयद्रथ और कर्ण जैसे महारथी, प्रभु के दाँतों में फँसे, कालगति को प्राप्त हो रहे थे. अनेकों योद्धा पूरे के पूरे निगले जा रहे थे, तो कुछ दाँतों में अटके पड़े थे. जैसे नदियाँ सागर की ओर खिंचती जाती हैं, ठीक उसी प्रकार कौरव सेना के महारथी, प्रभु के काल मुख में खिंचे जा रहे थे.  अर्जुन यह सब देख कर घबरा   गया.  प्रभु से पूछने लगा, हे माधव, यह उग्र रूप वाले आप कौन हैं? यह सब मैं क्या देख रहा हूँ?

कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धोलोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः
ऋतेऽपि त्वां भविष्यन्ति सर्वे येऽवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः  


भावार्थ: श्री भगवान ने कहा – मैं इस सम्पूर्ण संसार का नष्ट करने वाला महाकाल हूँ, इस समय इन समस्त प्राणियों का नाश करने में लगा हुआ हूँ. यहाँ स्थित सभी विपक्षी पक्ष के योद्धा तेरे युद्ध न करने पर भी, भविष्य में नही रहेंगे। (३२)

अर्जुन को घबराया देख, प्रभु कृष्ण बोले, यह मैं ही लोकों का नाश करने वाला महा काल हूँ. मैं पहले से ही इन्हें मार चुका हूँ. अगर तुम युद्ध नहीं भी करोगे, तो भी इन सब का मरना निश्चित है. इसलिए तू अपने बन्धुओं की चिन्ता किए बिना, अपना कर्तव्य निभा. तू स्वभाव से क्षत्रिय है, युद्ध करना तुम्हारा सहज स्वभाव है, तू उसी क्षत्रिय धर्म को निभा. परिणाम क्या होगा, यह तेरे सोचने का विषय नहीं है. मैं इन सबकी नियति हूँ, और मैं ही इन्हें इनके कर्मों के अनुसार उचित गति प्रदान करूँगा.

संजय धृतराष्ट्र को आँखों देखा हाल सुनाते हुए कहते हैं, हे राजन, यह सुन कर अर्जुन काँपते हाथों से प्रभु को नमस्कार करते हुए बोले, हे प्रभो, आप आदि पुरुष हैं. आप ही ब्रह्म हैं. आपका न कोई आरम्भ है, न ही कोई अन्त. आप सच्चिदानन्दघन हैं. आप इस जगत के परम आश्रय हैं. आप ही यमराज हैं. आप ही वायु, वरुण, अग्नि और आकाश हैं. आप ही प्रजा के स्वामी ब्रह्मा हैं और ब्रह्मा के भी पिता हैं. आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है, कोटि बार नमस्कार है.

मैंने आपको सखा के रूप में, कभी कृष्ण, कभी यादव, कभी केशव बुला कर, आपकी महानता को कम आंक, अगर कोई भूल की हो तो, कृपया क्षमा कर दीजिएगा. हे नाथ, कृपया अपने सहज रूप में लौट आइये. मैं आपको उसी रूप में पुन: देखना चाहता हूँ. यह विराट रूप कुछ देर के लिए ठीक था, लेकिन मैं केवल उस कृष्ण को देखना चाहता हूँ, जो मेरा परम हितैषी है, और मेरा भरोसेमन्द सारथी है.

इसे सुनते ही प्रभु कृष्ण अपने विराट रूप को त्याग, पुन: अपने सहज रूप, सारथी बन, लौट आये. औरअर्जुन को सम्बोधित करते हुए बोले, मैंने अपनी योगमाया से तुम्हें अपना विराट रूप दिखाया. इसे इससे पहले, कभी किसी ने नहीं देखा था. मेरे इस रूप को जानना और समझना आसान नहीं है. वेदों के अध्ययन के बाद भी, मेरा यह रूप बहुत से ज्ञानियों को भी समझ में नहीं आता.

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन
ज्ञातुं द्रष्टुं तत्वेन प्रवेष्टुं परन्तप (५४)


मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्‍गवर्जितः ।
निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव ॥ (५५)

भावार्थ: हे अर्जुन! केवल अनन्य भक्ति के द्वारा ही मेरा साक्षात दर्शन किया जा सकता है, वास्तविक स्वरूप को जाना जा सकता है और इसी विधि से मुझमें प्रवेश भी पाया जा सकता है।

 हे पाण्डुपुत्र, जो मनुष्य केवल मेरी शरण होकर मेरे ही लिए सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को करता है, मेरी भक्ति में स्थित रहता है, सभी कामनाओं से मुक्त रहता है और समस्त प्राणियों से मैत्री भाव रखता है, वह मनुष्य निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करता है। 

जिस चतुर्भुज रूप में तुमने अभी अभी मुझे देखा है, वह बहुत ही दुर्लभ है. मैं केवल अपने प्रिय भक्तों को, इस दर्शन का पुण्य प्रदान करता हूँ. जो भक्त अपने सब कर्तव्य कर्मों को, मेरे पारायण हुए करते हैं, और बाक़ी सब प्राणियों के प्रति, किसी प्रकार का वैर भाव नहीं रखते हैं, ऐसे अनन्य भक्ति भाव युक्त, मेरे भक्त, निश्चित रूप से मुझे ही प्राप्त करते हैं.

इस प्रकार भगवान कृष्ण ने, अर्जुन को पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया. उसे बता दिया कि, जिन परिजनों और बड़े बूढ़ों की चिंता उसे युद्ध करने से रोक रही है, वह पूर्णतया व्यर्थ है. उनकी नियति में जो लिखा है, वह हो कर रहेगा, तेरे युद्ध करने या न करने से, उस पर कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं है. इस लिए तू संकोच को त्याग कर, अपना क्षत्रिय धर्म निभा, और बाक़ी सब मुझ पर छोड़ दे.

यहाँ सबसे बड़ी मज़ेदार बात यह है कि, कुरुक्षेत्र के मैदान में खड़े खड़े, प्रभु ने अर्जुन को अपना इतना विशाल विराट रूप दिखाया, जो केवल उनके भक्त अर्जुन को ही दिखाई पड़ा. वहाँ उपस्थित इतनी बड़ी विशाल सेना के किसी और योद्धा को दिखाई नहीं पड़ा. यही इसकी दिव्यता है. ऐसे परम दयालु प्रभु कृष्ण को मेरा कोटि कोटि नमन.    “जय श्री कृष्ण”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *