गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, पन्द्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तम योग

गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, पन्द्रहवाँ अध्याय – पुरुषोत्तम योग

By: Rajendra Kapil

भगवद् गीता का यह अध्याय एक ऐसे रहस्य का उद्घाटन करता है, जो विशिष्ट रूप से अति उत्तम है. चूँकि यह उत्तम गुण केवल प्रभु के पास है, इसीलिए प्रभु को पुरुषोत्तम भी कहा गया है. और जो योगी इस ज्ञान को अर्जित कर पुरुषोत्तम तक पहुँचने का प्रयास करता है, उसे पुरुषोत्तम योग का पथिक माना गया है. पहले ही श्लोक में, इसी पुरुषोत्तम की विलक्षण विशेषता का उल्लेख है. प्रभू कहते हैं, हे अर्जुन यह संसार एक उल्टे वृक्ष की भाँति है. अर्थात् इसकी जड़ें ऊपर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर हैं. जड़े ऊपर कैसे?  जड़े चूँकि किसी भी पेड़ का आधार होती हैं, और संसार का आधार, प्रभु स्वयम् आप हैं, जो ऊपर रहते हैं, इसलिए जड़े ऊपर हैं. इस संसार का आधार है, अविनाशी ब्रह्म. जो सर्वोपरि है. जो सबसे ऊपर है. और नीचे हैं टहनियाँ, जो प्रभु की त्रिगुणी माया से रचित यह संसार है. इसमें हर प्रकार के विषय भोग विराजमान हैं.

श्री भगवानुवाच

ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्‌ ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्‌ ॥ (१)


भावार्थ: श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा इस वृक्ष के पत्ते वैदिक स्तोत्र है, जो इस अविनाशी वृक्ष को जानता है वही वेदों का जानकार है। 

संसार की शाखाएँ, जो विषयों से प्रभावित हैं. इसमें प्रकृति के तीनों गुण (सत्व, रजस और तमस) कूट कूट कर भरे हुए हैं.  यह संसार रूपी वृक्ष इतना फैला हुआ है कि, इसका पार पाना सम्भव नहीं है. इसका न कोई आदि, दिखाई पड़ता है, न ही कोई अंत. इसके नीचे रहने वाले योगी जन आसानी से भटक जाते हैं. लेकिन ज्ञानी जन, इसकी सच्चाई जानते हैं. इसमें छिपे विकारों से परिचित रहते हुए, उनमें लिप्त नहीं होते. ऐसे योगी इस संसार के सभी भोगों को एक विरक्त भाव से भोग कर, आगे बढ़ जाते हैं. ऐसे भक्त मोह और अहंकार जैसे विकारों से दूर रहते हैं. सुख दुख, हानि लाभ जैसे द्वन्दों से ऊपर उठे, यह योगी जन शाश्वत सत्य यानि प्रभु को जान, परम धाम, की कामना करते हैं. वहाँ पहुँचने का हर सम्भव प्रयत्न करते हैं. कैसा है प्रभु का यह दिव्य धाम?

न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥ (६)

उस धाम की आलौकिकता बड़ी निराली है. सूर्य जो पूरे विश्व को प्रकाशित करता है, उस धाम को प्रकाशित नहीं कर पाता. चन्द्रमा जो रात्रि में अपनी छटा बिखेरता है, अपनी छटा से परम धाम को आलोकित नहीं कर पाता. यह सभी प्रकृति के हिस्से हैं, जो प्रकृति से कहीं ऊपर उठे, इस परम धाम तक नहीं पहुँच पाते. वहाँ प्रभु की दिव्य आभा, सभी को उजागर करती है.

