रामजी हनुमानजी से कैसे मिले?
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रामजी का नाम लेते ही एक और रामायण का पात्र सहज ही सामने आ जाता है, और वे हैं हनुमान जी. रामजी और हनुमान जी ऐसे ही हैं जैसे दूध में चीनी.
हनुमान जी के स्वभाव में रामजी की सरलता की मिठास है. इन दोनों का संबंध अनन्य है. प्रश्न यह है हनुमान जी रामजी को कब और कहाँ मिले? रामचरितमानस मानस में हनुमान जी का पदार्पण किष्किन्धा कांड में होता है. उस समय वे महाराज सुग्रीव के प्रमुख सहायक थे, और सुग्रीव अपने भाई बाली के भय से ऋषयमूक पर्वत पर छिप कर बैठा था. उसी समय रामजी अपने भाई लक्ष्मण के साथ सीता खोज में उधर से गुजर रहे थे. बाली को डर लगा कि कहीं कोई बाली का भेजा कोई दुश्मन न हो. उन्होंने हनुमान जी को ब्राह्मण वेश में जाकर असलियत का पता करने को कहा. हनुमान जी राम लखन के पास जा कर बोले:
को तुम स्यामल गौर सरीरा
छत्री रूप फिरहू बन बीरा II
की तुम्ह तीन देव में कोउ
नर नारायण की तुम दोउ II
अर्थात्- हे श्याम एवं गौर रंग के राज कुमारो आप कौन हैं? यहाँ वन में छत्री रूप में किसे खोज रहे हैं. आपके दिव्य रूप को देख, मनमें एक प्रश्न आ रह है, की कहीं आप तीन देवों ( ब्रह्मा, विष्णु महेश) में से कोई एक तो नहीं?
हनुमान जी अब तक रामजी को पहचानते नहीं थे. लेकिन प्रथम दर्शन में ही उनका दिव्य रूप देख वे अत्यधिक प्रभावित हो गये. मन ही मन अनेकों प्रश्नों की झड़ी लग गई. फिर उनके हृदय में एक और प्रश्न जन्मा-
जग कारण तारण, भव भंजन धरणी भार
कि तुम्ह अखिलपति, लीनह मनुज अवतार II
अर्थात्- कहीं आप जगत के मूल कारण तो नही? कहीं आप इस जगत के स्वामी तो नहीं? जिन्होंने इस धरती के कष्ट निवारण के लिए मनुज अवतार ले लिया हो?
रामजी ने अब तक हनुमान को पहचान लिया था. लेकिन फिर भी एक साधारण सा उत्तर दिया. हे ब्राह्मण हम महराज दशरथ के बेटे हैं, उन्हीं की आज्ञा से वनवास में घूम रहे हैं. हमारे साथ में पत्नी सीता भी थी, उसे किसी असुर ने अपहरण कर लिया है. उसी की खोज में निकले ही हैं. इतना सुनना था की हनुमान जी ने रामजी को पहचान लिया. और तुरंत रामजी के चरणों में गिर पड़े.
प्रभु पहिचानी परेऊ गही चरना
सो सुख उमा जाई नहीं बरना II
बहुत ही भावुक दृश्य उत्पन्न ही गया. शंकर महाराज जो पार्वती को यह कथा सुना रहे थे, वे भी भावुक ही बोल उठे, उमा इस अद्भुत प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता.
जब हनुमान जी ज़रा संभले, तो अपने सहज वानर रूप में आ गए, और शिकायत करने लगे:
मोर न्याऊ मैं पूछा साई
तुम पुछूहूँ कस नर की न्याई II
– मैं तो साधारण वानर ठहरा, मेरा पूछना तो न्याय संगत है. लेकिन आप एक साधारण मानस की तरह कैसे पूँछ सकते हैं? फिर वे अपने ही आप को दोष देने लगते हैं:
तव माया बस फिरऊ भुलाना
ताते मैं नहीं प्रभु पहिचाना II
मैं अज्ञानी आपकी माया के बस भटक रहा था, इसी लिये आपको पहचान भी नहीं पाया. ऊपर से मैं एक मातिमंद एवं अधम जाति का एक मामूली सा वानर. यह सब मैं कैसे पहचान सकता हुँ.
हनुमान जी की इस दशा को देख रामजी ने हनुमान को हृदय से लगा लिया. और पास बिठा कर उसके प्रेम की सराहना करने लगे. भक्त के प्रति प्रभु का प्रेम कितना अपार है, देखिए रामजी ने सराहना में यहाँ तक कह दिया:
सुनु कपि जिय मानसी जनि ऊना
तुम मम प्रिय लछमन ते दूना II
हे कपिराज अब मेरे मन की बात्त सुनो.
तुम मुझे प्रिय भाई लक्ष्मण से भी अधिक प्रिय हो.
ऐसा मधुर था रामजी एवं हनुमान जी की पहला मिलन. जो आगे चल कर उनके हर कदम पर साथ साथ रहा. और आज रामजी और हनुमान जी एक दूसरे के पर्याय हैं.