November 21, 2024
रामचरित मानस में प्रवाहित ऋषि परम्परा
Dharam Karam

रामचरित मानस में प्रवाहित ऋषि परम्परा

By: Rajendra Kapil

तीसरा सोपान – परशुराम भगवान

ऋषि परशुराम को भगवान परशुराम भी कहा जाता है. पुराणों में परशुराम का विवरण बहुत पुरातन है. इनकी महानता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि, इनका नाम भगवान के दस अवतारों में भी गिना जाता है. दस अवतारों की सूची इस प्रकार है:

१-मत्स्य, २-कूर्मा, ३-वराह, ४-नरसिंह, ५-वामन, ६-परशुराम, ७-श्री राम, ८-श्री कृष्ण, ९-बुद्ध, १०-कल्कि

परशुराम का जन्म ऋषि जमदग्नि के घर हुआ था. इनकी माँ का नाम रेणुका था, जो उस समय की एक वीर क्षत्राणी थी. पिता ब्राह्मण और माँ क्षत्रिय. इसी लिए ग़ज़ब का मिश्रण था, परशुराम जी के व्यक्तित्व में. वह महाज्ञानी भी थे, और एक बहुत बलशाली वीर योद्धा भी थे. उनका बचपन का नाम भार्गव राम था. युवावस्था में उन्होंने एक विशेष शस्त्र ‘परसा’ को चलाने में निपुणता प्राप्त की. इसीलिए उनका नाम बदल कर परशुराम हो गया. 

एक बार कुछ क्षत्रिय राजाओं ने उनके पिता के साथ दुर्व्यवहार किया, तो परशुराम को बड़ा क्रोध आया. उसका बदला लेने के लिए वह अपने दल बल के साथ युद्ध क्षेत्र में कूद पड़े. उस काल में कुछ क्षत्रिय राजा बड़े निरंकुश एवं अभिमानी थे, और अपनी प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे. योद्धा परशुराम उनको सबक़ सिखाने को सज्ज हो गए. एक प्रसंग के अनुसार उन्होंने क्षत्रियों के कुलों का २१ बार विनाश किया था

एक और कथा के अनुसार, एक बार ऋषि जमदग्नि अपनी पत्नी से बड़े क्रोधित हो गए थे. उसी समय परशुराम घर आए, तो उन्होंने उसे अपनी माँ का सिर धड़ से अलग करने की आज्ञा दे डाली. कुछ क्षण सोचने के बाद, उन्होंने पिता की आज्ञा मान, माँ का सिर काट दिया. बेटे की ऐसी आज्ञाक़ारिता को देख ऋषि प्रसन्न हो उठे. और बेटे से कहा वरदान माँगो. तब तक परशुराम जी को अपनी ग़लत करनी का अहसास हो चुका था. उन्होंने कहा, पिता श्री, आप माँ को पुन: जीवित कर दीजिए, साथ ही, यह भी कि, माँ को यह याद भी न रहे कि, उनके साथ यह दुष्कृत्य किसने किया था. ऋषि जमदग्नि, परशुराम की विलक्षण बुद्धि पर अति प्रसन्न हुए, और कहा, तथास्तु!! और परशुराम जी की माता रेणुका, पुन: जीवित हो गई.

रामचरित मानस में परशुराम जी का पदार्पण सीता स्वयंवर के समय महाराज जनक की सभा में होता है. परशुराम के इष्ट थे भगवान शिव. स्वयंवर की शर्त थी की, जो कोई वीर शिव का धनुष तोड़ देगा, सीता उसे अपना वर मान, उससे विवाह कर लेगी. बहुत सारे राजाओं ने प्रयास किया, लेकिन कोई भी वह धनुष उठा भी नहीं पाया. राजा जनक बहुत निराशा हुए. महाराज की निराशा देख, ऋषि विश्वामित्र ने राम को आगे बढ़ने को कहा. गुरु का आशीर्वाद पा, रामजी ने धनुष को तोड़, उसके दो टुकड़े कर दिए. शिव धनुष के टूटने से घोर टंकार हुई, जिसकी ध्वनि दूर दूर तक पहुँची. यह ध्वनि परशुराम जी के क़ानों में भी पहुँची, तो वह  राजा जनक की सभा में आ पहुँचे.

