December 22, 2024
रामचरित मानस एवं भगवद् गीता में कुछ समानताएँ:
Dharam Karam

रामचरित मानस एवं भगवद् गीता में कुछ समानताएँ:

By: Rajendra Kapil

चौथी कड़ी-  करम प्रधान विश्व रचि राखा अर्थात् कर्म योग

कर्म जीवन की गति है. उसका जीवन की गाड़ी को चलाने में बहुत बड़ा हाथ है. किसी भी काम
करने के पीछे दो उद्देश्य होते हैं. एक या तो वह अपने किसी निजी स्वार्थ के लिये किया जाता
है. दूसरा, वह समाज के कल्याण के लिए, दूसरों की सहायता के लिए किया जाता है. इसी लिए
राम चरित मानस में कहा गया:

करम प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस् फल चाखा

जो जिस भावना से कर्म करेगा, उसे ठीक वैसा ही फल भी भुगतना पड़ेगा. इससे कर्मों में शुद्धि
अपने आप आ जाती है. जो बुरे कर्म करने के लिए उद्यत होते हैं, उनके लिए चेतावनी भी
निहित है. दूसरी ओर, भगवद गीता के दूसरे अध्याय में कर्म योग की चर्चा है:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥47॥


BG 2.47: तुम्हें अपने निश्चित कर्मों का पालन करने का अधिकार है लेकिन तुम
अपने कर्मों का फल प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो, तुम स्वयं को अपने कर्मों के
फलों का कारण मत मानो और न ही अकर्मा रहने में आसक्ति रखो


इस श्लोक में प्रभु कृष्ण ने कहा, हे अर्जुन कर्म करने पर तुम्हारा पूरा अधिकार है, लेकिन उस
करम का फल तुम्हें क्या मिलेगा, यह मैं निश्चित करूँगा. तुम्हारे प्रयास के पीछे निहित तुम्हारी
नीयत और मेहनत की सच्चाई को, मैं परखूँगा. हम सब जीवन के स्वार्थों को पूरा करने के लिए
प्रतिदिन कर्म करते रहते हैं. कभी हमें उसका अच्छा फल मिलता है, तो उसका श्रेय हम अपनी
मेहनत को दे, एक अहंकार पाल लेते हैं. और जब कभी उसका उचित फल नहीं मिलता, तो हम
दूसरों को दोष देना आरंभ कर देते हैं, यहाँ तक कि भगवान को भी नहीं बख़्शते. इसीलिए प्रभु ने
अर्जुन को एक और सलाह दी:

योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय ।
सिद्ध्यसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥
BG 2.48: हे अर्जुन! सफलता और असफलता की आसक्ति को त्याग कर तुम
दृढ़ता से अपने कर्तव्य का पालन करो। यही समभाव योग कहलाता है।

हे धन्यजय, तू आसक्ति को त्याग कर, सफलता और असफलता में समान भाव बना कर, अपने
कर्तव्यों  को कर, यही सबसे बड़ा योग है. यही कर्म योग है. ऐसे काम को निष्काम कर्म भी कहा
जाता है. निष्काम का अर्थ है, बिना किसी कामना से प्रेरित हुए, केवल काम के प्रयोजन के लिए,
आवश्यक मेहनत को पूरी ईमानदारी से करना. कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि, अगर सफलता की
कामना नहीं होगी, तो पूरी मेहनत नहीं हो पाएगी. अब इसी परिस्थिति को उल्टा करके देखिए.
अगर आप फल या सफलता की चिंता किए बिना, पूरी एकाग्रता के साथ मेहनत करेंगे, तो
सफलता अपने आप, आपके कदम चूमेगी. निर्णय भक्त का है कि, वह कौन सा मार्ग चुनता है.
एक कहानी से बात और भी स्पष्ट हो जायेगी. एक बार गुरु द्रोणाचार्य अपने शिष्यों को लक्ष्य
भेदना सिखा रहे थे. एक पेड़ पर एक नक़ली चिड़िया को रखा गया, और सबको बताया गया कि,
इसकी आँख भेदनी है. पहले उन्होंने दुर्योधन को बुलाया, और पूछा, क्या दिखाई दे रहा है ?
दुर्योधन बोला, शाखा दिख रही, जिस पर एक चिड़िया बैठी है. तब उन्होंने अपने बेटे अश्वथामा
को बुलाया और पूछा, पुत्र तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? तो वह बोला, मुझे केवल चिड़िया दिखाई दे
रही है. अंत में उन्होंने अर्जुन को बुलाया, और पूछा, तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है? अर्जुन लक्ष्य
साधते हुए बोला, गुरूवर मुझे तो केवल चिड़िया की आँख दिखाई पड़ रही है. आचार्य बोले, वाह
बेटा, चलाओ बाण. और इस प्रकार उसकी एकाग्रता, उसकी कार्य सिद्धि का कारण  बन गई. ऐसों
को कहते हैं, कर्म योगी.

