November 21, 2024
राम जन्म का एक और कारण – नारद श्राप
Dharam Karam

राम जन्म का एक और कारण – नारद श्राप

रामचरित मानस में
रामजन्म के कई कारणों का वर्णन है. एक कारण रावण जैसे अजेय राक्षस का वध था. एक
कारण था, मनु और शतरूपा की कठिन तपस्या. तपस्या के अंत में जब प्रभु मनु और शतरूपा
के सामने प्रगट हुए, उन्होंने प्रभु से, प्रभु जैसा पुत्र पाने का वरदान माँगा.

By: Rajendra Kapil


प्रभु ने कहा मैं अपने जैसा पुत्र कहाँ से लाऊँ?  मेरा जैसा दूसरा तो कोई है ही नहीं. लेकिन आपको निराश नहीं करूँगा, और जब आप अगले जन्म में दशरथ और कौशल्या के रूप में जन्म लोगे, तब मैं आपके घर में राम के रूप में जन्म लूँगा. ऐसी ही एक कथा मानस में और है, जहां देवऋषि नारद, प्रभु से नाराज हो कर उन्हें नारी विरह में तड़पने का श्राप दे डालते हैं, और प्रभु भक्त के हित के लिए, उसे शिरोधार्य कर अपना कर्तव्य निभाते हैं.

नारद श्राप दीन्ह एक बारा,
कलप एक तेही लगि अवतारा
कथा कुछ यूँ है:  एक बार नारदजी वन में घूम रहे थे. वहाँ उन्हें एक एक शांत एवं सुंदर आश्रम दिखाई पड़ा. उनका मन हुआ कि इस आश्रम में बैठ सिमरन किया जाये. बस फिर क्या, उन्होंने वहीं डेरा डाल लिया और प्रभु सिमरन करने लगे. सिमरन करते करते उनकी समाधि लग गई. कुछ दिन योहीं बीत गए. जब देवराज इंद्र को उनकी समाधि का पता चला, तो इंद्र कुछ घबरा से गए. देवता हमेशा से बड़े स्वार्थी रहे हैं, जब भी उनको लगता है कि कोई अध्यात्म में उनसे आगे निकल रहा है, तो वह उसमें बाधा पहुँचाने से नहीं चूकते.

मुनि गति देख सुरेस डेराना, 
कामहि बोलि कीन्ह सनमाना
देवराज इंद्र ने कामदेव को बुलवाया और उनसे प्रार्थना की, कि जाओ और नारद मुनि के आस पास, काम जाल बिछा दो, ताकि उसे देख उनकी समाधि में भंग पड़ जाये. कामदेव ने बड़े उपाय किए, लेकिन:

काम कला कछु मुनिहि न व्यापी,
निज भय डरेऊ मनोभव पापी
कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर पाई, तो कामदेव बहुत डर गया. उसे अपने विनाश की शंका होने लगी. जब नारद मुनि की समाधि टूटी, तो उन्होंने कामदेव के मायाजाल को देखा. लेकिन उसे देख क्रोधित नहीं हुए, बल्कि कामदेव को प्रिय वचन बोल, विदा किया:
भयऊ न नारद मन कछु रोषा,
कहि प्रिय वचन काम परितोषा
कामदेव ने जाकर इंद्र को सारी कथा सुनाई. इंद्र को उसका विफल प्रयास अच्छा नहीं लगा. इधर नारदजी के मन में एक अहंकार भरी सोच ने जन्म ले लिया. अरे, मैंने तो कामदेव को जीत लिया है, और इसी विचार धारा में डूबे नारद जी शिव लोक जा पहुँचे. शिवजी को अपनी यह
काम विजय गाथा सुनाने लगे:

मार चरित संकरहि सुनाए, अति प्रिय जानि महेस सिखाए बार बार बिनवऊँ मुनि तोहि, जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं तिमि जनि हरि सुनायऊँ कबहुँ, चलेऊ प्रसंग दुरायऊँ तबहुँ
शंकर जी ने जब यह सब सुना, तो नारदजी को अपना प्रिय भक्त जान समझाया, कि आपने जैसे यह कथा मुझे सुनाई है, वैसे हरि (विष्णु) को बिल्कुल मत सुनाना. और अगर हरि गलती से यह प्रसंग छेड़ भी दें, तो भी इसको सुनाने के लिये टाल मटोल कर देना. तुलसी बाबा आगे लिखते हैं, नियति को कौन टाल सकता था? अहंकार का डमरू  नारद जी के मन मस्तिष्क में बड़ी ऊँची आवाज में बज रहा था. घूमते घूमते एक दिन नारदजी विष्णु लोक  जा पहुँचे.  प्रभु ने आसन दिया, आदर सत्कार किया, और हाल चाल पूछा. फिर क्या था, नारद जी लगे  अपनी  काम विजय की कथा बघारने:

काम चरित नारद सब भाषे,
जद्यपि प्रथम बरजि सिव राखे
अति प्रचंड रघुपति की माया,
जेही न मोहि अस को जग जाया
शिवजी के मना करने पर भी अपनी काम विजय की गाथा गाने लगे. तुलसी बाबा लिखते हैं, कि रघुपति की माया बड़ी प्रबल है. ऐसा कोई विरला ही जन्मा है, जो इससे बच पाया हो. प्रभु ने देखा, भक्त के मन में  अहंकार का तरुवर उपज गया है.  इसे जल्द ही उखाड़ फेंकना होगा:

