रामचरित मानस एवं भगवद् गीता में कुछ समानताएँ:
By: Rajendra Kapil
तीसरी कड़ी- प्रभु का विराट स्वरूप
भगवद गीता और रामचरित मानस में भगवान के विराट रूप का विस्तृत वर्णन है. यह एक ऐसा
रूप है, जो सामान्य भक्त की किसी भी कल्पना से बड़ा एवं अद्भुत है. यह भक्त को आश्चर्य
चकित भी कर सकता है, उसे भयभीत भी कर सकता है. इसका वर्णन करना आसान नहीं है.
अर्जुन कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल पर खड़ा, भगवान कृष्ण के तर्क वितर्क सुन रहा था. लेकिन उसकी
बुद्धि, पूर्णतया उस पर यक़ीन नहीं कर पा रही थी. प्रभु बार बार उसे कह रहे थे, कि मैं हर
जगह पर हूँ. सभी के मन प्राण में बसता हूँ. सब जीव मुझमें ही निवास करते हैं. यह प्रतिदिन
प्रकाशित होते सूर्य और चन्द्रमा, मेरे ही अस्तित्व का हिस्सा हैं. लेकिन अर्जुन वह सब महसूस
करने में असमर्थ था. भगवान कृष्ण उसकी समस्या समझ गए और बोले:
न तु मां शक्यसे द्रष्टमनेनैव स्वचक्षुषा।
दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम् ॥8॥
हे अर्जुन, तू मुझे इन प्राकृत नेत्रों से देखने में असमर्थ है. इसलिए मैं तुझे दिव्य अर्थात् अलौकिक
दृष्टि प्रदान करता हूँ. इस दिव्य दृष्टि से तू मेरा विराट रूप देखने में समर्थ हो जाएगा. इसके
बाद भगवान कृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की, और अर्जुन ने जो देखा, वह वाकई
अद्भुत था.
अनेकवक्त्रनयनमनेकाद्भुतदर्शनम् ।
अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम् ॥10॥
योग दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यमन्धानुलेपनम्।
सर्वाश्चर्यमयं देवमनन्तं विश्वतोमुखम् ॥11॥
अर्जुन ने भगवान के दिव्य विराट रूप में असंख्य मुख और आंखों को देखा। उनका रूप अनेक दैवीय
आभूषण से अलंकृत था और कई प्रकार के दिव्य शस्त्रों को उठाए हुए था। उन्होंने उस शरीर पर अनेक
मालाएँ और वस्त्र धारण किए हुए थे. जिस पर कई प्रकार के दिव्य सुगंधित इत्र लगे हुए थे.
वह स्वयं को एक आश्चर्यमय, सीमा रहित, भगवान के विराट रूप को अपने सामने देख रहा था.
अनेक मुख और नेत्रों वाले प्रभु को देख अर्जुन स्तब्ध रह गया. प्रभु ने दिव्य आभूषण पहने थे.
हाथों में अनेकों प्रकार के दिव्य अस्त्र थे. शरीर पर तरह तरह के दिव्य वस्त्र थे.और चारों दिशाओं
में, हर दिशा में एक भिन्न मुँह किए प्रभु के इस विराट रूप को देख अर्जुन विस्मित हो उठे.
दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता ।
यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥12॥
तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥13॥
प्रभु के मुख से जो दिव्य प्रकाश निकल रहा था, उसमें हज़ारों सूर्यों का तेज था. परमात्मा के उस
विश्व रूप को देख, अर्जुन कुछ घबरा सा गया था. उसने अपने सखा का ऐसा रूप इससे पूर्व कभी
नहीं देखा था. ईश्वअर्जुन ने उस समय, अनेक प्रकार से विभक्त, इस संपूर्ण जगत को एक साथ,
भगवान कृष्ण के शरीर में देखा.
अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रंपश्यामित्वांसर्वतोऽनन्तरूपम्।
नान्तंनमनपुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरुप ॥16॥
किरीटिनंगदिनंचक्रिणंचतेजोराशिंसर्वतोदीप्तिमन्तम्।
पश्यामित्वांदुर्निरीक्ष्यंसमन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ॥17॥
इस विराट रूप को देख अर्जुन बोला, हे विश्व के स्वामी के स्वामी, मैं आपके इस अनेक भुजा,
अनेक मुख और हज़ारों नेत्रों वाले इस अनंत रूप को देख रहा हूँ. इस शरीर मैं मुझे आपका न
आदि यानिकि आरंभ दिखाई दे रहा है, नाही कोई मध्य, और नाही आपका कोई अंत दिखाई पड़
रहा है. आपके इस विराट रूप में, मैं आपको मुकुट युक्त, गदा युक्त और चक्र युक्त एक
प्रकाशमान तेज पुंज से युक्त, एक दिव्य और अलौकिक स्वरूप को देख रहा हूँ.
अनादिमधयान्तमनन्तवीर्यमनन्तबाहुशशिसूर्यनेत्रम्
पश्यामि त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं स्वतेजसा विश्वमिदं तपन्तम् ॥19॥
आप ही अनादि धर्म के रक्षक हैं. केवल आप ही जानने योग्य परम ब्रह्म हैं. आप ही अविनाशी
सनातन पुरुष हैं. मैं आपके इस विराट रूप के समक्ष नत मस्तक हूँ,
अब रामचरितमानस की ओर चलते हैं. मानस के बालकाण्ड में जब शिव पार्वती के संवाद में,
जब पार्वती जी को रामजी के ब्रह्म होने पर संदेह हो जाता है तो, भगवान शिव उसे समझाते हैं:
जासू कृपा अस भ्रम मिटि जाई, गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई
आदि अंत कोउ जासु न पावा, मति अनुमानि निगम अस गावा
हे गिरजा, जिसकी कृपा से सब भ्रम मिट जाते हैं. वही मेरे प्रभु राम रघुराई हैं. उनके बारे में
पुराणों और श्रुतियों में बहुत लिखा गया है, लेकिन कोई उनका पार नहीं पा पाया. उनका न कोई
आदि यानिकि आरंभ है, नाही कोई अंत. ऐसे प्रभु राम, जब जन्म के समय, माँ कौशल्या के
सामने प्रगट हुए, तो माँ झूम के गाने लगी:
भए प्रगट कृपाला दीन दयाला, कौशल्या हितकारी
हरषित महतारी, मुनि मन हारी, अद्भुत रूप बिचारी
उनका अद्भुत रूप देख माँ प्रसन्न भी हुई और विस्मित भी. बेटे में उन्हें ब्रह्म भी दिखाई पड़ा,
प्रार्थना करने लगी:
ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया, रोम रोम प्रति वेद कहे
मम उर सो बासी यह उपहासी, सुनत धीर मति थिर न रहे|
आपका रूप ब्रह्माँड स्वरूप है, रोम रोम से वेद उच्चारित हो रहे हैं. ऐसा ब्रह्म मेरे उदर में कैसे?
इसे सुन कर ज्ञानी लोग मेरे उपहास उड़ायेंगे. माँ की मनोस्थिति को पहचान प्रभु मुस्काने लगे:
उपजा जब ग्याना प्रभु मुस्काना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहे कही कथा सुहाई मातु बुझाई जेही प्रकार सुत प्रेम लहे
इस प्रकार प्रभु का जन्म ही ब्रह्म रूप में हुआ, जिन्होंने एक प्यारे से शिशु की भूमिका निभाई.
बाद में तुलसी बाबा ने भी ऐसे रामजी के, ब्रह्मस्वरूप को इस प्रकार वर्णित किया:
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना, कर बिनु करम करइ बिधि नाना
आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु बानी बकता बड़ जोगी
ऐसा ब्रह्म बिना पाँव के मीलों चल लेता है. कान के बिना सब कुछ सुन लेता है. मुँह नहीं है,
फिर भी हर प्रकार के रसों का स्वाद ले लेता है. वाणी नहीं है, फिर सबसे कुशल वक्ता बन जाता
है. ऐसा अद्भुत चरित्र केवल उस विराट भगवान का ही हो सकता है
इसी बात को उत्तरकांड में काकभुशुण्डी जी भी दोहराते हैं. गरुड़ को राम कथा सुनाते समय, अपने
एक अनुभव में काकभुशुण्डी रामजी के ब्रह्म स्वरूप का वर्णन करते हैं. उनके अनुसार, एक बार वह रामजी के आसपास खेल कूद कर रहे थे, कि रामजी ने उन्हें पकड़ने का प्रयास किया.
काकभुशुण्डी जी बोले, मैं ठहरा, चतुर चपल. मैं उड़ चला. रामजी ने अपनी भुजा मेरी ओर बढ़ाई,
मैं और ऊँचा उड़ता चला गया. मैं जितना भी दूर जाता जाऊँ, रामजी की भुजा उतनी ही बढ़ती
जाए और ठीक मेरे पीछे दो अंगुल की दूरी पर मेरा पीछा करती जाए. मैं उड़ते उड़ते, विष्णु
लोक तक जा पहुँचा, और रामजी का हाथ वहाँ भी, मेरे पीछे दो उँगुली की दूरी पर मेरे पीछे था:
भय ते चकित राम मोहि देखा, बिहसे सो सुनि चरित बिसेषा
तब मैं भागि चलऊँ उरगारी, राम गहन कहँ भुजा पसारी
जिमि जिमि दूरी उड़ाऊँ अकासा, तहॉ भुज हरि देख़ऊँ निज पासा
ब्रह्म लोक लगि गयऊँ मैं चितयऊँ पाछ उड़ात
जुग अंगुल कर बीच सब राम भुजहि मोहि तात
यह सब देख मैं बहुत भयभीत हो गया. मैंने आँखें मूँद ली. जब खोली, तो सामने प्रभु राम को
खड़े पाया. प्रभु खिलखिला कर हँस रहे थे. मैं अचानक उनके मुख मैं जा घुसा. उनके उदर में,
मैं क्या देखता हूँ?
उदर माझ सुनु अंडज राया, देखऊँ बहु ब्रह्मांड निकाया
अति बिचित्र तहँ लोक अनेका, रचना अधिक एक ते एका
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा, अगनित उङ्गन रबि रजनीसा
सागर सरि सर बिपिन अपारा, नाना भाँति सृष्टि बिस्तारा
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किन्नर, चारि प्रकार जीव सचराचर
जो नहीं देखा नहीं सुना, जो मनहुँ न समाइ
सो सब अद्भुत देखऊँ, बरनि कवनि बिधि जाइ
रामजी के विराट रूप में मैंने अनेकों ब्रह्माण्ड देखे, अनेकों प्रकार के लोक देखे. कोटि ब्रह्मा देखे.
अनेकों शिव स्वरूप देखे. तरह तरह के सागर और नदियाँ देखी. अनेकों विस्तृत वन मालाएँ
देखी. भिन्न प्रकार के नाग, मुनि एवं किन्नर देखे. जो कभी सोचा नहीं, जो कभी सुना नहीं,
जिसकी कभी कल्पना नहीं की, वोह सब रामजी के विराट रूप में एक ही बार देख लिया. यह
सब इतना अद्भुत था कि, उसका वर्णन आसानी से नहीं किया जा सकता.
इस प्रकार दोनों महान ग्रंथों में बड़े स्पष्ट रूप से भगवान के विराट रूप के दर्शन होते हैं. ऐसे
कण कण में व्याप्त, परम अविनाशी, परम दयालु प्रभु के श्री चरणों में मेरा सादर प्रणाम!!!