राम का विजयी रथ

राम का विजयी रथ

By: Rajendra Kapil


रावण एक अद्भुत योद्धा था. उसमें तप बल था. उसमें भुज बल था. उसमें ब्रह्मा के दिये वरदान का बल था. इस सब ने उसे अजेय बना दिया था. इसी बल ने उसे महा अहंकारी राक्षस राज बना दिया था, जिसके चलते वह विश्व में किसी को भी अपने बराबर नहीं समझता था | इसी अहंकार में चूर उसे लगने लगा था हर सुंदर चीज़, चाहे वह वस्तु हो या कोई स्त्री, पहले उसे ही मिलनी चाहिए | इसीलिए वह सीता के स्वयंवर में जा पहुँचा, और आशा करने लगा कि सीता को उसे ही पति चुनना चाहिए. जब शिव धनुष पर उसका बल नहीं चला तो, बाद में उसने  माँ सीता का छल से  अपहरण कर लिया |

रामजी ने सुग्रीव और हनुमान की सहायता से माँ सीता  को खोज निकाला और  रावण से प्रार्थना
की, वह बिना युद्ध के माँ सीता को लौटा दे. लेकिन रावण ने एक नहीं मानी |  ऐसे में युद्ध निश्चित हो गया | शुरू में उस युद्ध में रावण के परिवार के सभी प्रमुख योद्धा, कुंभकर्ण और मेघनाद आदि, मारे गए. अब बारी थी, राम रावण के युद्ध की.  रावण अपने सेन्य बल में चूर एक बड़े से रथ में सवार हो राम को ललकारने निकल पड़ा. विभीषण जोकि रामजी के साथ खड़ा था, जब उसने महा बलशाली रावण को रथ पर सवार देखा, तो चिंतित हो उठा: रावण रथी विरथ रघुबीरा,  देखी बिभीषण भयऊ अधीरा स्नेहपूर्वक रामजी से बोला-
नाथ न रथ नहि तन पद त्राना, केहि बिधि जितब वीर बलवाना महाराज आप धरती पर, और रावण रथ पर, उसके पास अनेकों अस्त्र शस्त्र हैं, और आप केवल धनुष बाण लिये हुए, ऐसे में आप इस वीर महाबली रावण पर कैसे विजय प्राप्त करेंगे? विभीषण की यह चिंता देख, रामजी ने उसे समझाया कि उनके पास भी एक विजयी रथ है. रामजी अपने प्रिय मित्र को उस विजयी रथ की रूप रचना समझाने लगे: सुनहु सखा कहा कृपा निधाना, जेही जय होई सो स्यंदन आना हे मित्र, जिस रथ पर चढ़ कर विजय प्राप्त होती है, वह इस प्रकार का होता है. सौरज धीरज तेहि रथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका बल विवेक दम परहित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे धीरज और शौर्य इस विजय रथ के पहिये हैं. सत्य और सदाचार (शील) उसकी मज़बूत पताकाएँ हैं | बल विवेक इंद्रिय संयम और परोपकार इस रथ के चार घोड़े हैं, जोकि क्षमा और दया रूपी रस्सी से इन घोड़ों को  बांधे हुए हैं |

फिर रामजी रथ की संरचना को और भी विस्तार से बताते हैं: ईस भजनूँ सारथी सुजाना,  बिरती चर्म संतोष कृपाना दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा,  बर विग्यान कठिन कोदंडा ईश्वर का भजन इस रथ का चतुर सारथी है. वैराग्य ढाल है. और संतोष इसकी धारदार तलवार है. दान इसका फरसा है. सात्विक बुद्धि इसकी प्रचंड शक्ति है. तुलसी बाबा ने इस रथ की बड़ी गहराई से व्याख्या प्रतुस्त की है. रामजी का रथ था और वो भी रावण जैसे महा योद्धा के समक्ष खड़े हो कर युद्ध करना था.ऐसे रथ में हर प्रकार के गुण एवं अस्त्र शस्त्र तो होने ही चाहिए |

तुलसी बाबा ने आगे लिखा:
अमल अचल मन त्रोन समाना, सम जम नियम सिलीमुख नाना
कवच अभेद विप्र गुर पूजा,  एही सम विजय उपाय न दूजा निर्मल और स्थिर मन इस रथ में रखे हुए तरकश हैं. दृढ़ एवं संयमित मन और युद्ध के
नियम इस तरकश में रखे बाण हैं. ब्राह्मणों और गुरुओं की पूजन से मिला आशीर्वाद  मेरा अभेद्य कवच है. जिसके पास यह सब विद्यमान हो, उसकी विजय में किसी प्रकार की शंका की
आवश्यकता नहीं. और फिर विभीषण को आश्वासन देते हुए रामजी बोले:
महा अजय संसार रिपु,  जीति सकई सो बीर
जाके अस रथ होई दृढ़, सुनहु सखा मतिधीर
हे मेरे परम सखा विभीषण, जिसके पास ऐसा दृढ़ रथ होता है, वह वीर पुरुष किसी भी दुर्जय शत्रु
को जीत सकता है. फिर रावण की तो बात ही क्या?
यह कह रामजी रावण पर बाणों की वर्षा कर देते हैं. उसके हर अस्त्र शस्त्र को अपने बाणों से
ध्वस्त कर देते हैं. रावण अपने ही रथ पर मूर्छित हो गिर जाता है. और उसका सारथी उसे
महल में उपचार के लिए लौटा लाता है. जब रावण की मूर्च्छा समाप्त होती है, तो उसे बड़ी
ग्लानि होती है. अगले दिन फिर घमासान युद्ध होता है, और दिन के अंत में रामजी उस पर
इकतीस बाण एक साथ छोड़ उसका अंत कर देते हैं:
खेंचि सरासन श्रवन लगि, छोड़े सर इकतीस
रघुनायक सायक चले, मानहु काल फ़नीस
रामजी के बाण ऐसे चले मानो काल सर्प हों, दस बाणों ने रावण के दस सिर बेध दिये.
बीस बाणों ने रावण की बीस भुजाएँ उखाड़ फेंकी और अंतिम एक बाण ने रावण की नाभि में
स्थित अमृत कलश को सोख लिया, और इस प्रकार महा बलि रावण धराशायी हो गिर पड़ा. जब
मंदोदरी को रावण की मृत्यु का पता चला तो वह युद्धस्थल पर पहुँची और गिरे हुए पति को
देख विलाप करने लगी:
जगत विदित तुम्हारि प्रभुताई, सुत परिजन बल बरनी न जाई
राम विमुख अस हाल तुम्हारा, रहा न कोउ कुल रोवन हारा

तुम्हारी प्रभुता जगत प्रसिद्ध थी. इतनी समृद्धि और बड़ा परिवार था. लेकिन राम के विरुद्ध
जाने का परिणाम यह हुआ है कि तुम्हारी मृत्यु पर कोई रोने वाला भी नहीं बचा है.
इस सबके बाद भी रामजी ने रावण को अपना मोक्ष धाम प्रदान किया,  ऐसे कृपालु एवं दयाशील
प्रभु को सिमरन कर तुलसी बाबा ने लिखा:
अहह नाथ रघुनाथ सम, कृपा सिंधु नहि आन
जोगी वृंद दुर्लभ गति , तेहि दीन्ह भगवान
ऐसे परम कृपालु रामजी को, जोकि शत्रुओं पर भी अपनी कृपा बरसाते हैं,  मेरा कोटि कोटि
प्रणाम!!!!