रामजी का परम भक्त – विभीषण

रामजी का परम भक्त – विभीषण

विभीषण, रावण का छोटा भाई. रावण के बिल्कुल विपरीत. रावण राम विरोधी, देवता विरोधी महा अभिमानी. विभीषण रामजी का परम भक्त, सज्जन पुरुष, सदाचारी, निरभिमानी. घोर तपस्या के बाद जब ब्रह्मा जी विभीषण के सामने प्रगट हुए, तो उन्होंने कहा, माँग पुत्र तुम्हें क्या वर चाहिए? विभीषण बड़े विनीत स्वर में बोला, प्रभु बस रामजी के चरणों में निरंतर भक्ति बनी रहे और अगर मेरे भाई रावण और कुंभकर्ण जब कभी भटक जायें, तो मैं उन्हें सही राह पर चलने के लिए उनका मार्ग दर्शन करता रहूँ.

सुंदरकांड में हनुमान जी लंका पहुँच सबसे पहले संयोग से विभीषण के घर के सामने आ पहुँचते हैं. उन्हें सुबह सुबह उठे हुए, विभीषण के मुख से राम राम सुनाई पड़ता है:

राम राम तेहि सुमिरन कीन्हा, हृदय हरष
कपि सज्जन चीन्हा
एहि सन हठि करिहू पहिचानी, साधु ते होई न कारज हानि ।।

हनुमान जी ने सोचा यह तो कोई सज्जन पुरुष है, इससे परिचय करने में कोई हानि नहीं होगी. शायद यह मेरी मदद कर सके. इतने में विभीषण जी बाहर आ गये और अपने द्वार पर एक ब्राह्मण को देख बोले:

कि तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई, मोरे हृदय प्रीति अति होई ।।
हनुमान जी को राम भक्त विभीषण के दर्शन करके बड़ी प्रसन्नता हुई. उन्होंने अपना छद्म वेश त्याग विभीषण को अपना असली परिचय दिया. अपने आने का उद्देश्य बताया. बस यह सब सुन विभीषण जी गद गद हो गये.

अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता, बिनु हरि कृपा मिलहि नहीं संता ।।

अब मुझे पूरा भरोसा हो गया है कि रामजी की कृपा के बिना तुम जैसे संतों के दर्शन नहीं होते. आज मैं धन्य हुआ, कि मुझे रामजी के सेवक के साक्षात दर्शन हो गए. हनुमान जी विभीषण को पूरा आश्वासन देते हैं, कि रामजी बड़े दयालु हैं और सब पर अपनी कृपा बरसाते हैं. मेरी तरफ देखो, मैं एक छोटी जाती का वानर हूँ, मुझ में अनेक प्रकार के पशुवत अवगुण हैं, फिर भी रामजी ने मुझे अपनाया हुआ है. हम वानर जनों का तो यह हाल है कि, अगर कोई सुबह सुबह हमारा नाम भी ले ले, तो उसको उस दिन का खाना नहीं मिलता, फिर भी रामजी ने हमें अपने साथ मिलाया हुआ है. दोनों, हनुमान जी और विभीषण जी इसी तरह रामजी के गुण गाते गाते आनंद मगन हो गए:

एहि बिधि कहत राम गुण ग्रामा, पावा
अनिर्वाच्य विश्रामा ।।

हनुमान जी ने सीता जी का पता पूछा, तो विभीषण ने हनुमान जी को सीता का ठिकाना बताया. और साथ वह जुगती भी सुझाई, जिसके माध्यम से माँ सीता तक पहुँचा जा सकता था. हनुमान जी उसी जुगती का सहारा ले अशोक वाटिका पहुँचते हैं, और एक पेड़ के नीचे उदास बैठी सीता मैया को देखते हैं:

निज पद नयन दिए, मन राम पद कमल लीन
परम दु:खी भा पवनसुत, देखी जानकी दीन।।

सुंदरकांड में आगे चल हनुमान जी सीता माँ का पता लगा लौट आते हैं. रामजी नल नील के सहायता से पुल बना पूरी सेना के साथ लंका के द्वार तक आ पहुँचते हैं. रावण को जब यह पता चलता है, तो वह अपने मंत्रियों के साथ सलाह करता है. लेकिन सभी मंत्री रावण के भय से उसे गलत सलाह ही देते हैं. उसे देख विभीषण साहस करके रावण को समझाने का प्रयास करते हैं. राम से विरोध ठीक नहीं है. रामजी साधारण राज कुमार नहीं है, वह जगतपति हैं. उनका विरोध पूरे लंका राज के लिए विनाशकारी हो सकता है. आदरणीय रावण भाई आप विवेक और सुमति संपन्न एक महाज्ञानी हैं. आप उसी सुमति से भविष्य का निर्णय लो:

सुमति कुमति सब के उर रहहीं, नाथ पुरान निगम अस कहहीं
जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपति निदाना।।