राम चरित मानस में दो ऐसे कर्म योगी नज़र आते हैं, जो अपने स्वामी के काम के लिए अपना
सर्वस्व लुटाते नज़र आते हैं. यही उनके चरित्र की महानता है, यही उनके स्वामी के प्रति अनन्य
प्रेम का सुंदर समर्पण है. इसमें पहला नाम है, लक्ष्मण और दूसरा नाम है हनुमान. लक्ष्मण का
त्याग और निष्काम कर्म बहुत ही सराहनीय है. जब रामजी को वनवास जाने की आज्ञा सुनाई
गई, तो सबसे अधिक अधीर लक्ष्मण हुए. साथ जाने की ज़िद करने लगे. रामजी ने समझाने का
प्रयास किया कि, तुम्हारी पत्नी है. यहाँ पिता के पास कोई और नहीं है. लेकिन लक्ष्मण जी
अपने स्वामी की निस्वार्थ सेवा के अतिरिक्त कुछ और नहीं सोच रहे थे, बोले;

दीन्ह मोहि सिख नीकि गुसाँई, लागी अगम अपनी कदराई
गुरु पितु मातु न जानऊँ काहू, कहुँऊ सुभाउ नाथ पतिआहू


आपने मुझे बड़ी अच्छी सीख दी, लेकिन मेरा विश्वास कीजिए, मैं आपके बिना, किसी और गुरु
माता पिता को नहीं मानता .

मोरे सबइ एक तुम स्वामी,  दीनबंधु  उर अंतरजामी

मेरे सर्वस्व केवल आप ही हैं. बस मुझे छोड़ कर मत जाइए. मैं उर्मिला को भी समझा लूँगा. ऐसा
कहा जाता है कि, लक्ष्मण चौदह वर्ष तक सोए भी नहीं थे. रामजी की उन्होंने पूरी निष्ठा के

साथ, निस्वार्थ भाव से, दिन रात सेवा की. यही कारण था कि, राम रावण युद्ध के समय जब
लक्ष्मण,  मेघनाद के शक्ति बाण से घायल हो मूर्छित हो गए, तो राम बिलख उठे:

जैहऊं अवध कवन मुँह लाई, नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई

अब मैं अयोध्या कौन सा मुँह लेकर जाऊँगा. लोक ताने देंगे. पत्नी के लिए भाई गवाँ कर लौटे
हो. हे लक्ष्मण, मेरी स्थिति तुम्हारे बिना ऐसी हो  गई है, मानो:

जथा पंख बिनु खग अति दीना, मणि बिनु फनी करिबर कर हीना
जो जनतेऊँ बन बंधु बिछोहू, पिता बचन मनतेहू नहि ओहू


कोई किसी पंछी के पर काट दिए गए हों. अगर मुझे पता होता कि, मेरा भाई मुझे छोड़ कर
चला जाएगा. तो मैं पिता के वचन मानने से इंकार कर देता. ऐसी अधीरता किसी कर्म योगी के
लिए ही हो सकती है. रामजी को लगा, उन्होंने अपने जीवन की सबसे बड़ी पूँजी खो दी है. उन्हें
सीता के लिए युद्ध करना भी व्यर्थ लगने लगा.ऐसे कर्मयोगी का चरित्र अन्यत्र कहीं और नहीं
मिलता. वह हर उस व्यक्ति या विपदा से लड़ने को सज्ज है, जो रामजी के रास्ते में बाधा बनती
है.  एक और उदाहरण है, जहाँ लक्ष्मण रामजी की सुरक्षा के लिए मरने मारने को तैयार हो जाते
हैं. वनवास के दौरान, जब भरत रामजी को मनाने के लिए परिवार एवं सेना सहित चित्रकूट आ
रहे होते हैं, तो इस समाचार से, लक्ष्मण के मन में, सेना सहित आने के कारण, एक संदेह उत्पन्न
हो जाता है कि, कहीं भरत, रामजी को अकेला देख, उनसे युद्ध करने तो नहीं आ रहा? बस फिर
क्या था. लक्ष्मण अपना धनुष बाण सम्भाल सज्ज हो उठते है:

आज राम सेवक जसु लेऊँ, भरतहि समर सिखावन देऊँ
राम निरादर कर फलु पाई, सोवहुँ समर सेज दोउ भाई


लक्ष्मण का ध्यान केवल कर्म पर है, उसके फल या परिणाम पर नहीं. वह केवल कर्म करने को
उद्यत है, निष्काम कर्म. वह अपने बाक़ी दो भाइयों से लड़ जाने के, अपने कर्तव्य कर्म से, भी
नहीं झिझकते.
दूसरा कर्मयोगी है हमारा प्यारा बजरंग बलि हनुमान, जो केवल निष्काम भाव से, हमेशा
राजकाज में लगे रहते हैं. जब उन्हें सीता खोज के लिए जाना था, तो उन्होंने जाम्बवंत  जी से
सलाह की, कि मेरा उद्देश्य क्या है?

जामवन्त मैं पूछऊँ तोहि, उचित सिखावन दीजहु मोहि
एतना करहु तात तुम जाई, सीतहि देखिं कहहु सुधि आई


बाक़ी सब रामजी सम्भाल लेंगे. बस फिर क्या था, हनुमान जी उड़ चले लँका की ओर. रास्ते में
मैनाक पर्वत प्रगट हुआ, प्रार्थना करने लगा, महाराज तनिक यहाँ विश्राम कर लीजिए, रास्ता बहुत
लंबा है. हनुमान जी बोले:

राम काज कीन्हे बिनु मोहि कहाँ बिश्राम

इस संदर्भ में केवल हाथ में आये काम के प्रति निष्ठा है, उसके लिए किए जाने वाली मेहनत के
प्रति, पूरी ईमानदारी है. यह हैं एक सच्चे कर्मयोगी के लक्षण. और जब तक उन्होंने सीता का
पूरी तरह से पता नहीं लगा लिया. उन्होंने एक पल भी विश्राम नहीं किया. जब हनुमान जी
सीता की कुशल क्षेम लेकर लौटे, तो रामजी हनुमान के आगे कृतज्ञता से भाव विह्वल हो केवल
इतना ही कह पाये:

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहि, देख़ऊँ करि बिचार मन माहि
प्रति उपकार करों का तोरा, सन्मुख होइ न सकत मन मोरा


हे हनुमान, तुमने जो उपकार मुझ पर किया है, उसका ऋण मैं जीवन भर नहीं उतार पाऊँगा.
निष्कर्षता  भगवद् गीता और रामचरित मानस में कर्म योग की परिभाषा एवं उदाहरण कूट कूट
कर भरे पड़े हैं. हमें केवल इन मोतियों को चुन कर अपने जीवन में उतारने की आवश्कता है.
लक्ष्मण और हनुमान जी जैसे कर्म योगियों को मेरा सादर प्रणाम!!!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *