भरत जी- जिन्हें समझने में बहुतों ने भूल की
मानस का एक सबल पात्र भरत. जिन्होंने रामजी के लिए हर संभव त्याग किया.
जिनके लिए तुलसी बाबा ने हनुमान चालीसा में रामजी के मुख से यहां तक कहलवा दिया-
हे हनुमान,
तुम मम प्रिय भरत सम भाई।
तुलसी बाबा ने अयोध्या कांड का उतरार्द्ध भरत गुण गाथा में भर दिया.
प्रणवऊँ प्रथम भरत के चरना
जासू नेम व्रत् जाई न बरना।।
अर्थात- सबसे पहले मैं भारत के चरणों में प्रणाम करता हूँ, जिनका सयंम नियम एवं वर्त पालन का वर्णन नहीं किया जा सकता.
लेकिन विडंबना यह है कि इस सरल एवं पवित्र हृदयी भरत को अधिकांश अन्य लोगों ने पहले पहल गलत समझा. यहाँ तक कि उनकी माँ केकयी भी उन्हें ठीक से नहीं पहचान पाई. उसे लगा उसका बेटा राजा बनना चाहता है. केकयी को लगा कि भरत भाई प्रेम से अधिक राज्याभिषेक का लोभी है. इसी लिये उसने रामजी के राज्याभिषेक की घोषणा सुनते ही (चाहे बहकावे आकर ही सही) इतना बड़ा बखेड़ा खड़ा कर दिया. वहीं से भरत के लिए सब कुछ गलत होना आरंभ हो गया. केकयी को तो लोगो ने गलत कहा, साथ ही यह भी अटकलें लगाई गईं कि इसमें भरत की भी मिली भगत है
एक भरत कर सम्मत कहिहीं
एक उदास भाय सुनि रहिहीं
लेकिन बेचारे भरत ने सपने में भी इसकी कल्पना नहीं की थी. वे तो ननिहाल में थे. इस पूरी कहानी से दूर और पूरी तरह से अनभिज्ञ. रामजी वन चले गए. पिता श्री राम विरह में स्वर्ग सिधार गए. जब भरत को इस सबका पता चला और साथ ही ये पता चला कि स्वयं उनकी ही माँ ने उनके नाम पर यह सब किया है, तो उनका मन एक अपराध बोध से भर गया. उन्हें बहुत ही दुख हुआ, वे माँ से बोले-
राम विरोधी हृदय से प्रगट् कीन्ह विधि मोही
मो समान को पातकी, बादि कहहूँ कछु तोहि।।
अर्थात- विधाता ने मुझे रामजी से विरोध करने वाली माँ से जन्म दिया है. मेरे से बढ़ कर पापी भला दूसरा कौन हो सकता है. मेरा ही भाग्य दोष है, माँ तुझे क्या कहूँ?
उसके बाद भरत जी ने सोचा की चलो वन चल के रामजी से क्षमा माँग उन्हें लौटा लाते है. जाना तो अकेले चाहते थे. लेकिन सभी परिवारी जन तैयार हो गए. उनकी सुरक्षा के लिए दल बल को भी साथ लेना पड़ा. आगे निकले तो सबसे पहला पड़ाव गंगा तट. वहाँ का मालिक निषादराज. उसने जब सुना भरत दल बल के साथ आ रहा है, तो उसने भी भरत को गलत समझा. उसे लगा भरत रामजी से लड़ने आ रहा है. वह भी अपनी सेना सहित तैयार हो गया-
सनमुख लोह भरत सब लेऊँ
जियत न सुरसरि उतरन देऊँे
अर्थात- मैं भरत से युद्ध करूँगा, उसे उसे जीते जी गंगा पार नहीं करने दूँगा.
रामजी तो गंगा पार हैं, भरत को उन तक पहुँचने ही नहीं दूँगा. लेकिन जैसे ही भरत जी निकट आये, और अपना उद्देश्य बताया, तो निषादराज की गलतफहमी दूर हुई. और निषादराज भी भरत जी की सहायता के लिये तत्पर हो गया.
उसके बाद भरत जी भारद्वाज ऋषि के आश्रम से होते हुए चित्रकूट की ओर बढ़ने लगे. रामजी की पर्णकुटी के आस पास समाचार पहुँचा. लक्ष्मण ने जब सुना कि भरत भाई सेना सहित आ रहा है, तो उसे भी शंका हुई. माँ केकयी के प्रति पहले से ही थोड़ा गुस्सा था, उसे इस समाचार ने हवा दे दी. उन्होंने भी भरत को गलत समझते हुए अपना धनुष बाण सम्भालने लगे-
उठी करि जोरी रजायसु माँगा
मानहूँ वीर रस सोवत जागा
आज राम सेवक जसु लेऊँ
भरतहि समर सिखावन देऊँे
अर्थात- लक्ष्मण तैयार होकर रामजी से आज्ञा माँगने पहुँच गए, ऐसा लगा मानो स्वयं वीर रस सोते से जाग उठा हो. लक्ष्मण मन ही मन सोचने लगे, आज मैं रामजी के सेवक होने का यश लूँगा और इस भरत को एक अच्छा सबक सिखाऊँगा.
रामजी ने जब लक्ष्मण के क्रोध को पहचाना तो, स्थिति को सँभाला. रामजी एक मात्र ऐसे भाई थे, जो भरत की सरलता और निर्दोषता को भली भाँति समझते थे. भाई लक्ष्मण को समझाने लगे, कि भरत को राज्य का अभिमान सपने में भी नहीं हो सकता.
भरतहि होईं न राजमद विधि हर हर पद पाई
कबहुँ कि काँजी सीकरनि छीरसिंधु बिनसाई
भरत को राज्य का मद ठीक उसी प्रकार नहीं हो सकता; जैसे खटाई की कुछ बूँदो से खीर सागर खट्टा नहीं हो सकता. ये लगभग असंभव है।
फिर उसके बाद भरत जी रामजी के पास आए, और रामजी से मिलने लिए बड़े ही संकोच से आगे बढ़े, लेकिन रामजी तो अपने प्रिय भाई भरत से मिलने की बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा कर रहे थे. जब रामजी ने भरत को देखा तो बड़ी अधीरता से रामजी भरत की ओर भागे
कहत सप्रेम नाईं महि माथा
भारत प्रनाम करत रघुनाथा
उठे राम सुनि प्रेम अधीरा
कहूँ पट कहूँ निषंग धनु तीरा
रामजी का पट कहाँ जा गिरा? उनका धनुष बाण कहाँ जा गिरा? किसी को उसकी सुध नहीं. अश्रु की अविरल धारा बह निकली. दोनो भाई इस प्रेम जल में भीग गये.
तुलसी बाबा यहाँ भाव विभोर हो लिखते हैं
बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान
भरत राम की मिलनि बिसरे सभी अपान
रामजी ने भरत जी को बरबस उठा लगे लगा लिया और उन दोनों के इस प्रेम मिलन को देख वहाँ उपस्थित सभी अपनी अपनी सच। बुध खो बैठे.
ऐसा था भरत जी का सरल व्यक्त्तिव, जिन्हें हर किसी ने पहले गलत समझा लेकिन जैसे जैसे उनके स्वभाव से परिचित होते गए, वैसे वैसे उनके अनुयायी होते गए. उन्होंने राज पाकर, भी नहीं पाया. बल्कि उसी सिंहासन पर रामजी की चरण पादुकाएँ रख, एक सेवक की भाँति, रामजी की अनुपस्थिति में, राज्य के सेवा में लगे रहे. ऐसे सरल एवं पवित्र हृदयी भरत जी को बारंबार सादर प्रणाम!!