कुम्भकरण- एक सोया हुआ राम भक्त

कुम्भकरण- एक सोया हुआ राम भक्त

कुम्भकरण का नाम सुनते ही नींद सी आने लगती है|

कुम्भकरण की छवि एक बहुत ही विशालकाय राक्षस की छवि के रूप में सामने आती है| कुम्भकरण का अर्थ होता है, घड़े के समान बड़े बड़े कान वाला व्यक्ति| कुम्भकरण के बारे में आम लोगों में मात्र एक ऐसी धारणा है, कि वह मात्र रावण का छोटा भाई था, बलशाली एवं महा आलसी, जो हर समय सोता रहता था|

 पर पुराणों के अध्ययन से पता चलता है कि वह रावण जितना ज्ञानी भी था| उसने भी पूर्व जन्म में महातप कर बहुत से वरदान प्राप्त किए हुए थे| रामजी के प्रति उसकी श्रद्धा एवं प्रेम विभीषण से कोई कम नहीं था| कुम्भकरण एक राम भक्त भी हो सकता है, यह विचार दूर दूर तक किसी को नहीं हो सकता| हम उसके इसी छिपे हुए चरित्र को उजागर करने का प्रयास करेंगे| इतिहास में थोड़ा पीछे जायें तो, कहानी और भी स्पष्ट हो जाती है|

आख़िर कुम्भकरण और रावण कौन थे ?

पुराणों के अनुसार एक समय भगवान विष्णु के भवन के बाहर, दो भाई द्वारपाल हुआ करते थे| इनके नाम थे, जय और विजय| प्रभु की सेवा में हमेशा तत्पर रहने वाले यह दोनों भाई एक दिन सेवा में रत थे, कि द्वार पर प्रभु के भक्त, सनकादि ऋषि प्रभु से मिलने आ गए| चूँकि प्रभु उस समय विश्राम कक्ष में थे, तो द्वारपालों ने ऋषियों को अंदर जाने से रोक दिया| बहुत समझाने के बाद भी जब यह दोनों भाई नहीं माने तो ऋषिगण नाराज़ हो गए और इन दोनों को श्राप दे दिया| श्राप यह था कि अगले तीन जन्म तक इन्हें राक्षस योनि में जन्म लेना पड़ेगा| यह सब सुन जय विजय घबरा गए और क्षमा याचना करने लग| इस शोर को सुन प्रभु बाहर गए, जब उन्हें सारी स्थिति का पता चला तो, उन्होंने इन भाईयों को एक आश्वासन दिया| वह यह कि, जब भी तुम दोनों राक्षस योनि में होगे, तब प्रभु कोई न कोई अवतार लेकर आयेंगे और उन दोनों को स्वयं मार कर उनका उद्धार करेंगे |


इसी पुराण इतिहास के अनुरूप सतयुग में यह भाई हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष के रूप में जन्मे और प्रभु ने नरसिंह का अवतार लेकर उनका उद्धार किया| त्रेता युग में यह भाई रावण और कुम्भकरण के रूप में जन्मे और प्रभु ने राम का अवतार लेकर इनका वध किया| और द्वापर युग में, अपने तीसरे जन्म में, यह भाई शिशुपाल और वक्रदन्त के रूप में जन्मे और प्रभु ने कृष्ण अवतार लेकर इनका उद्धार किया|

त्रेता युग में रावण, कुम्भकरण और विभीषण तीनों भाई ऋषि विश्रवा के घर पैदा हुए| तीनों ने महातप करके महा ज्ञान अर्जित किया| अनेकों वरदान प्राप्त किए| महान शस्त्र प्राप्त किए| रावण को यह सब पाकर अभिमान हो गया था, जबकि छोटे दोनों भाई राम भक्ति के प्रति जुड़े रहे| कुम्भकरण ने इतनी तपस्या की, कि देवता लोग घबरा गए| इंद्र को अपनी गददी ख़तरे में पड़ती नज़र आई| जब कुम्भकरण वरदान माँगने को तत्पर हुए, तो इन्द्र को लगा, कि कुम्भकरण इंद्रासन माँगने जा रहे हैं, जो शायद सही अनुमान था| उन्होंने माँ सरस्वती से प्रार्थना की, कि वरदान माँगते समय इसकी जीभ लड़खड़ा जाए| बस फिर क्या था, कुम्भकरण ने इंद्रासन की जगह निद्रासन माँग लिया| यही कारण था, कि कुम्भकरण छह माह तक सोता था, और तब देवता लोग भी चैन की नींद सो पाते थे|

