
पक्षिराज गरुड़ के सात प्रश्न काकभुशुण्डि जी के सरल उत्तर
By: Rajendra Kapil (847-962-1291)
रामचरितमानस के उत्तरकांड में एक बहुत ही सुंदर प्रसंग है, काकभुशुण्डि गरुड़ संवाद. इस प्रसंग में गरुड़ जी काकभुशुण्डि संग सत्संग कर रहे हैं. इसी सत्संग के अन्तर्गत गरुड़ जी ने अपनी शंका दूर करने के लिए कुछ प्रश्न पूछे. ऐसे ही प्रश्न एक साधारण भक्त के हृदय में भी अक्सर आते रहते हैं. ऐसा कर गरुड़ जी ने एक सामान्य भक्त पर बड़ा ही उपकार किया. प्रश्न काकभुशुण्डि जी से ही क्यों पूछे गए? आखिर काकभुशुण्डि कौन थे?
काकभुशुण्डि जी कौवे के शरीर में रामजी के परम् भक्त थे. उन्होंने कई कल्पान्त तक रामचरित का बड़ा गहराई से चिंतन मनन किया हुआ था. काकभुशुण्डि को यह ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ? कहा जाता है, एक बार महादेव शिव, माँ पार्वती को रामकथा सुना रहे थे. उस समय पास ही बैठा एक कौवा भी यह कथा सुन रहा था. इस ज्ञान से उस कौवे का उद्धार हो गया, और वे काकभुशुण्डि बन गये. बाद में वही काकभुशुण्डि लोमश ऋषि के आश्रम में जाकर रहने लगे. एक दिन लोमश ऋषि उन्हें कुछ समझाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन काकभुशुण्डि ने उस पर ध्यान नहीं दिया. इससे ऋषि रुष्ट हो गये. उन्होंने काकभुशुण्डि को श्राप दे दिया, पुन: एक साधारण कौवा बन जा. जब काकभुशुण्डि को होश आया तो ऋषि के सामने गिड़गिड़ाने लगे, तो ऋषि लोमश को उस पर दया आ गई. उन्होंने कहा, माँग क्या माँगता है, मैं तुझे एक वरदान दे सकता हूँ. तो काकभुशुण्डि ने राम भक्ति और इच्छा मृत्यु का वरदान माँगा. और इसी वरदान की कृपा से काकभुशुण्डि हजारों वर्षों तक राम भक्ति में लींन रहे.
एक और प्रसंग के अनुसार राम रावण के युद्ध के बीच एक बार रावण पुत्र, मेघनाद ने नागपाश चला कर रामजी और उनकी सेना को नागपाश में बांध लिया था. यह देख देवताओं में खलबली मच गई. तब ब्रह्मा जी ने गरुड़ को भेजा कि, सब नॉगो को खाकर सबको इस नागपाश से मुक्त करो. गरुड़ जी गये और सबको नागपाश से मुक्त कर दिया, साथ ही उनके मन में ये संदेह भी उत्पन्न हुआ कि, अगर राम ब्रह्म है, तो उन्हें मेरी सहायता की आवश्यकता क्यों पड़ी? उसी संदेह निवारण के लिए वे ब्रह्माजी के पास गये. ब्रह्माजी ने उन्हें महादेव के पास भेज दिया. तो महादेव जी ने सोचा कि इसे एक ज्ञानी पक्षी के पास भेजते हैं. क्योंकि:
खग समुझहि खग ही की भाषा
ऐसे गरुड़ जी पहुँचे काकभुशुण्डि जी के पास, और पूछने लगे यह सप्त प्रश्न:
नाथ मोही निज सेवक जानी, सप्त प्रस्न
मम कह्हू बखानी
प्रथमाहि कह्हू नाथ मतीधीरा, सब ते
दुर्लभ कवन सरीरा
बड़ दुख कवन, कवन सुख भारी, सोऊ
संछेपहि कह्हु बिचारी
संत असंत मरम तुम्ह जानहू, तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहू
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला, कह्हु कवन
अघ परम कराला
मानस रोग कह्हू समुझाई, तुम्ह सर्बज्ञ
कृपा आधिकाईे
सरल भाषा में प्रश्न इस प्रकार थे:
1 सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है?
2 संसार में सबसे बड़ा दुख क्या है?
3 संसार में सबसे बड़ा सुख क्या है?
5 संतों और असंतों (दुष्ट लोग) में प्रमुख अंतर क्या है?
6 संसार में सबसे बड़ा पुण्य क्या है?
7 संसार में सबसे बड़ा पाप क्या है? और अंत में
8 इस संसार में मानस रोग कौन कौन से हैं?
काकभुशुण्डि जी ने कहा, सबसे दुर्लभ शरीर है, मानव शरीर. इसी शरीर में सब कुछ करने की क्षमता है. शरीर के साथ प्रभु ने हमें विवेक भी दिया है, जो किसी और योनि के शरीर में उपलब्ध नहीं है. इसीलिए:
नर तन सम कवनिउ देही, जीव चराचर जातत तेही
इस चराचर के सभी प्राणी इस मानव शरीर की कामना करते हैं. लेकिन बहुत से अज्ञानी लोग इस मानव शरीर की महत्ता को नहीं समझते. उनके बारे में तुलसी बाबा लिखते हैं:
काँच किरिच बदले ते लेही, कर ते डारी परस मनि देही
ऐसे अज्ञानी लोग जब इस मानव शरीर का सदुपयोग नहीं करते, वे ऐसे ही हैं, मानो कोई हाथ से हीरे मोती गिराकर काँच के टुकड़े बटोर रहा हो. यानीकि एक घाटे का सौदा कर रहा हो.
