गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, चौथा अध्याय

गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, चौथा अध्याय

By: Rajendra Kapil

चौथे अध्याय का आरम्भ दिव्य ज्ञान से होता है. भगवान कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि, जो ज्ञान मैं तुम्हें दे रहा हूँ, वह बहुत दिव्य है. इसी ज्ञान को मैंने सबसे पहले इस कल्प के आरम्भ में आदित्य नारायण सूर्य को दिया था. सूर्य ने इसे अपने बेटे मनु के साथ साझा किया. फिर मनु ने इसे अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को प्रदान किया. इस प्रकार यह रघुवंश में परम्परागत बँटता रहा. अब यह लगभग लुप्त सा हो गया था. अब मैं इसे तुम्हें सुना कर, इसे पुन: जीवंत करना चाहता हूँ.  

इस पर अर्जुन एक शंका प्रगट करते हैं, बोले आपका जन्म तो अभी इसी युग में हुआ है, तो आपने इसे कल्प के आरम्भ में सूर्य भगवान को कैसे बताया था?  इसके उत्तर में प्रभु बोले, तुम्हारी आयु सीमित है, लेकिन मैं एक अविनाशी ब्रह्म हूँ. मेरे और तुम्हारे इससे पहले कई जन्म हो चुके हैं. वह सब मुझे याद है, लेकिन तुम्हें याद नहीं.
इस पर भगवान कृष्ण ने एक बहुत बड़ा रहस्य अर्जुन के सामने रखा. रहस्य था, भगवान के जन्म का कारण:

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥

भावार्थ: हे भारत! जब भी और जहाँ भी धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है,
तब मैं अपने स्वरूप को प्रकट करता हूँ।

इस श्लोक में प्रभु सभी भक्तों के लिए यह स्पष्ट करते हैं कि, जब जब इस धरती पर धर्म विलुप्त होने लगता है.
अधर्म चारों ओर अराजकता फैलाने लगता है, तो मैं उस समयानुसार कोई न कोई वेश धारण कर इस धरती पर अवतरित होता हूँ. और ऐसे समय में मेरा काम होता है, धर्म की पुनर्स्थापना करना. इस उद्देश्य पूर्ति के लिए, मैं दुष्टों  का संहार करता हूँ. और सन्त लोगों को अपनी शरण में ले, उन्हें आश्रय देता हूँ. यही मैंने त्रेता युग में, राम का अवतार लेकर किया. यही मैंने सतयुग में प्रह्लाद की सुरक्षा के लिए नरसिंह अवतार लेकर किया. ऐसे और भी बहुत से युगों में, मैं अवतरित होता आया हूँ.

ज्ञानी लोग हर प्रकार के भय और राग से मुक्त हुए, मेरे इस अलौकिक रूप को पहचान, मुझ में समर्पित हो जाते हैं.वह मेरे लिए तप करते हैं. मेरे लिए हर कर्म  को करके , मुझे ही समर्पित कर देते हैं. और अंतकाल में मुझे प्राप्त कर लेते हैं. वह पूरे अनन्य भाव से मुझे भजते हैं, जो मुझे बहुत अच्छा लगता है. और मैं उनके इस अनन्य भाव को आत्मसात् कर उन्हें अपना लेता हूँ.

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ॥ (१३)
न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा ।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ (१४)

भावार्थ: प्रकृति के तीन गुणों (सत, रज, तम) के आधार पर कर्म को चार विभागों (ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में मेरे द्वारा रचा गया, इस प्रकार मानव समाज की कभी न बदलने
वाली व्यवस्था का कर्ता होने पर भी तू मुझे अकर्ता ही समझ।

कर्म के फल में मेरी आसक्ति न होने के कारण कर्म मेरे लिये बन्धन उत्पन्न नहीं कर पाते हैं, इस
प्रकार से जो मुझे जान लेता है, उस मनुष्य के कर्म भी उसके लिये कभी बन्धन उत्पन्न नही करते
हैं।

और एक बड़ी बात जो प्रभु यहाँ स्पष्ट करते हैं, वह यह कि, इस समाज में, जो जाति विभाजन तुम्हें दिखाई देता है, वह भी मेरा बनाया हुआ है. इसी के आधार पर, तुम इस समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र आदि भिन्न भिन्न लोग देखते हो. यह विभाजन मैंने इसलिए किया, ताकि हर कोई अपने अपने स्वभाव के अनुसार समाज को अपना बेस्ट दे सके. उनके स्वभाव के अनुसार, मैं उन्हें वैसे ही कर्म करने की प्रेरणा देता हूँ. और उसी कर्म स्वभाव से वह लोग समाज की सेवा करते हैं. यह विभाजन केवल और केवल करमों की शुद्धता के आधार पर निश्चित होता है.

