
गीता जयंती के अवसर पर विशेष जीवन की चुनौतियों का सशक्त सम्बल – गीता संदेश
By: Ganga Prasad Yadav ‘Aatrey’
महाभारत काल में युद्ध की एक कठिन घड़ी में, भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ संवाद, हिंदू धर्म में भगवद् गीता के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म ग्रंथ भले ही कहा जाय, पर यह सम्पूर्ण मानवता के कल्याण का दिशा निर्देश करने के साथ ही, जीवन से जुडे़ हर प्रश्न का समुचित समाधान देती है। यह संदेश केवल हिंदू जाति के लिए नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति के लिए है। मानवता के लिए इसका संदेश इतना सशक्त है कि, इस ग्रंथ को विश्व की 75 से भी अधिक भाषायों में अनुवादित किया जा चुका है। मूल रूप से यह अद्भुत ग्रंथ संस्कृत भाषा में पद्य रूप में कहा गया है। इस ग्रंथ में सात सौ श्लोक निहित हैं. चूँकि संस्कृत भाषा अब आम व्यक्ति की भाषा नहीं रही, इसलिए मैंने इन्ही श्लोकों का, सरल हिन्दी भाषा में, यथावत रूपांतरित दोहा रूप, में लिखने का प्रयास किया है।
गीता जयन्ती के पुण्य अवसर पर, आम हिंदी भाषा भाषियों के लिए, विशेष रूप से, विदेश में रहने वाले भारतीय समाज के लिए, अपनी यह प्रस्तुति, आप सबके समक्ष रखते हुए, मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। मेरी इस पुस्तक का नाम है:
“श्रीमद्भागवत गीता यथा रूपांतरित सम्पूर्ण दोहा संस्करण”
यह पुस्तक मधुशाला प्रकाशन प्रा लि भरतपुर, राजस्थान से प्रकाशित है| और यह ऐमेजॉन
(Amazon.in) साइट पर उपलब्ध है। भारत में दोहा विधा में लिखी जाने वाली यह अपने आप में, पहली एवं अनूठी पुस्तक है। आप सभी के लिए इसका पठन आसान होने के साथ ही साथ, सरल भाषा में होने के कारण, अर्थ भी आसानी से समझ में आने वाला है।
गीता के सर्वाधिक प्रचलित श्लोकों का दोहा रूपांतरण किस प्रकार से किया गया है इसे नीचे दिए गये उदाहरणों में देखा जा सकता है। आशा करता हूँ, मेरा यह विनम्र प्रयास आपकी गीता जयंती को और भी सार्थक बनाएगा। प्रस्तुत हैं, कुछ उदाहरण:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम,
धर्म संस्थापनार्थाय संम्भवामि युगे युगे।
दोहा रूपांतरण
भक्तों के उद्धार हित, दुष्टों हेतु विनाश,
प्रकट होऊं हर युग सदा, थापन धर्म सुआश।
कर्मणेवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन,
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोस्त्वकर्मणि।
दोहा रूपांतरण
केवल कर्मों से जुडा़, है तेरा अधिकार,
पर अधिकारी कर्म फल, नहिं तू इस संसार।
मत मानो कारण कभी, फल निज कर्म प्रताप,
नहिं आशक्त हों कर्म को, न करने में आप।
इस पुस्तक का विशेष आकर्षण श्रीगीता जी के संस्कृत श्लोकों के भावार्थ का यथारूप दोहा विधा में प्रस्तुतीकरण तो है ही, साथ ही समस्त अध्यायों के सार को एक एक दोहे में देने एवं व्यक्ति के विभिन्न नौ मनोविकारों – क्रोध, अहम, वासना, लोभ ,मोह, भय, निराशा, अवसाद एवं ईर्ष्या से निपटना तथा नौ विपरीत मनोदशाओं – भेदभाव जनित पीडा़, आत्मग्लानि, अत्यंत प्रिय की मृत्यु, अनियंत्रित मस्तिष्क, आलस्य,विभ्रम, क्षमाशीलता, अकेलापन एवं शांति की तलाश जैसी स्थितियों में मानव जाति को संबल देना भी है. नीचे कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं, इससे हर व्यक्ति को अपने जीवन पथ पर आने वाली समस्याओं का सार्थक समाधान मिल सकेगा:
इस संदर्भ में निम्नलिखित विकारों से सम्बन्धित कुछ श्लोक उल्लेखनीय हैं।
क्रोध: अध्याय 2, श्लोक 63 का दोहा रूप
क्रोध हुआ तो मोह फिर, मोह से स्मृति भ्रष्ट,
स्मृति होती भ्रष्ट जब, बुद्धि स्वत: हो नष्ट।
बुद्धि नष्ट होती जहां, मानव जन व्यवहार,
हो जाता उनका पतन, समझें सभी प्रकार।
अध्याय 16 श्लोक, 21 का दोहा रुप
तीन द्वार हैं नर्क के,लोभ क्रोध अरु काम,
बुद्धिमान त्यागें इन्हें, ये पातक जीवात्म।
अहम: अध्याय 3, श्लोक 27 का दोहा रूप
अहंकार के वश हुआ, मोह ग्रस्त यह जीव,
अपने को कर्ता कहे, सब कर्मों की नींव।
जब कि सारे कर्म जग, प्राकृत गुण आधीन,
त्रयगुणमयी प्रकृति यह, जग रचना में लीन।
काम वासना: अध्याय 3, श्लोक 39, 40 का दोहारूप
ढ़के चेतना ज्ञानमय,जगत जीव रिपु काम,
जलता अग्नि समान नित, तुष्ट न हो मन आम।
इन्द्रिय मन अरु बुद्धि हैं, काम निवास स्थान,
मोहित करती जीव को, ढ़ंके वास्तविक ज्ञान।
लोभ -लालच: अध्याय 3, श्लोक 17 का दोहारूप
सतगुण से ही उपजता, सही अर्थ में ज्ञान,
उपजे लोभ रजोगुणा, तमो मोह अज्ञान।
मोह: अध्याय 16, श्लोक 16 का दोहारूप
भ्रमित और उद्दिग्न चित,बंधे मोह के जाल,
इन्द्रिय भोग आसक्ति में,गिरें नर्क संजाल।
भय: अध्याय 4, श्लोक 10 का दोहारूप
मुक्त क्रोध आसक्ति भय, हो करके जो कोय,
तन्मय होकर पूर्णतया, शरण हमारे होय।
ज्ञान रूप तप से हुऐ, वे पवित्र मम भक्त,
पायें मेरे स्वरूप को, मुझमें रह अनुरक्त।
निराशा: अध्याय 9, श्लोक 34 दोहा का रूप
अपने मन को नित मेरे,चिंतन रखो लगाय,
नमस्कार पूजा करो, मन में भक्ति जगाय।
पूर्ण तया तल्लीन रह, होवो मुझमें व्याप्त,
निश्चित ही इस भांति तुम, मुझे करोगे प्राप्त।
अवसाद: अध्याय 2, श्लोक 14 दोहा का रूप
सुनो भरत वंशी सखे, सुख दुःख क्षय उत्थान,
सर्दी गर्मी भांति यह, अवागमन समान।
उपजें इन्द्रिय बोध से, हे अर्जुन यह जान,
सहें भाव अविचल धरे, मानव श्रेष्ठ सुजान।
ईर्ष्या से निपटना: अध्याय 4, श्लोक 22 का दोहारूप
यथा लाभ संतुष्ट हो, रहे द्वंद से मुक्त ,
रहित द्वंद ईर्ष्या सभी,आत्म तुष्टि से युक्त।
राखें सिद्धि असिद्धि में, मन भावना समान,
कर्म निरत रहते हुए, बंधें नहीं तिन तान।
इसी तरह से विपरीत मनोदशाओं में भी संबल के लिये निम्नवत समुचित निर्देश दिये गये हैं।
भेदभाव जनित पीड़ा: अध्याय 9, श्लोक 29 का दोहारूप
सभी प्राणियों में रहूं, मै तो सदा समान,
नहिं कोई द्वेषी मेरा, या प्यारा सच मान।
पर जो करते प्रेम से, भजन हमारा ध्यान,
मैं होऊं उनमें तथा, उनको मुझमें जान।
आत्मग्लानि: अध्याय 4, श्लोक 36 का दोहारूप
सकल पापियों से बडा़, पापी जाना जाय,
दिव्य ज्ञान तो भी उसे, दे भव पार लगाय।
अत्यंत प्रिय की मृत्यु: अध्याय 2, श्लोक 27 का दोहारूप
जिसने जनम लिया यहां, मरण सदा ही होय,
पुनः जनम होता अवसि, फिर क्यों आपा खोय।
पालन करो कर्तव्य का, अपरिहार्य जो तोय,
अनायास ही क्यूं भला, रहा शोक को ढो़य।
अनियंत्रित मस्तिष्क:अध्याय 6, श्लोक 35 का दोहारूप
नि:संदेह कठिन बहुत, रखना मन को छान,
पर विरक्ति अभ्यास से, अर्जुन यह आसान।
आलस्य: अध्याय 5, श्लोक 6 का दोहारूप
सुखी न बन सकता कोई, परित्याग सब कर्म,
पर करके भगवत भगति, लहे परम पद मर्म।
विभ्रम/विस्मृति: अध्याय 5, श्लोक 25 का दोहारूप
रखें द्वैत संशय रहित, जो जन अंतर आन,
साक्षात रत आत्म में, लगा रखें मन छान।
पाप रहित नित निरत हों,जगत जीव कल्याण,
वही प्राप्त करते दशा, पूर्ण रूप निर्वाण।
क्षमाशीलता: अध्याय 16, श्लोक 3 का दोहारूप
धैर्य क्षमामय शुद्ध मन, भूल वैर का भाव,
अभिलाषा सम्मान की, आये नहीं स्वभाव।
अर्जुन लक्षण गुण यही, दैवी दिव्य महान,
पाये जाते जो सदा, देव तुल्य जन जान।
अकेलापन: अध्याय 13, श्लोक 16 का दोहारूप
बाहर भीतर चर अचर, सब जीवों में व्याप्त,
यद्यपि रहते दूर अति, किंतु निकट हों प्राप्त।
जानने देखन से परे, वे इन्द्रिय गुण रूप,
क्योकि वे अति सूक्ष्म हैं, रखे स्वरूप अनूप।
शांति की तलाश: अध्याय 5, श्लोक 12 का दोहारूप
शुद्ध शांति पाता वही, निश्चल भक्त सयान,
सारे अपने कर्म फल, करता मुझको दान।
पर जो युक्त नहीं रहा, भरा भाव भगवान,
निज श्रम फल की चाह में, बंध जाता अनजान।
इस प्रकार यह सुस्पष्ट होता है कि श्रीमद्भागवत गीता में मानव के जीवन में, हर स्तर पर सुखी, संतुष्ट एवं शांतिपूर्ण जीवन के लिए, व्यापक दिशा निर्देश मिलते है, जिनको अपनाकर हर व्यक्ति जगत में जन जीवन को सफल बना सकता है। मेरे इस प्रयास से अगर किसी एक भी व्यक्ति को, लाभ मिला हो तो, मैं अपना जीवन धन्य मानूँगा। इस गीता जयंती की आप सभी को, मेरी ओर से, बहुत बहुत शुभकामनाएँ!!!