रामचरित मानस में कुम्भकरण :
मानस में कुम्भकरण का प्रथम उल्लेख लंकाकाण्ड में मिलता है| कुम्भकरण एक बहुत महा बलशाली योद्धा था| बल के साथ साथ उसमें ज्ञान का भंडार भी था, और उसमें बहुत से मानवीय गुण भी थे| उसमें सबसे बड़ा गुण था परिवार के प्रति पूर्ण निष्ठा| और उसका सबसे बड़ा दुर्गुण था, उसकी अपार माँसाहारी भूख एवं उसका मदिरा पान| कुम्भकरण रावण की तरह महाज्ञानी था, लेकिन उसमें उस बल और ज्ञान का अभिमान नहीं था| जागने की स्थिति में वह काफ़ी विनाश की क्षमता रखता था| यही कारण था, कि देवता लोग हमेशा उससे डरे रहते थे| लंका कांड में जब राम रावण युद्ध आरंभ हुआ, तो रावण की सेना बुरी तरह से हार रही थी| रावण बहुत व्याकुल हो उठा| उसके पास कुम्भकरण को उठाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था:
व्याक़ुल कुंभ करन पहि आवा, बिबिध जतन करि ताहि जगावा
जब कुम्भकरण जागा तो उसने बहुत ही घबराए हुए रावण को पास बैठे देखा| उसने रावण की चिंता को भापतें हुए पूछा:
कुंभ करन पूछा कहु भाई, काहे तव मुख रहा सुखाई
हे भाई, तुम जैसा विश्व विजेता घबराया हुआ क्यों है? तुम्हारा मुख इतना सूखा हुआ क्यों है? तब रावण ने अपनी सीता अपहरण वाली करतूत बताई| कैसे उसने छल से सीता का अपहरण किया| कैसे उसने हनुमान जैसे दूत की बात नहीं मानी| कैसे राम ने वानरों की सहायता से समुद्र पर सेतु लँका पर चढ़ाई कर दी| और आज कैसे वह हार के कगार पर खड़ा है| कुम्भकरण रावण की बात सुन तुरंत समझ गया कि इस अभिमानी बड़े भाई से बड़ी भारी गलती हो गई है| कुम्भकरण को भली भाँति ज्ञान था कि यह राम, कोई साधारण नर नहीं बल्कि साक्षात विष्णु अवतार है| लेकिन उसका भाई अपने अभिमान के अंधकार में चूर यह मानने को तैयार ही नहीं था| मन ही मन रामजी को श्रद्धा से नमन करते हुए बोला:
सुनि दस कंधर बचन तब, कुंभ करन बिलखान,
जगदंबा हरि आनी अब, सठ चाहत कल्यान
जैसे पहले राम भक्त विभीषण ने किया था, ठीक वैसे राम भक्त कुम्भकरण ने भी रावण को समझाने का प्रयास किया:
अजहु तात त्यागि अभिमाना, भजहु राम होहहि कल्याना
हैं दससीस मनुज रघुनायक, जाके हनुमान से पायक
कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक, सिव बिरंचि सुर जाके सेवक

हे बड़े भाई ज़रा समझो, राम कोई साधारण मनुज नहीं, साक्षात विष्णु अवतार हैं| जिनके हनुमान जैसे सेवक हों, जिनके शिव और सुर आदि सेवक हों, वोह भला मनुज कैसे हो सकते है| उनकी पत्नी साक्षात जगदंबा है| उसका अपहरण कर तुमने सचमुच एक बड़ा अपराध किया है| भला इसी में है, कि माँ जगदंबा को लौटा दो और प्रभु से क्षमा माँग लो, इसी में तुम्हारा कल्याण है| जब कुम्भकरण ने देखा कि उसकी बात बहरे कानो पर गिर रही है तो वह रावण को ढाँढस देने लगा| उसे लगा कि उन दोनों कि मृत्यु निकट आ गई है| यहाँ निष्ठावान कुम्भकरण, रावण को आश्वस्त करता हुआ बोला, जो हो गया सो हो गया अब तू चिंता मत कर| मैं जाग गया हूँ, और आपकी तरफ़ से पूरी शक्ति के साथ युद्ध करूँगा| यह सुन रावण बड़ा प्रसन्न हुआ| उसने तुरंत हज़ारों भैंसों का माँस, और सैंकड़ों घड़े मदिरा मँगवायी| उसे पता था कि एक बार कुम्भकरण भर पेट खाकर और मदिरा पी कर तैयार हो गया तो उसको रोकना मुश्किल हो जाएगा|
महिष खाइ करि मद पाना, गर्जा ब्रजाघात समाना
कुंभ करन दुर्मद रन रंगा, चला दुर्ग तजि सेन न संगा
भैंसों का माँस खा कर और ढेर सारी मदिरा पीकर, मस्त हाथी की तरह कुम्भकरण अकेला ही रणभूमि की ओर चलने लगा| उसने सेना साथ लेना भी ज़रूरी नहीं समझा| उसे लगा वह अकेला ही पर्याप्त है| युद्धभूमि में उसके सामने सबसे पहले विभीषण पड़ गया| विभीषण ने बड़े भाई को देखा तो प्रणाम करने चला आया| उन दोनों के बीच जो वार्तालाप हुआ, वोह दर्शाता है कि दोनों के मन में राम भक्ति कूट कूट कर भरी थी| कुम्भकरण बोला:
धन्य धन्य तै धन्य बिभीषण, भयहु तात निसिचर कुल भूषन
बंधु बंस तै कीन्ह उजागर, भजेहु राम सोभा सुख सागर
हे विभीषण तुम धन्य हो, तुमने हमारे विश्रवा कुल को उजागर कर दिया है| तुमने रामजी के चरणों में शरणागत हो जीवन को सकारथ बना लिया है| मैं प्रसन्न हूँ, कि तुम रामजी की ओर से लड़ रहे हो| और विभीषण को अपना अंतिम परामर्श दिया:
बचन कर्म मन कपट तजि, भजेहु राम रघुबीर
जाहू न निज पर सूझ मोहि, भयहुँ कालबस बीर
जाओ और सदा रामजी को भजते भजते जीवन गुजार दो, और मेरे सामने से हट जाओ क्योंकि अब मैं बहुत क्रोध में हूँ| मुझे अपना पराया कुछ सूझ नहीं रहा| मेरे से कुछ भी अनर्थ हो सकता है| इसके बाद कुम्भकरण ने युद्धभूमि में तहलका मचा दिया| हज़ारों वानरों को अपने पाँवों तले रोंद डाला| हज़ारों को अपने हाथ से मसल डाला| बहुत सारे प्रमुख सेनापतियों को धराशायी कर डाला| चारों ओर त्राहि त्राहि मच गई:
अंगदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव
काँख दाबि कपिराज कहूँ चला अमित बल सींव
फिर क्या था, सभी सभीत हो, रामजी की गुहार लगाने लगे| प्रार्थना करने लगे, प्रभु इस महा बलशाली राक्षस से हमारी रक्षा कीजिए| तब रामजी ने अपना धनुष बाण सँभाला और बढ़ चले कुम्भकरण की ओर:
खेंचि धनुष सर सत संधाने, छूटे तीर सरीर समाने
काटे भुजा सोह खल कैसा, पच्छहीन मंदर गिरि जैसा
उग्र बिलोकनि प्रभूहि बिलोका, ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका
प्रभु राम ने उसकी भुजा काट फेंकी, तब कुम्भकरण और भी भयानक दिखाई पड़ने लगा, उसने रामजी की ओर बड़ी उग्र दृष्टि से ऐसे देखा मानो पूरे त्रैलोक को निगल जाना चाहता हो| यह देख रामजी ने अपना ब्रह्मात्र निकाला और:
तब प्रभु कोपि तीव्र सर लीन्हा, धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा
एक भयंकर तीव्र तीर से कुम्भकरण का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया| इस प्रकार एक बार फिर रामजी ने अपना वचन निभा कुम्भकरण जैसे अपने भक्त का उद्धार किया| श्राप के बाद भी अपनी कृपा का वरद हस्त बनाए रखने वाले ऐसे परम दयालु प्रभु रामजी की चरणों में मेरा कोटि कोटि प्रणाम!!

Rajendra Kapil
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