लेकिन अभिमानी रावण, विभीषण की एक नहीं सुनता. बल्कि उस पर अत्यधिक क्रोधित हो, उसे भली बुरी सुनाता है. इस पर भी जब विभीषण अपना पक्ष रखते ही जाते हैं, तो रावण को इतना क्रोध आता है, वह उसे भरी सभा में लात मार कर अपमानित करता है. फिर भी संत हृदयी विभीषण यही कहता है:

तुम पितु सरिस मोहि मारा, राम भजे हित नाथ तुम्हारा ।।
आप मेरे पिता समान हैं, आपने मुझे मारा, कोई बात नहीं. मैं फिर भी यही कहूँगा, कि आपका हित राम भजन में ही है, न कि उनके विरोध में. मैं अब आपकी लंका छोड़ रामजी की शरण में जा रहा हुँ, अब मुझे दोष मत देना. ऐसा कह विभीषण अपने कुछ सहयोगियों को साथ ले रामजी के खेमे की ओर निकल पड़ते हैं.

जब सुग्रीव ने विभीषण को अपने खेमे की ओर आते देखा तो, उन्होंने बढ़ कर उन्हें दूर ही रोक लिया, और रामजी तक समाचार पहुँचाया कि रावण का भाई विभीषण आपसे मिलने आया है. क्या किया जाए? यह सुन परम दयालु रामजी सुग्रीव से कहते हैं, यह तो मेरा भक्त है, कोई पापी राक्षस नहीं, इसे आने दो, क्योंकि:

पापवंत कर सहज सुभाऊ, भजनमोर तेहि भाव न काऊ
जो सभीत आवा सरनाई, रखिहऊ ताहि प्रान की नाईं।।

पापी जन मेरे निकट नहीं आ सकता, और शरणागत आये भक्त की मैं प्राणों के समान रक्षा करता हूँ. विभीषण को रामजी के सामने लाया जाता है. विभीषण अपने प्रभु को देख उनके चरणों में लेट जाते हैं, और बड़े विनीत भाव से कहते हैं, प्रभु मेरी रक्षा करो. मुझे अपनी शरण में ले लो. क्योंकि इस जीव को तब तक विश्राम नहीं मिल सकता, जब तक वह आपकी शरण में नहीं आता. मैं स्वभाव से एक तामसी वृत्ति वाला राक्षस हूँ, जिसे पापों से सहज प्रेम है. मैं हर प्रकार के अवगुणों से भरा हूँ. रामजी उसे गले लगा लेते हैं. पास ही अपने आसन पर बैठा, उसका भरपूर सम्मान करते हैं. उसे लंकेश कह संबोधित करते हैं. उसका और उसके परिवार का हाल चाल पूछते हैं.

कहूँ लंकेस सहित परिवारा, कुसल कुठाहर बास तुम्हारा
खल मंडली बसहु दिन राती, सखा धरम निबहइ केहि भांति ।।

विभीषण बड़े ही विनीत भाव से कहता है, प्रभु मैं आपके चरणों में स्थान पाकर धन्य हो गया हूँ. आपने अपनी कृपा से मुझ जैसे राक्षस को अपना लिया है. मैं कृतार्थ हुआ. रामजी कहते हैं, हे विभीषण तुम जैसे भक्त मुझे ऐसे ही प्रिय हैं, जैसे एक लोभी को धन प्रिय होता है. माँगो तुम्हें क्या चाहिए? मैं तुम्हें कुछ भी दे सकता हूँ. ऐसे में विभीषण अपनी मनचाही भक्ति का वरदान माँग लेते हैं:

अब कृपाल निज भगति पावनी, देहु सदा शिव मन भावनी
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा, माँगा तुरत सिंधु कर नीरा ।।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं, मोर दरसु अमोघ जग माहीं
अस कही राम तिलक तेहि सारा, सुमन वृष्टि नभ भई अपारा।।

मुझे सदा शिव जी को प्रिय भक्ति का आशीर्वाद दीजिए. प्रभु रामजी ने तुरंत कहा, यथा अस्तु, ऐसा ही होगा. ऐसा कहते कहते रामजी ने सिंधु का जल माँगा, और साथ ही परम उदार श्री रामजी ने सिंधु के जल से विभीषण का राज तिलक कर उसे लंका का राजा घोषित कर दिया.

ऐसे में तुलसीबाबा लिखते हैं;
जो संपति सिव रावनहि दीन्ह दिए दस माथ
सोई संपदा विभीषनहि, सकुचि दीन्ह रघुनाथ।।

रावण को लंका का राज शिवजी की घोर तपस्या कर, ऐसी तपस्या, जिसमें रावण को अपने दस शीश भी चढ़ाने पड़े, के बाद मिला. लेकिन रामजी ने उसी लंका की अपार संपदा को, अपने प्रिय भक्त, विभीषण को एक ही क्षण में बड़े सकुचाते हुए दे दिया. मानो कुछ विशेष नहीं दे रहे. ऐसे सहज दयालु, परम उदार, रामजी के चरणों में मेरा कोटि कोटि प्रणाम!!!