
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, सोलहवाँ अध्याय, दैवी एवं आसुरी सम्पदा
By: Rajendra Kapil
इस जगत में दो प्रकार के प्राणी पाए जाते हैं. एक जिनको हम अच्छे या सात्विक लोग कहते हैं. इन्हें सज्जन पुरुषों का सम्मान दिया जाता है. दूसरे जो बुरे स्वभाव वाले, जिन्हें हम दुष्ट लोगों की श्रेणी में गिनते हैं. ऐसे लोगों का सहज स्वभाव होता है, बात बात पर झूठ बोलना, दूसरों की सदा निंदा करना, अपने अहंकार में डूबे रहना. धन के लोभ के लिए, किसी का भी नुक़सान कर देना, उनके लिए मामूली बात होती है. हर छोटी बड़ी बात पर क्रोध करना, वह अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते हैं. ऐसे कामी, क्रोधी, लोभी और अहंकारी लोग किसी का भी अहित करने में कोई संकोच नहीं करते. सज्जन लोगों की इन जैसे लोगों से नहीं पटती. यहाँ तक कि अपने परिवारी जनों से भी, यह बड़े दम्भी भाव से, व्यवहार करते हैं. जहां कोई दाम नहीं, वहाँ इनका कोई काम नहीं.
द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु ॥ (६)
भगवान कृष्ण इस अध्याय में अर्जुन को समझाते हुए बताते हैं कि, इस जगत में दो तरह की सम्पदा से जुड़े प्राणी पाए जाते हैं. एक अच्छे गुण वाले अर्थात् दैवी सम्पदा से सम्पन्न. और दूसरे अवगुणों से भरपूर अर्थात् आसुरी सम्पदा से चूर चूर. प्रभु इन दोनों प्राकृतिक गुणों से जन्मे प्राणियों के लक्षणों को विस्तार से समझाते हैं.
दैवी संपदा से सम्पन्न भक्त के लक्षण: –
अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ।
दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ (१)
भावार्थ: श्री भगवान ने कहा – हे भरतवंशी अर्जुन! परमात्मा पर पूर्ण विश्वास करने का भाव (निर्भयता), अन्त:करण की शुद्धता का भाव (आत्मशुद्धि), परमात्मा की प्राप्ति के ज्ञान में दृड़ स्थित भाव (ज्ञान–योग), समर्पण का भाव (दान), इन्द्रियों को संयमित रखने का भाव (आत्म–संयम), नियत-कर्म करने का भाव (यज्ञ–परायणता), स्वयं को जानने का भाव (स्वाध्याय), परमात्मा प्राप्ति का भाव (तपस्या) और सत्य को न छिपाने का भाव (सरलता)। (१)
ऐसे योगी अपार तेजवान होते हैं. उनमें क्षमा भाव होता है. बहुत सा धैर्य होता है. आंतरिक एवं बाह्य शुद्धि होती है. ऐसे सुजन अपने बड़ों एवं आदरणीय जनों का आदर और सम्मान करते हैं. इनमें अभिमान का दर्प नहीं होता. आंतरिक शुद्धि से अभिप्राय है कि, यह लोग मन बुद्धि से सरल एवं शुद्ध होते हैं. ईमानदार होते हैं. छल कपट इनको छू ही नहीं पाता. हर समय किसी न किसी की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं. बाह्य शुद्धि से मतलब है कि, यह आलसी नहीं होते. सुबह सुबह उठ कर नित्य प्रति स्नान कर अपने शरीर की शुद्धि का पूरा ध्यान रखते हैं. शरीर और मन को पवित्र कर, नित्य पूजा ध्यान आदि में अपना समय बिताते हैं. अनुशासित होते हैं. व्यसनों अर्थात् जुआ, शराब आदि से कोसों दूर रहते हैं. काम, कंचन, कामिनी और आदि वासनाओं से बच कर, सरल जीवन जीते हैं. ऐसे सज्जन पुरुष समाज के उत्थान के लिए, सदा सहायता करने को तत्पर रहते हैं. दीन दुखियों की हमेशा मदद करते हैं. दान पुण्य जैसे अच्छे कामों में समय बिताते हैं.