सबसे बड़े दुख के बारे में काकभुशुण्डि जी कहते हैं – दरिद्रता, यानीकि गरीबी.
नहीं दरिद्र सम दुख जग माही, संत मिलन सम सुख जग नाही
यह गरीबी मानव को अधम से अधम काम करने को बाध्य कर देती है. गरीबी की पीड़ा कई बार असहनीय हो जाती है. आदमी सामान्य जीवन यापन के लिए छोटी छोटी जरूरतों के लिए, इस गरीबी के चलते कई पाप करने को मजबूर हो जाता है. इसी लिये साथ ही यह भी समझाते हैं, कि संसार का सबसे बड़ा सुख है – संतों का मिलना. संतों के मिलने से हिम्मत मिलती है. अच्छे बुरे की पहचान मिलती है. बुरे समय को झेलने का धैर्य मिलता है. सदमार्ग की राह मिलती है. संत बड़े कोमल हृदयी एवं हर एक की सहायता करने वाले श्रेष्ठ जन होते हैं.
संतों और असंतों के अंतर के संबंध में तुलसी बाबा कहते हैं, संत हमेशा दूसरों की भलाई के लिए दुख सहने हैं. जबकि असंत लोग अपनी शक्ति दूसरों को अकारण कष्ट पहुँचाने में लगा देते हैं .
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी,
अहि मूषक इव सुनु उरगारी
हे गरुड़ सुनो, असंत लोग अक्सर स्वार्थी होते हैं और साँप तथा चूहे की भाँति दूसरों को अकारण ही नुकसान पहुँचाते रहते हैं. असंत लोग दूसरों से अकारण ही ईर्षा करते हैं. दूसरों की संपत्ति को अनैतिक ढंग से हड़पने कि कोशिश करते हैं. ऐसे असंतों से हमेशा बच के रहना चाहिए. जबकि संत लोग अपना जीवन दूसरों के कष्ट हरने में बीतता है.
संतों की परिभाषा तुलसी बाबा ने यूँ की है:
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कविन्ह परि
कहे न जाना
निज परिताप द्रवइ नवनीता, पर दुख
द्रवइ संत सुपुनीतोे
अर्थात कवियों ने कहा है कि, संतों का हृदय मक्खन की तरह कोमल होता है, लेकिन फिर भी कवि संतों की गुणवत्ता तक नहीं पहुँच पाये. क्योंकि मक्खन तो स्वयं को ताप लगने से पिघलता है, जबकि संत लोग तो दूसरों को ताप लगने पर पिघलने लगते हैं. इसीलिए संत नवनीत से भी अधिक श्रेष्ठ हैं. संत लोग सूर्य की भाँति, स्वयं गर्मी झेल कर, जगत को प्रकाश देने वाले कहे गये हैं.
संसार का सबसे बड़ा पुण्य है, करुणामयी
अहिंसा. यह अहिंसा दो प्रकार की होती है. एक शारीरिक अहिंसा और दूसरी मानसिक अहिंसा. शारीरिक अहिंसा के अन्तर्गत किसी भी जीव जंतु को मारना आता है. और मानसिक अहिंसा के अन्तर्गत किसी को मानसिक कष्ट देना. जैसे की किसी को कड़वे शब्द बोल कर आहत करना. अहिंसा एक बहुत बड़ा मानवीय गुण है, जो सभी को अपनाना चाहिए. और सबसे बड़ा पाप है, दूसरों की निंदा करना. आम लोगों में यह आदत अक्सर पाई जाती है. किसी के छोटे से दोष को देख उसकी निंदा करना, उन्हें नीचा दिखा, ऐसे लोग अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की कोशिश करते है. तुलसी इस दोष से बचने की सलाह देते हैं.
अंत में मानस रोगों का उल्लेख किया गया है. इनमें मोह रोग सबकी जड़ है:
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहि बहु सूला
काम वात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त
नित छाती जारा
प्रीत करहि जो तीनों भाई, उपजइ सन्यपात दुखदाई’’
मोह का अर्थ है अज्ञान, यह सब मानस रोगों की मूल जड़ है. इससे और व्याधियाँ उत्पन्न होती है. जैसे मोह से उत्पन्न होता है काम (जोकि वात रोग के समान) होता है, फिर उसमें से उत्पन्न होता है, लोभ (जोकि कफ रोग के समान) और लोभ की पूर्ति न होने पर, उत्पन्न होता है, क्रोध ( जोकि पित्त रोग के समान)है. आयुर्वेद के अनुसार, जिसको वात, कफ और पित्त एक साथ हो जाए तो उसे सन्निपात रोग कहते हैं. तुलसी बाबा कहते हैं, जिसको इन तीनों में से कोई एक भी हो जाए तो उसका जीना मुश्किल हो जाता है. प्राणी की मृत्यु तक हो सकती है. लेकिन किसी को तीनों एक साथ लग जायें तो उसका तो राम ही मलिक है:
एक व्याधि बस नर मरहीं, ए असाधि बहु व्याधि
पीड़हि संतत जीव कहूँ, सो किमि लहई समाधि
इस प्रकार गरुड़ काकभुशुण्डि जी के संवाद से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. यहाँ एक गरुड़ की शंका का समाधान होता है, तो दूसरी ओर एक राम भक्त के मन में उठे बहुत से प्रश्नों का भी सरल उत्तर मिलता है. यही है सत्संग का सबसे बड़ा लाभ, जिसकी महिमा में तुलसी बाबा कहते हैं:
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख, धरिय तुला इक अंग
तूल न ताहि सकल मिलि, जो सुख लव सत्संग।।
आशा करता हूं, सभी को संतों का संग और सत्संग का लाभ समय समय पर हमेशा मिलता रहे!!!