ज्ञानी लोग वेदों और पुराणों के पठन पाठन से समाज को पढ़ाने का काम सम्भाल लेते हैं, इसलिए उन्हें ब्राह्मण कहा जाता है.  समाज की सुरक्षा के लिए, जो लोग शस्त्रों में निपुणता प्राप्त कर लेते हैं, उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है. वैश्य लोग समाज की व्यवस्था को बनाये रखने के लिए व्यापार आदि कार्य में व्यस्त हो जाते हैं. और शूद्र गण समाज के निम्न कामों को सम्भाल, समाज में एक संतुलन बनाए रखते हैं.  इनमें कोई छोटा बड़ा नहीं होता.
निम्न काम करने वालों का आदर सम्मान भी उतना ही होना चाहिए, जितना की किसी क्षत्रिय या वैश्य का होना चाहिए. इसे किसी और दृष्टि से कम कभी नहीं देखना चाहिए.

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे ।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते ॥ (२७)
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः ॥ (२८)

भावार्थ: कुछ मनुष्य सभी इन्द्रियों को वश में करके प्राण-वायु के कार्यों को मन के संयम द्वारा
आत्मा को जानने की इच्छा से आत्म-योग रूपी अग्नि में हवन करते हैं।
कुछ मनुष्य धन-सम्पत्ति के दान द्वारा, कुछ मनुष्य तपस्या द्वारा और कुछ मनुष्य अष्टांग योग के
अभ्यास द्वारा यज्ञ करते हैं, कुछ अन्य मनुष्य वेद-शास्त्रों का अध्यन करके ज्ञान में निपुण होकर
और कुछ मनुष्य कठिन व्रत धारण करके यज्ञ करते है।

इस दिव्य ज्ञान को प्राप्त करने के लिए, कुछ लोग कठोर साधना करते हैं, तो कुछ लोग पूजा ध्यान आदि में व्यस्त ही जाते हैं. कुछ अन्य लोग योगाभ्यास का सहारा लेते हैं. कुछ वेद पुराण आदि के अध्ययन में लग जाते हैं.
लेकिन सभी का लक्ष्य केवल एक ही होता है, और वह है, भगवद् प्राप्ति. प्रभु के साथ आत्मसात्.

प्रभु के चरणों में बैठ, उनकी अनुकम्पा की परम अनुभूति.
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः ॥ (३०)

भावार्थ: कुछ मनुष्य भोजन को कम करके प्राण-वायु को प्राण-वायु में ही हवन किया करते हैं, ये
सभी यज्ञ करने वाले यज्ञों का अर्थ जानने के कारण सभी पाप-कर्मों से मुक्त हो जाते हैं।

इसी प्रयास में कुछ लोग यज्ञ का रास्ता अपनाते हैं. यज्ञ में बहुत शक्ति होती है. यज्ञ की अग्नि में, भक्त के बहुत से पाप जल कर भस्म हो जाते हैं.  अग्नि में यह विशेषता होती है कि, वह हर अच्छी बुरी चीज़ को भस्म कर देती है. इसी तरह ज्ञान भी एक अग्नि समान है, जो भक्त के सभी पापों को भस्म कर उसे निखार कर, दिव्य बना देती है. इस प्रकार यह यज्ञ प्रक्रिया, करने वाले योगी को, दिव्य धाम की ओर ले चलती है.

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ (४०)

भावार्थ: जिस मनुष्य को शास्त्रों का ज्ञान नही है, शास्त्रों पर श्रद्धा नही है और शास्त्रों को शंका
की दृष्टि से देखता है वह मनुष्य निश्चित रूप से भ्रष्ट हो जाता है, इस प्रकार भ्रष्ट हुआ संशयग्रस्त
मनुष्य न तो इस जीवन में और न ही अगले जीवन में सुख को प्राप्त होता है।

साथ ही प्रभु चेतावनी भी देते हैं कि, जो पुरुष इस दिव्य ज्ञान को अनदेखा कर, भोग विलासों में रमे रहते हैं, वह इस मनुष्य जीवन का सही लाभ नहीं उठा पाते. उन्हें हमेशा शंकाएँ घेरे रहती है. ऐसे साधारण जन भोग विलासों के  लिप्त हुए, अधोगति को प्राप्त  होते हैं. उन्हें न तो इस लोक में और न ही परलोक में कोई सुख प्राप्त होता है.

इसलिए मेरी तुमसे यही सलाह है कि, तुम हर प्रकार का संशय त्याग दो.  अगर कोई दुविधा अभी भी है तो, उसे इस दिव्य ज्ञान अस्त्र से काट फेंको. पूर्णतया संशय रहित हो कर, एक नयी ऊर्जा से अपने आप को प्रेरित कर, अपने स्वाभाविक क्षत्रिय धर्म में उद्यत हो, युद्ध के लिए तत्पर हो जाओ.  बाक़ी सब मुझ पर छोड़ दो.  मन और कर्म की शुद्धता और स्पष्टता तुम्हें तुम्हारे गंतव्य तक अवश्मेव पहुँचा देगी. ऐसा मेरा विश्वास है. हमेशा यह भरोसा रखो कि, मैं सदा सदा तुम्हारे साथ खड़ा हूँ.   जय श्री कृष्णा!!!

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