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥ (७)

शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्‌ ॥ (८)


भावार्थ: हे अर्जुन! संसार में प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है, जो कि मन सहित छहों इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है।
शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में ले जाती है। 

प्रभु आगे कहते हैं, इस विश्व में हर जीवित प्राणी में, मैं प्राण शक्ति के रूप में विराजमान रहता हूँ. जब शरीर की मृत्यु होती है, तो मैं उस प्राण शक्ति को आत्मा रूप में, दूसरे शरीर या फिर अपने धाम ले जाता हूँ. मेरी यह प्रक्रिया ठीक वैसी ही होती है, जैसे वायु फूलों में फैली गन्ध को एक स्थान से दूसरे स्थान तक, उड़ा कर ले जाती है. यह सूक्ष्म परिवर्तन, मेरी अनुकम्पा से सहज एवं सम्भव है.

उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम्‌ ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥ (१०)

अज्ञानी जन इस परम रहस्यमय जन्म और मृत्यु के चक्र को समझ नहीं पाते. वह यहाँ के विषयों में, सकाम भाव से, इतने उलझ जाते हैं कि, इसी को जीवन का उद्देश्य मान, इसी में लिप्त हुए, अपने अमूल्य जीवन को गवाँ देते हैं. लेकिन सच्चे योगी, जिनकी आँखें इस विशेष ज्ञान से खुल चुकीं हैं, वह इसमें लिप्त नहीं होते, बल्कि निष्काम भावसे इस संसार के सभी काम करते हुए, उन्हें प्रभु को समर्पित करते हुए, केवल परम धाम की प्राप्ति का यत्न करते रहते हैं.

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्‌ ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्‌ ॥ (१२)

गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ (१३)


भावार्थ : हे अर्जुन! जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ।  मैं ही प्रत्येक लोक में प्रवेश करके अपनी शक्ति से सभी प्राणीयों को धारण करता हूँ और मैं ही चन्द्रमा के रूप से वनस्पतियों में जीवन-रस बनकर समस्त प्राणीयों का पोषण करता हूँ। 

प्रभु बार बार अर्जुन को यही समझाते हैं की, इस जगत का स्रष्टा मैं हूँ. मैं ही अपनी माया के द्वारा, सूर्य बन, इस संसार को प्रकाशित करता हूँ. मैं ही चन्द्रमा बन, फूलों में सुगंध और वनस्पतियों में रस भरता हूँ. मैं ही जीवों में, इंद्रियों के रूप में, उपस्थित रह, विषयों का भोग करने की शक्ति बनता हूँ. मैं ही जीवों में अग्नि रूप में विद्यमान, पाचन शक्ति के रूप कार्य करता हूँ. उनके द्वारा खाए गए हर प्रकार (भक्ष्य, भोज्य, चाट्य तथा चोष्य) के भोजन को पचा कर उनमें ऊर्जा बन, उन्हें गति प्रदान करता हूँ. मैं ही उनकी बुद्धि में स्मृति शक्ति हूँ. मैं ही उनमें विस्मृति हूँ. मैं ही केवल जानने योग्य हूँ. क्योंकि मैं ही सब वेदों का तत्व ज्ञान हूँ. मैं ही जगत का पालक हूँ. मैं ही जगत का संहारक हूँ.

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ (१८)

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्‌ ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ॥ (१९)


भावार्थ: क्योंकि मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिये इसलिए संसार में तथा वेदों में पुरुषोत्तम रूप में विख्यात हूँ। हे भरतवंशी अर्जुन! जो मनुष्य इस प्रकार मुझको संशय-रहित होकर भगवान रूप से जानता है, वह मनुष्य मुझे ही सब कुछ जानकर सभी प्रकार से मेरी ही भक्ति करता है। 

इस प्रकार भगवान कृष्ण ने अर्जुन को, अपने पुरुषोत्तम रूप से अवगत करवाया और बताया कि, केवल वही जानने योग्य हैं. केवल वही उसकी श्रद्धा और विश्वास के पात्र हैं.  इस परम गोपनीय ज्ञान से, अर्जुन के साथ साथ, हम सभी लाभान्वित हुए. इस परम दयालु को हमारा कोटि कोटि प्रणाम. हम भी संसारकी बुराइयों से बचते हुए पढु धाम की ओर लगातार बढ़ते रहें. इसी आशा के साथ,  

जय श्री कृष्णा। !!!!!!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *