ग्यानहि भगतिहि अंतर केता – ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर

ग्यानहि भगतिहि अंतर केता – ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर

रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़ जी ने एक प्रश्न किया है कि ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? ऐसे प्रश्न का भाव यह है कि, साधक के लिये आसान कर दिया जाए, कि कौन सा मार्ग उसके लिए उचित है.

ऐसा ही प्रश्न गीता में अर्जुन ने भी भगवान कृष्ण से भी पूछा है:

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पयुर्पासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा: ॥
अर्जुन बोले, हे प्रभु आपके कुछ भक्त आपके सगुण रूप को उपासते हैं. और कुछ भक्त आपके निराकार रूप का चिंतन करते हैं, कृपया यह बतायें कि इन दोनों प्रकार के भक्तों में से श्रेष्ठ कौन है? भगवान कृष्ण बोले:

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ॥
जो मुझे नित्य श्रद्धा पूर्वक भजते हैं, ऐसे भक्त मुझे बहुत प्रिय हैं. फिर भगवान कृष्ण ने गीता के १२वें अध्याय में, भक्ति योग, की व्याख्या करते हुए, इस प्रश्न का उत्तर दिया:

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च ।
निर्ममो निरहङ्कार: समदु:खसुख: क्षमी॥
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: ।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥

जो भक्त सभी प्राणियों में द्वेष एवं स्वार्थ भाव से रहित होकर सबके प्रति सद्भाव रखता है तथा जो निरंतर हानि लाभ दोनों स्थितियों समान भाव से संतुष्ट रहता है ऐसा भक्त मुझे अत्यंत प्रिय है. ऐसे भक्त में एक ऐसा संयम आ जाता है, जिसके चलते वह अपनी इंद्रियों को काबू में ले आता है. मैं ऐसे भक्तों को बड़ा प्रेम करता हूँ. यह है गीता में वर्णित भक्ति योग, जिसे दुनिया भर के गीता के विद्वान अपने भक्तों को बताते रहते हैं.

मानस में तुलसी बाबा ने भी इसी प्रश्न को गरुड़ और काकभुशुण्डी के संवाद के मध्यम से उठाया है. ग्यानहि भगतिहि अंतर केता के उत्तर में काकभुशुण्डी कहते हैं:

ग्यानहि भगतिहि नहीं कछु भेदा, उभय हरहि भव सम्भव खेदा।
नाथ मुनीस कहहि कछु अंतर, सावधान सोऊ सुनु बिहंगबर।।
हे गरुड़जी, दोनों में अधिक अंतर नहीं है, दोनों ही इस संसार के क्लेशों को हरने वाले हैं, फिर भी मुनियों ने जो थोड़ा बहुत अंतर बताया है, वह मैं तुम्हें बतलाता हूँ.

ज्ञान विराग जोग बिग्याना,
ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँति,
अबला अबल सहज जड़ जाति
ज्ञान वैराग्य एवं योग यह सब पुरुष की भाँति शक्तिशाली हैं. माया और भक्ति स्त्री की भाँति कोमल एवं निर्बल हैं. माया ही इस संसार में हर प्रकार की समस्या उत्पन्न करती है. माया आम लोगों को भोग विलास की ओर ले जाकर भटकाती है. लेकिन मेरा मत यह है, कि:

भगतहि सानुकूल रघुराया, ताते तेहि डरपति माया
रामजी को भक्ति प्रिय है, इसीलिए माया भक्ति से डरकर दूर रहती है. वैसे भी एक नियम है:

मोह न नारि नारि के रूपा,
पन्नगारी यह रीति अनूपा।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई,
करि न सकई निज प्रभुताईें
एक स्त्री दूसरी स्त्री पर मोहित नहीं होती. ईर्षा कर सकती है, लेकिन मोहित नहीं होती.इसीलिए माया भक्ति के निकट नहीं आती. भक्त को देख माया सकुचा जाती है, और इसीलिए उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाती.

इसीलिए हर भक्त रामजी को प्रसन्न देख भक्ति का ही वरदान माँगता है. जैसे सुंदरकांड में हनुमान जी, जब लंका से लौटने के बाद रामजी को सीता मैया का कुशल समाचार पाकर प्रसन्न देखते हैं, तो यही वरदान माँगते हैं:
नाथ भगति अति सुखदायनी,
देहू कृपा करि अनपायनी
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी,
एवमस्तु तब कहेउ भवानी
आगे चल कर तुलसी बाबा ने एक ज्ञान दीपक का रूपक बांधा और बताया कि, यह दीपक जलाना कितना कठिन है. इस दीपक को जलाने के लिए जो घी चाहिए, वो कैसे प्राप्त होता है. यह देखिए उस घी की प्राप्ति की विधि:

घी के लिये चाहिए, दूध, और दूध के लिये चाहिये गाय. पहले श्रद्धा रूपी गाय को अपने सदाचार रूपी घास खिलायें. फिर उसके पास आस्तिक भाव रूपी बछड़ा लाकर बांधे. फिर एक निर्मल मन वाला ग्वाला ढूँढ कर लायें, जिसके पास विश्वास रूपी पात्र हो जिसमें दूध दोहा जा सके. फिर दोहे हुए दूध को चिंतन की मधानी से मथ कर मक्खन निकालें. अब उस मक्खन को योग अग्नि के चूल्हे पर तपा कर घी निकालें, और फिर उस घी से ज्ञान का दीपक जलायें. इतनी मेहनत के बाद भी यह दीपक जलता रहे, इसकी कोई गारंटी नहीं, क्योंकि यही वोह समय है जब माया और इंद्रियाँ अपना जादू आरंभ कर देती हैं:

इंद्रिय द्वार झरोखा नाना,
तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना
आवत देखहि बिषय बयारी,
ते हठी देहि कपाट उघारी
ऐसे समय में इंद्रियाँ विषयों के द्वार खोल उस माया रूपी हवा को अंदर आने देती हैं, जो इस दीपक को आसानी से बुझा सके, और पूरी मेहनत को मिट्टी में मिला दें. हे मुनिराज:
ज्ञान पंथ कृपॉन की धारा,
परत खगेस होई नहीं पारा।।
यह ज्ञान का का मार्ग दुधारी तलवार के समान है. इस मार्ग पर गिरते देर नहीं लगती.इसीलिए समझदार हरि भक्त भक्ति का मार्ग चुनते हैं:

अस बिचारी हरि भक्त सयाने,
मुक्ति निरादर भगति लुभाने
भगति करत बिनु जतन प्रयासा,
संसृति मूल अविद्या नासा।।
वह भक्त जन मुक्ति को छोड़, रामजी की भक्ति का सहज एवं सरल रास्ता चुन लेते हैं. यही भक्ति उन्हें संसार के हर कष्ट से उबार लेती है. फिर ऊपर उठाए प्रश्न का उत्तर क्या हुआ?

यही कि दोनों में अधिक अंतर नहीं है. दोनों का उद्देश्य भगवद् प्राप्ति है. लेकिन एक रास्ता आसान है, और एक कठिन. विद्वान लोग ज्ञान मार्ग चुनते हैं, जबकि साधारण सरल हृदयी राम भक्त, भक्ति का मार्ग चुनते हैं. भक्त्ति में प्रेम, विश्वास और समर्पण का भाव होता है, जोकि हर कोई सहज ही कर लेता है.

इसी समर्पण भावको लेकर तुलसी बाबा ने रामचरितमानस का समापन बड़े दीन भाव से किया:
मो सम दीन न दीन हितु,
तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि,
हरहु बिषम भवभीर।।