
श्रद्धा का मानवीय जीवन में विशेष महत्व है। जानिए कैसे
वाराणसी के एक गाँव में माँ के एक परम भक्त सुदर्शन जी निवास करते थे। माँ पे उनकी असीम आस्था थी। कोई भी मुश्किल आती थी तो कभी घबराते नहीं थे। कहते थे माँ सम्भाल लेगी।
एक दिन ब्रह्ममुहूर्त के समय वे गंगा जी में कमर तक डूबे जप कर रहे थे। तभी उधर से वहाँ के राजा का काफिला निकला। राजा ने विनोद में इनसे पूछा:
महाराज, आप कब से गंगा जी की तली को देखे जा रहे हैं; बताइए तो, गंगा जी की तली में क्या होगा ?
भगत ने बस कह ही दिया, गंगा जी की तली में ? … गंगा जी की तली में … खरगोश होगा और क्या !
राजा तो श्रद्धावश महाराज जी को कुछ दक्षिणा देने की सोच रहा था, उल्टी बात सुनकर वह सकपका गया और गुस्से में बोला
महाजाल डालो । वह गरजा.. तीन बार … अगर खरगोश निकले, तो महाराज का घर भर दो; न निकले, तो इस ऐंठ एवं धृष्टता का फल तो इन्हें चुकाना ही होगा।
एक-दो लोगों ने सुदर्शन जी को संकेत किया कि वे विवाद में न पड़ें और क्षमा माँग लें।
सुदर्शन जी अपने वक्तव्य से न हटे.. अब कह दिया, तो कह दिया। जाल डाला गया, कुछ न निकला। दूसरी बार जाल डाला गया, फिर कुछ नहीं निकला।
राजा ने क्रोधित दृष्टि से सुदर्शन जी को देखा, सुदर्शन जी के माथे पर शिकन तक न थी
अभी तीसरी बार बाकी है, भाई…, वे मुस्कुरा रहे थे।
क्रोध में जल रहे राजा ने आदेश दिया.. डालो जाल। डालो, एक आखिरी बार और… ।
जाल डाला गया। जाल बाहर निकला, तो सबों ने हैरत से देखा.. जाल में दो जीवित खरगोश थे।
भय से काँपता राजा सुदर्शन जी के चरणों में गिर गया.. आप सिद्ध पुरुष हैं। मुझ मूर्ख को माफ कर दो, महाराज।
वह अपने लोगों की तरफ घूमा.. गुरु जी के साथ जाओ। जो भी आदेश करें, वह व्यवस्था करके ही लौटना।
सुदर्शन जी मुस्कुराते हुए बोले.. तू हमारी व्यवस्था क्या करेगा ! हमारी व्यवस्था करने के लिये माँ हैं। तू अपनी राह जा, हम अपनी राह चले।
काशी की सँकरी गलियों में सुदर्शन जी अपने घर की ओर जा रहे थे कि उन्हें एक थप्पड़ लगा। वे अकचकाकर खड़े हो गये।
सामने एक अनिंद्य सुन्दरी किशोरी खड़ी थी.. तू जनम भर पागल ही रहेगा क्या रे!
वह हँसी और सुदर्शन जी मंत्रमुग्ध उसे देखते रह गये; कुछ और न सूझा तुझे कहने को ? .. खरगोश ही सूझा ! …
देख तो, चुनार के जंगल की कँटीली झाड़ियों में खरगोश ढूँढ़ते, पकड़ते मेरी चुन्नी तो फटी ही, हथेलियों से खून निकल आया। किशोरी ने अपनी दोनों रक्तस्नात हथेलियाँ उनके आगे कर दी।
सुदर्शन जी की आँखों से आँसुओं की धार बह निकली.. क्षमा कर दो, माँ। अपने इस मूर्ख, नालायक और उजड्ड पुत्र को क्षमा कर दो। और वे भगवती के चरणों पर गिर पड़े।
इस देह को तो संसार में ही रहना है लेकिन मन को संसार में नहीं रहना है । इसको संसार से छुड़ाइऐगा तभी हम साधना में ऊपर पहुंच सकते हैं अन्यथा वैसे के वैसे ही हैं । मामूली से मामूली बात से ही विचलित हो जाते हैं । आगे बढे ही नहीं हैं । मुक्ति इसी शरीर से होगी और भक्ति भी इसी शरीर से ही करनी है ।
जीवन की सफलता सिर्फ मानव तन पाने से ही नहीं है। जीवन सार्थक तभी होगा जब तक मानवता नहीं आ जाती , परहित की बात नहीं आ जाती , परोपकार की बात नहीं आती तो साधना का शुभारंभ ही नहीं हुआ है। अभी यात्रा शुरू ही नहीं हुई, यह यात्रा कठिन हैं पर यदि लक्ष्य सामने है तो कठिनाईयां आयेंगी ही उन्हें ही पार करना है ।
मानव जन्म अनमोल रे, माटी में ना रोल रे।
अब तो मिला है फिर नना मिलेगा, राम राम बोल रे।
माँ दुर्गा की पूजा का महत्व अत्यंत उच्च है। वह अपने भक्तों के प्रति अत्यधिक कृपालु हैं और उनकी सुरक्षा करती हैं। बच्चों की तरह देवी दुर्गा अपने भक्तों का ध्यान रखती हैं और उनकी रक्षा करती हैं। वे उनके जीवन से सभी बाधाओं, कठिनाइयों और संकटों को हटा देती हैं। उनकी कृपा से ही उनके भक्तों को जीवन की हर प्रकार की समस्याओं से मुक्ति मिलती है। इसीलिए माँ दुर्गा की पूजा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है।