आसुरी सम्पदा से जुड़े भक्तों के लक्षण: –
काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः ।
मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ॥ (१०)
भावार्थ: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य, कभी न तृप्त होने वाली काम-वासनाओं के अधीन, झूठी मान-प्रतिष्ठा के अहंकार से युक्त, मोहग्रस्त होकर, ज़ड़ वस्तुओं को प्राप्त करने के लिये अपवित्र संकल्प धारण किये रहते हैं।
आसुरी संपदा से भाव है, आसुरी शक्तियाँ. असुर का अर्थ होता है, राक्षस. अर्थात् इनका राक्षसों जैसा स्वभाव होता है, ऐसी प्रकृति के लोग, खानपान में कोई परहेज़ नहीं करते. भक्ष अभक्ष, हर प्रकार का भोजन इन्हें प्रिय होता है. माँसाहार और मदिरा इनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग होता है. यह महा आलसी, कई कई दिनों तक न नहाना, व्यवहार में अति दुष्ट, बिना किसी आधार का, अभिमान इन्हें सहज प्रिय होता है. इनके लक्षणों के बारे में एक जगह पर तुलसी बाबा ने रामायण में लिखा है:
सहज पाप प्रिय तामस देहा, जथा उलूकही तम पर नेहा
जैसे उल्लू को अन्धकार से सहज प्रेम होता है, ठीक वैसे ही ऐसी प्रकृति वाले लोगो को पाप से सहज प्रेम होता है. जीवन में तामसिक वृत्तियों से प्रेम होता है. पाँखण्ड और दिखावा प्रिय लगता है. ऐसे लोग कहते कुछ और हैं और करते कुछ और हैं. सदा झूठ बोलते हैं. ईश्वर में विश्वास नहीं रखते. अपने आप को ईश्वर से कम नहीं समझते. लोभ या स्वार्थ के लिए किसी का भी गला काटने में कोई संकोच नहीं करते. हर काम की सफलता का श्रेय केवल ख़ुद को देना पसन्द करते हैं. दूसरों को नीचा दिखाने में कोई शर्म महसूस नहीं करते. दूसरों के जीवन में समस्याएँ बढ़ाने में, ऐसे असुरी लोगों को बड़ा आनन्द आता है. दूसरों की बुराई में बड़ा रस लेते हैं. ऐसे प्राणी संसार के बंधनों में फँसे रहते हैं. अपनी काम वासनाओं में सदा लिप्त रहने वाले यह लोग, बार बार नीच योनियों में जन्म ले आवागमन के चक्र में निरन्तर उलझे रहते हैं.
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः ॥ (१५)
भावार्थ: आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य सोचते रहते हैं कि, मैं सबसे धनी हूँ, मेरा सम्बन्ध बड़े कुलीन परिवार से है, मेरे समान अन्य कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और इस प्रकार मै जीवन का मजा लूँगा, इस प्रकार आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य अज्ञानवश मोहग्रस्त होते रहते हैं।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ ॥ (१६)
भावार्थ: अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर मोह रूपी जाल से बँधे हुए इन्द्रिय-विषय भोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य महान् अपवित्र नरक में गिर जाते हैं।
ऊपर के श्लोकों में प्रभु इन आसुरी प्रवृति के लोगों के अज्ञान एवं अहंकार के बारे में बता रहे हैं. मैं बड़े कुटुम्ब वाला, मैं धन का स्वामी, मैं ऊँचे पद वाला. बस मैं, मैं और केवल मैं. विभिन्न अभिमान इन्हें एक मिथ्या शान में उलझाए रखते हैं. सांसारिक प्रभुता का अभिमान, धन, पद और कुटुम्ब का अभिमान. इसी अभिमान के अज्ञान में डूबे, यह लोग समाज के लिए घातक सिद्ध होते हैं. ऐसे लोगों के, ऐसे नकारात्मक लक्षण बता कर प्रभु हम सबको सचेत कर रहे हैं कि, इन सब से बचो. ऐसे लोगों से दूर रहो, ताकि आपके जीवन में सुख शान्ति बनी रहे.
संत या सज्जन भक्तों में लिए, प्रभु ने एक और चेतावनी दी है:
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः ।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥ (२१)
भावार्थ: हे अर्जुन! जीवात्मा का विनाश करने वाले “काम, क्रोध और लोभ” यह तीन प्रकार के द्वार मनुष्य को नरक में ले जाने वाले हैं, इसलिये इन तीनों को त्याग देना चाहिए।
इस श्लोक में प्रभु हम सबको सावधान करते हुए बताते हैं कि, इस संसार में काम, क्रोध और लोभ नरक के तीन द्वार हैं. अर्थात् अधोगति की ओर ले जाने वाले ऐसे रास्ते हैं, जो एक भक्त को बड़ी आसानी से अपने जाल में, उलझा कर, पथ भ्रष्ट कर सकते हैं. काम और वासनाएँ लोभ को जन्म देती हैं. लाभ से लोभ बढ़ता है. और लोभ की पूर्ति न होने पर, क्रोध जन्म लेता है. परिस्थितियों पर क्रोध, परिवार पर क्रोध, समाज पर क्रोध, यहाँ तक कि, मूक पशुओं पर भी क्रोध आने लगता है. और इस प्रकार क्रोध इनके जीवन को जीते जी नरक बना देता है. इसलिए नरक के इन तीनों द्वारों, अर्थात् काम, क्रोध और लोभ से पूरी तरह से बचने का प्रयास करें.
इस अध्याय का ज्ञान सचेत करने वाला ज्ञान है. जो भक्त को बड़े स्पष्ट रूप से बताता है कि, असुरी शक्तियाँ क्या क्या हैं, और उनसे कैसे बचा जा सकता है. दैवी सम्पदा भक्त के लिए कितनी महत्वपूर्ण है. उन्हें कैसे पहचाना जा सकता है और जीवन में कैसे बढ़ाया जा सकता है. यह ज्ञान मानव जाति और समाज के लिए अत्यंत कल्याणकारी है. प्रभु हमें एक उचित दिशा की ओर बढ़ने को प्रेरित कर रहे हैं. आइये हम सब मिल कर भरपूर प्रयास करें. और जीवन को, प्रभु कृपा से, एक उचित दिशा के ओर ले चलें, “ जय श्री कृष्णा “