
गीता का 17वां अध्याय: श्रद्धा त्रय विभाग योग
भगवद् गीता का 17वां अध्याय “श्रद्धा त्रय विभाग योग” अत्यंत महत्त्वपूर्ण है जो व्यक्ति के विश्वास और धर्म को समझाता है। यह अध्याय धार्मिक श्रद्धा के तीन विभागों – सात्त्विक, राजसिक, और तामसिक – को विस्तार से वर्णन करता है और व्यक्ति को उच्चतम आदर्शों की ओर ले जाता है।
विभागों का वर्णन
सात्त्विक श्रद्धा: यह श्रद्धा नेक कर्मों को सर्वोपरि मानती है और भगवान की प्राप्ति के लिए साधना में लगी रहती है। इस श्रद्धा में स्वयं को बाधाओं से पार करने की शक्ति मिलती है। यह विभाग वहां का लोग हैं जो उत्तम कर्म करते हैं, ध्यान करते हैं और भगवान में आस्था रखते हैं।
राजसिक श्रद्धा: यह श्रद्धा फल के लालच से प्रेरित होती है और केवल अपने लाभ के लिए कर्म करती है। इसमें भगवान के प्रति वास्तविक भक्ति नहीं होती। यह विभाग वहां के लोग हैं जो स्वार्थपर हैं और कर्म करते हैं लेकिन उनकी आस्था कमजोर होती है।
तामसिक श्रद्धा: यह श्रद्धा मोह और अज्ञान से प्रेरित होती है और अधर्मिक कार्यों में लगी रहती है। इस श्रद्धा में व्यक्ति केवल अपने लोभ और विनाशकारी कार्यों में लगा रहता है। यह विभाग वहां के लोग हैं जो अधर्म में लिप्त होते हैं और कार्यों में अंधविश्वास रखते हैं।
श्रद्धा का महत्त्व
गीता के इस अध्याय से हमें श्रद्धा की महत्त्वपूर्णता का अनुभव होता है। यह हमें सही कर्म करने और उत्कृष्टता की ओर ले जाता है। श्रद्धा ही हमें धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देती है और हमें संसार में उच्च स्थान पर ले जाती है। इसके अलावा, श्रद्धा व्यक्ति को अपने अध्यात्मिक संजीवनी और संघर्ष में सहारा प्रदान करती है, उसे अपने स्वयं को समझने और अपनी आत्मा के महत्व को समझने में मदद करती है।
समाप्ति
गीता का 17वां अध्याय हमें आध्यात्मिक जीवन के लिए श्रद्धा की महत्त्वपूर्णता को समझाता है और हमें धार्मिक साधना में प्रेरित करता है। इस अध्याय ने हमें यह भी सिखाया है कि श्रद्धा केवल कर्म में ही नहीं, अपितु विचारों और आचरण में भी महत्वपूर्ण है। श्रद्धा की अनुगमन के बिना कोई भी कर्म धर्मपूर्ण नहीं हो सकता।
इस अध्याय के माध्यम से, हमें श्रद्धा के तीन विभागों का विवेचन मिलता है, जो हमें सही और उच्चतम आदर्शों की ओर ले जाता है। साथ ही, यह हमें समझाता है कि श्रद्धा ही हमारे कर्मों को स्वीकार्य या अस्वीकार्य बनाती है और हमारे जीवन को धार्मिकता और उत्कृष्टता की ओर ले जाती है।
इस अध्याय के महत्वपूर्ण सन्देशों के माध्यम से, हमें यह समझने को मिलता है कि अच्छी श्रद्धा का अभाव हमें अध्यात्मिक सफलता से वंचित कर सकता है। यह हमें सही और न्यायसंगत कार्यों में आदर्शता को स्थापित करने की महत्वपूर्णता को समझाता है।
इस प्रकार, भगवद् गीता का 17वां अध्याय हमें श्रद्धा के महत्त्व को समझाता है और हमें सांसारिक और आध्यात्मिक जीवन में सही मार्ग की ओर ले जाता है। यह अध्याय हमें धार्मिकता, उत्कृष्टता, और सच्ची श्रद्धा की महत्त्वपूर्णता को समझाता है और हमें धर्मपरायण जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है।समग्र विकास के लिए उसे शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक स्तर पर विकसित करने के उपाय बताए जाते हैं।
शिक्षा और नैतिकता का प्रचार: भगवद् गीता में नैतिकता और शिक्षा का महत्वपूर्ण संदेश है। यह शिक्षा और नैतिकता को स्थायित्व और सत्य के माध्यम से प्रमाणित करती है।
समाज के लिए मार्गदर्शन: गीता मानव समाज के लिए समाज सेवा और सामाजिक समर्थन का संदेश भी प्रदान करती है। यह समाज में समर्पण और सहयोग की भावना को बढ़ावा देती है।
सामर्थ्य और संकोच का संदेश: भगवद् गीता में सामर्थ्य और संकोच का महत्वपूर्ण संदेश है। यह बताती है कि व्यक्ति को अपने सामर्थ्य का उपयोग करना चाहिए, परन्तु उसे अपने आत्मविश्वास में अत्यधिक नहीं चलना चाहिए।
सार्थक जीवन की महत्ता: भगवद् गीता में जीवन के सार्थकता का महत्वपूर्ण संदेश है। यह बताती है कि मानव जीवन का उद्देश्य केवल भोग और सुख नहीं है, बल्कि आत्मा की उन्नति और परमात्मा के साथ एकीभाव में जीवन की सार्थकता है।