करुणानिधि मन दीख बिचारी,
उर अंकुरेऊ गरब तरु भारी
बेगि सो मैं डारिहऊं उखारी,
पन हमार सेवक हितकारी
मैंने अगर इस अहंकार तरूवर को जल्दी नहीं निकाला, तो मेरे भक्त नारद की बड़ी हानि होगी. तभी प्रभु ने सौ योजन लंबा एक नगर रचा. नगर वैकुण्ठ से भी अधिक सुंदर था. उस नगर में एक शीलनिधि नामक राजा बनाया. राजा की एक बहुत ही खूबसूरत कन्या बनाई, जोकि विवाह योग्य थी. जैसे ही नारदजी राजा से मिले, राजा ने पूछा, महाराज बताइए, इस कन्या को कैसा राजकुमार मिलेगा? नारदजी ने कन्या का हाथ देखा, और बताया, कि जो भी इसे ब्याहेगा, वह अति सुंदर एवं एक अमर व्यक्ति होगा. राजा प्रसन्न हुआ, और बोला कुछ ही दिन में इसका स्वयंवर होने वाला है. और जिस किसी सुंदर राजकुमार को ये पसंद करेगी, उसी के साथ मैं इसका विवाह कर दूँगा. नारदजी इस कन्या के सौंदर्य पर मोहित हो गये. और अपना सब वैराग्य भूल गए, और पूरे काम भाव से इस कन्या की पत्नी रूप में कामना करने लगे. लेकिन चूँकि उन्हें अपनी सुंदरता के बारे में ज्ञान था. उन्होंने सोचा हरि से प्रार्थना करते हैं, थोड़ी सुंदरता और मिल जाये तो  वह भी स्वयंवर में जाकर सुंदरी का ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करेंगे. घर जाकर नारदजी, लगे हरि से प्रार्थना करने. नारद की प्रार्थना सुन प्रभु प्रगट हुए, और बोले:

जेहि  बिधि होहहि परम हित नारद सुनहू तुम्हार
सोई हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार
प्रभु बोले जिसमें तुम्हारा परमहित होगा, मैं वही करूँगा. लेकिन  नारदजी, जोकि विवाह की सोच में इतने डूबे थे, कि प्रभु की गूढ़ बात को समझ नहीं पाए:

माया  बिबस  भए  मुनि मूढ़ा,
समुझी नहि हरि गिरा निगूढ़ा
इसके बाद प्रभु  ने नारदजी को एक कुरूप बंदर का रूप प्रदान कर दिया. स्वयंवर वाले दिन नारद जी भी सभा में जाकर बैठ गए. स्वयं प्रभु भी एक अति सुंदर राजकुमार बन वहाँ जा बैठे. जब राजकुमारी वरमाला ले कर निरीक्षण के लिए निकली, तो नारदजी उचक उचक कर उसका ध्यान आकर्षित करने लगे, लेकिन राज कुमारी उनके सामने से निकल गई, और आगे बैठे प्रभु के गले में वरमाला डाल दी. इतने पर नारदजी बड़े क्रोधित हो उठे. और बड़बड़ाते हुए बाहर की ओर लपके. पास खड़े शिव के दो गणों ने नारद जी से कहा, वह जाकर अपना मुँह किसी जलाशय मैं देखें. नारदजी ने जब वहाँ पहुँच अपना रूप देखा तो और भी आग बबूला हो गए.  उन्हें प्रभु पर बड़ा क्रोध आया. लौट कर आये तो देखा, न वहाँ कोई नगर था. न ही कोई स्वयंवर. और आगे प्रभु उसी राजकुमारी के साथ जा रहे थे. नारदजी लगे, प्रभु को भला बुरा कहने:

परम स्वतंत्र न सिर पर कोई,
भावई मनहि करहू तुम सोई
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा,
अब लगि तुम्हहि न काहू साधा
कपि आकृति तुम्ह कीन्ह हमारी,
करिहहि कीस सहाय तुम्हारी
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी,
नारि विरह तुम होब दुखारी
तुम बहुत आजाद हो गए हो. तुम्हें कोई पूछने वाला नहीं है. तुम्हारे मन में जो आये, अच्छा बुरा, वोह सब तुम अपनी मनमानी से करने लगे हो. तुम्हें अब तक किसी ने सीधा नहीं किया. तुमने मेरी आकृति एक बंदर सी बना दी, देखना एक दिन इन्ही बंदरों की सहायता की तुम्हें जरूरत आन पड़ेगी. नारी प्रेम के कारण आपने आज मेरा बहुत ही अपमान करवाया. देखना एक दिन तुम्हें भी नारी विरह में ऐसे ही भटकना पड़ेगा, जैसे मैं भटक रहा हूँ. और इस प्रकार प्रभु ने नारद का श्राप, खुशी खुशी  सिर माथे ले लिया:

श्राप सीस धरि हरषि, हियँ, प्रभु बहु बिनती कीन्ह
निज माया कै प्रबलता, करशि कृपानिधि  लीन्हहि
इस प्रकार प्रभु ने राम अवतार में नारी विरह की लीला की और भक्त के श्राप का मान रखा. लेकिन जब नारदजी को असली ज्ञान हुआ तो उन्हें बहुत बुरा लगा, वह रामजी के चरणों में गिर, प्रार्थना करने लगे. हे नाथ कुछ ऐसा कीजिए, कि मेरा श्राप झूठा हो जाये:

मृषा होई मम श्राप कृपाला,
मम इच्छा कह दीन दयाला.
प्रभु ने नारद को समझाया और अपना विरद बताया, कि वह केवल भक्तों के लिये जीते हैं:

बहुबिधी मुनिहि प्रबोधि, प्रभु तब भए अंतरधान
सत्यलोक नारद चले, करत राम गुन गान
ऐसे कृपालु रामजी को मेरा सादर नमन!!!!!