उन्हें सभा में देख बहुत से राजा सकुचा गए. कुछ राजा, जो रामजी से ईर्षा कर रहे थे, खुश हुए. उन्हें लगा, अब पड़ेगा विघ्न. अब आएगा मजा. परशुराम की छवि बड़ी अद्भुत थी. अस्त्रों शस्त्रों से सजा एक संन्यासी:

सीस जटा ससिबदनु सुहावा, रिसबस कछुक अरुन होई आवा
कटि मुनिबसन तून दुइ बांधे, धनु सर कर कुठारु कल काँधे

सीस पर तेजस्वी जटाएँ, सुंदर मुख, क्रोध के कारण थोड़ा लाल. कमर में वल्कल. कंधों पर धनुष बाण, और हाथ में चमकता हुआ, एक परसा. बहुत से राजा पास आकर प्रणाम करने लगे.

पितु समेत कहि कहि निज नामा, लागे करन सब दंड प्रनामा

ऋषि विश्वामित्र भी उनके पास आए, उनका अभिवादन किया. दोनों भाईयों से भी कहा कि, ऋषि को प्रणाम करें.

विस्वामित्र मिले पुनि आई,  पद सरोज मेले दोउ भाई

राजा जनक भी पास आ गए. प्रणाम कर, पूरी स्थिति से अवगत कराया. इतने में परशुराम जी ने शिव धनुष के टूटे हुए टुकड़े देखे, तो क्रोधित हो उठे. कठोर वाणी से बोले:

अति रिस बोले वचन कठोरा, कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू , उलटऊँ महि जहाँ लहि तव राजू

हे राजन, मुझे तुरंत बताओ कि, यह धनुष किसने तोड़ा है? अन्यथा मैं तुम्हारा सारा राज्य उलट पलट कर दूँगा. ऐसा क्रोध देख, सभा में सब ओर भय फैल गया. कुटिल राजा मन ही मन मुस्काने लगे. स्त्रियाँ भयभीत हो, अपने अपने इष्टदेव से प्रार्थना करने लगी.

रामजी ने स्थिति को सँभालते हुए, आगे बढ़ कर कहा, ऋषिवर आपका दोषी मैं हूँ. इस धनुष को तोड़ने वाला दास, आपके सम्मुख है. परशुराम जी बोले, शिव धनुष को तोड़ने वाला मेरा सेवक कदापि नहीं हो सकता.  बल्कि वह तो सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है.

सुनहु राम जेहि सिव धनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा

पास ही नटखट लखन जी खड़े थे. उन्हें परशुराम जी के क्रोध पर हँसी आ गई. कहने लगे, हमने बचपन में ऐसी बहुत सी धनुहियाँ तोड़ी हैं, तब तो कोई नाराज़ नहीं हुआ, आज क्या विशेष बात है? बस फिर क्या था, अब परशुराम जी लक्ष्मण पर भड़क उठे. लेकिन लखन लाल तो मज़ा लेने पर तुले थे.

छुअत टूट रघुपति नहि दोसू , मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू

रामजी ने तो बस इसे छुआ और यह टूट गया, आप इतना क्रोध काहे कर रहे हैं? ऐसे में परशुराम जी ने लक्ष्मण को अपना परसा दिखाते हुए चेतावनी दी:

बोले चितइ परसु की ओरा,    रे सठ सुनहि सुभाउ न मोरा
बालकु बोली बधऊं नहि तोहि, केवल मुनि जड़ जानहि मोहि

मैं तुम्हें बालक जान के छोड़ रहा हूँ. तू मुझे केवल मुनि जान रहा है. मैं एक बहुत बड़ा योद्धा हूँ. मैंने कई बार इस धरती को वीर विहीन करके अपने गुरु भगवान शिव को अर्पित कर चुका हूँ. रे बालक, तू मुझे नहीं जानता. ऐसे में लक्ष्मण जी ने एक और चुस्की ली:

पुनि पुनि मोहि देखा व कुठारू, चहत उड़ावन फूँकि पहारू
इहाँ कुम्हड़बतिया कोउ नाहीं, जे तरजनी देखि मरि जाही 

मुझे आप बार बार परसा दिखा कर डरा रहे हो, ऐसा लग रहा कि, जैसे आप फूँक मार कर पहाड़ को उड़ा देना चाहते हैं.

स्थिति को बिगड़ते देख ऋषि विश्वामित्र आगे आए और परशुराम जी को शांत किया. रामजी ने एक बार फिर आगे बढ़ कर, हाथ जोड़ कर परशुराम को समझाने का प्रयास किया. ऋषिवर आप इस  बालक की बातों पर ध्यान मत दीजिए. आप तो जानते हैं कि, बालक और बर्रे (डेभूँ) एक बराबर होते हैं

बररै बालकु एकु सुभाऊ, इन्हहि न संत विदूषहि काऊ

आपका दोषी तो मैं हूँ. आप मुझे दंड दीजिए. मैं आपके सामने प्रस्तुत हूँ. मेरा तो नाम भी आप से छोटा, मात्र राम है. आप परसे सहित परशुराम मुझे से कहीं बड़े हैं. आप मेरा अपराध क्षमा कीजिए, और वह उपाय बताइए, जिससे आपका क्रोध शांत हो.  मैं किसी प्रकार का अभिमान नहीं कर रहा, पुराना धनुष था, मेरे उठाते ही टूट गया. वैसे तो हम रघुवंशी हैं, और हमारा स्वभाव तो यह है कि, हम किसी से नहीं डरते, युद्ध में काल से भी भिड़ जाते हैं:

छुअतहि टूट पिनाक पुराना, मैं केहि हेतु करूँ अभिमाना
कहऊँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी, कालहु डरहि न रन रघुबंसी


रामजी की गूढ़ बातों ने परशुराम जी के मन चक्षुओं को खोल दिया.

सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के,  उघरे पटल परसुधर मति के

परशुराम जी शांत हो गए. रामजी से कहने लगे आप एक बार मेरे इस धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा कर मेरा संदेह दूर कर दीजिए. और रामजी ने बड़ी विनम्रतापूर्वक ऐसा ही किया:

राम रमापति कर धनु लेहू , खैंचहु मिटे मोर संदेहू
देत चापु आपुहि चली गयऊ, परसुराम मन बिसमय भयऊ


रामजी ने इस प्रकार एक महान ऋषि परशुराम का आदर सम्मान बनाये रख, हिंदू संस्कृति की मर्यादा का मान बनाये रखा. इसी लिये आज भी सभी राम भक्त रामजी को मर्यादा पुरषोत्तम के नाम से जानते हैं. परशुराम जी को उन्हीं राम की महिमा का ज्ञान हो गया, तुलसी बाबा कह उठे;

जाना राम प्रभाउ तब, पुलक प्रफुल्लित गात
ज़ोरि पानि बोले बचन, हृदय न प्रेम समात


इसके बाद परशुराम जी दोनों भाईयों से क्षमा याचना करने लगे:

अनुचित बहुत कहहूँ अग्याता, छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता

कहा जाता है कि, द्वापर युग में भी परशुराम विद्यमान थे और द्रोण तथा कर्ण जैसे वीरों के गुरु बन, उन्हें धनुर्विद्या सिखाई. ऐसे भगवान परशुराम को मेरा कोटि कोटि प्रणाम!!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *