रामजी का निराकार – ब्रह्म स्वरूप
रामजी का सौम्य चरित्र सामने आते ही एक ऐसा पात्र सामने आता है, जो हम सबके परिवार का हिस्सा है. यह स्वरूप भाइयों के साथ खेलता और आखेट करता है. माता पिता की सेवा करता है. ऋषियों के आश्रम जा जाकर उनके हर विघ्न को हर लेता है. एक जीता जागता महापुरुष जो पूर्ण रूप से साकार है. सीता जी को जनक वाटिका में पहली बार देख, एक युवक की भाँति लजा जाता है. एक ऐसा साकार रूप, जो हम सबके समान, खाता, देखता और सोता है. जीवन के सब छोटे बड़े काम एक साधारण पुरुष की तरह करता है. यही कारण था, कि ऐसे चरित्र को देख पार्वती जी को भी संदेह हो गया था, कि पत्नी विरह में मारा मारा घूम रहा यह पुरुष, ब्रह्म कैसे हो सकता है? ऐसे में शिव भोले तरह तरह के तर्क देकर पार्वती जी के संदेह को दूर करते हैं. और इसे दूर करते करते पूरी रामायण की कथा कही जाती है.
जहाँ पूरी रामचरित मानस रामजी के साकार चरित्र चित्रण से भरी पड़ी है, वहीं बीच बीच में उनके निराकार ब्रह्म स्वरूप की भी भरपूर चर्चा है. बालकांड में भगवान शिव पार्वती के संदेह को दूर करते हुए स्पष्ट कहते हैं:
तजु संसय भजु राम पद, अस निज हृदय बिचारि
भ्रम तम रबि कर बचन मम, सुनु गिरिराज कुमारि
सगुनहि अगुनहि नहि कछु भेदा, गावहि मुनि पुरान बुध बेदा
अगुन अरूप अलख अज जोई, भगत प्रेम बस सगुन सो होई||
हे गिरजा, हर प्रकार का संशय त्याग रामजी का सुमिरन करो. सगुण राम में अथवा निर्गुण राम में कोई अंतर नहीं है. जो सर्व व्यापी निराकार ब्रह्म है, वही विश्व का नियंता है. वही इस संसार के कण कण में व्याप्त है, ऐसा ब्रह्म जिसका कोई रूप और आकार नहीं है, वही भगवान, भक्तों के प्रेम के अधीन हो, सगुण रूप से, राम अवतार रूप में प्रगट हो जाता है. इसी बात को और स्पष्ट करते हुए तुलसी बाबा आगे कहते हैं:
जो गुन रहित, सगुन सोह कैसे, जल हिम उपल बिलग नहि जैसे
जिस ब्रह्म को वेद पुराणों ने गुण रहित कहा है, वह सगुण कैसे हो सकता है? इसका उत्तर केवल यही है कि, जैसे जल और हिम (बर्फ) अलग होते हुए भी अलग नहीं हैं. दोनों का आरंभ भी जल है, और दोनों का अंत भी जल ही है.
भगवान शिव एक और सुंदर उदाहरण देते हैं:
जो सपने सिर काटे कोई, बिनु जागे न दूर दुख होई
यह साकार और निराकार का भेद ऐसा है, जैसे स्वप्न अवस्था और जागृत अवस्था का है. अगर कोई स्वप्न में किसी का सिर काट ले, और काटने के बाद पश्चाताप में रोने लगे. तो उसका वह दुख तब तक दूर नहीं होगा, जब तक वह जागने के बाद यह महसूस न करले कि, वह सब तो सपने का झूठ था, मात्र एक भ्रम. भगवान शिव आगे कहते हैं, हे पार्वती, जिसकी कृपा से यह भ्रम दूर हो जाता है, वही मेरे आराध्य श्री राम हैं:
जासु कृपा अस भ्रम मिटि जाई, गिरिजा सोई कृपाल रघुराई
उसके बाद आशुतोष शिव भक्तों के लिए उस रामजी के निराकार ब्रह्म स्वरूप का बहुत सुंदर चित्रण निम्न चौपाइयों में करते हैं:
बिनु पद चलइ सुनि बिनु काना, कर बिनु करम करइ बिधि नाना
आनन रहित सकल रस भोगी, बिनु बानी बकता बड़ जोगी
तन बिनु परस नयन बिनु देखा, ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा
असि सब भाँति अलौकिक करनी, महिमा जासु जाइ नहि बरनी
जेहि इमि गावहि बेद बुध, जाहि धरहि मुनि ध्यान
सोइ दसरथ सुत भगत हित, कोसलपति भगवान
दशरथ नंदन, भक्तों के परम आराध्य कोसलपति भगवान राम का निराकार रूप कैसा है?
वह बिना पाँव होते, मीलों चल लेते हैं.
वह बिना कान होते, सबकी पुकार सहज सुन लेते हैं.
वह बिना हाथ के, इस संसार के सब काम कर लेते हैं.
बिना मुँह के होते, भक्त का दिया, हर स्वादिष्ट भोग खा लेते हैं.
वह बिना जिह्वा के होते, एक योग्य वक्ता हैं.
जिनकी ऐसी अलौकिक करनी है, जिनकी महिमा आसानी से गाई नहीं जा सकती, वही मेरे परम आराध्य राम हैं.
ऐसे ही रामजी सभी की अन्तरात्मा में निराकार रूप में बिराजते हैं. वहीं बैठ वह भक्त के हृदय को पवित्र बना देते हैं. वहीं बैठ वह भक्त की बुद्धि को उचित दिशा ज्ञान देते हैं. उसमें अपने सभी सदगुण, जैसे परोपकार, दया, प्रेम, सहृदयता, श्रद्धा विश्वास आदि भर कर भक्त के हृदय को निर्मल बना देते हैं. सुंदरकांड के आरम्भ में गोस्वामी तुलसी दास ऐसे ही अन्तर्यामी प्रभु की आराधना करते हुए कहते हैं:
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥
हे प्रभु राम मैं आपको, जो मेरे हृदय में बिराजमान हैं, साक्षी बना कर , सत्य कहता हूँ, की मुझे आपकी केवल भक्ति की कामना शेष रह गई है. मेरे मन में बाक़ी सभी कामनाएँ समाप्त हो गई हैं. कृपया आप मुझे अपनी भक्ति का वरदान दे बाक़ी सभी सांसारिक इच्छाओं से मुक्त कर दीजिए. मेरे मन को कामादि दोषों से रहित कर दीजिए.
इसी बात को उत्तरकांड में काकभुशुण्डी जी ने भी पक्षिराज गरुड़ को राम कथा सुनाते हुए दोहराया है. उस कथा में रामजी के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला कि, किसी भी रूप में राम का सुमिरन होना चाहिए. कई जन्मों के अनुभव के बाद, काकभुशुण्डी केवल यही कह पाये:
निज अनुभव मैं क़हहुँ खगेसा, बिनु हरि भजन नहि जाहि कलेसा
मेरा अनुभव केवल इतना है की, चाहे साकार रूप या निराकार रूप में, रामजी के सुमिरन और कृपा के बिना कोई भी प्राणी संसार के क्लेशों से मुक्त नहीं हो सकता. जब तक राम कृपा की वर्षा नहीं होती, तब तक कलिमल की धूल निश्चित रूप से धुल नहीं सकती. रामजी का साकार रूप तो प्रिय है ही, उनके ब्रह्म स्वरूप को भी मेरी कोटि कोटि नमन!!!
Rajendra Kapil
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