गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से,  पाँचवा अध्याय

गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से,  पाँचवा अध्याय

By: Rajendra Kapil

इस अध्याय का मूल भाव है, कर्म संन्यास योग. इसमें भगवान कृष्ण ने ‘कर्म संन्यास योग’ को बड़े सुंदर ढंग से
परिभाषित किया है. अब तक अर्जुन को निष्काम कर्म में बारे में बहुत सारा ज्ञान प्राप्त हो चुका था. एक और प्रश्न
उसके मन में उभरा, कि ‘निष्काम कर्म’ और ‘कर्मों के संन्यास’ में से कौन सा मार्ग बेहतर है? इस अध्याय का
आरम्भ इसी प्रश्न के उत्तर से शुरू होता है. भगवान कृष्ण कहते हैं कि, कर्मों का संन्यास मार्ग और निष्काम कर्म की
डगर, दोनों, एक ही गंतव्य तक ले जाते हैं. लेकिन निष्काम कर्म का मार्ग सुगम होने के कारण अधिक अनुकरणीय
है. इसे जीवन में उतारना आसान है. इसमें एक समर्पण भाव है. आइये इन दोनों मार्गों को ज़रा अच्छी तरह से
समझनेका प्रयास करते हैं. 

कर्मों का संन्यास-     कर्मों के संन्यास का सीधा अर्थ है, कर्मों से संन्यास ले लेना. इसका मतलब यह है कि, जो भी
कर्म आप करो, उसे पूरी निष्ठा से कर, बाक़ी सब प्रभु पर छोड़ दो.  आप उस कर्म करने के निमित्त बने, लेकिन यह
मान कर चलो कि, किया प्रभु ने ही है. आप केवल उसका माध्यम बने. यानी कर्म करके उससे जो अहम भाव या
करतापन का बोध होता है, उसका परित्याग करना ही, कर्मों का संन्यास है. कर्म की उपलब्धि के बाद जो
अहंकार आ जाता है, उसका परित्याग करना, इसे कहते हैं ‘कर्म संन्यास योग’.  इसी भाव को भगवान कृष्ण
अलग अलग तर्कों से, अर्जुन को समझाने का प्रयास करते हैं.

निष्काम कर्म-   निष्काम कर्म में, कर्म करने वाले की पूरी निष्ठा एवं ईमानदारी होती है. लेकिन वह कर्म एक ऐसे
समत्व भाव से किया जाता है कि, उससे जो भी परिणाम निकले, सफलता अथवा असफलता, दोनों ही योगी को
समान रूप से स्वीकार्य होती है. वह जो दोनों ही स्थितियों में एक समान रहे, सदा प्रसन्न रहता है. उसमें कबीर
जैसी फक्कड़ता आ जाती थी. जो कहती थी:

कबिरा खड़ा बाज़ार में, सबकी माँगे ख़ैर
न काहू से दोस्ती,   और न काहू से बैर


गीता के दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण ने भी यही कहा है:

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)


भावार्थ: तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न
तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में तेरी आसक्ति भी न हो।

कर्म पर तेरा अधिकार है, फल पर नहीं.  तेरे कर्म को मैं स्वयं आँक कर, उचित फल दूँगा. फल की चिंता प्रभु पर
छोड़ दो, और उस परम पिता परमात्मा पर अटूट विश्वास रखो कि, वह तुम्हें उसका सही फल देगा, जो आपके लिए उस घड़ी में सर्वोत्तम होगा. ऐसी विचारधारा वाला योगी सदा प्रसन्न रहता है. यही निश्चिंतता, कबीर जैसे संतों में थी, इसीलिए कबीर आज भी याद किए जाते हैं. 

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्‌ ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ (१२)

भावार्थ: कर्मयोगी सभी कर्म के फलों का त्याग करके परम शान्ति को प्राप्त होता है और जो योग
में स्थित नही वह कर्मफ़ल को भोगने की इच्छा के कारण कर्म-फ़ल में आसक्त होकर बँध जाता है।
ऊपर के श्लोक में स्पष्ट है कि, जो निष्काम कर्म योगी करतापन का भाव त्याग कर, सारे कर्म को मुझे अर्पित कर
देता है, वह परम शांति को प्राप्त करता है. और जो ऐसा नहीं कर पाता, वह उन्हीं कर्मों के बंधनों में फँसा रहता
है. 

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ (१५)

भावार्थ: शरीर में स्थित परमात्मा न तो किसी के पापकर्म को और न ही किसी के पुण्य-कर्म को
ग्रहण करता है किन्तु जीवात्मा मोह से ग्रसित होने के कारण परमात्मा जीव के वास्तविक ज्ञान
को आच्छादित किये रहता है।

एक और बड़ी रहस्यमय बात, प्रभु ने यहाँ कही है. वह यह कि, परमात्मा किसी के बुरे कर्म (यानि पाप आदि को)
और किसी के अच्छे कर्म (यानि पुण्य आदि को) ग्रहण नहीं करता. प्रभु सदा केवल यही देखते हैं कि, भक्त के
अन्तर्मन में क्या चल रहा है. भक्त का भाव कितना शुद्ध है. तुलसी बाबा ने भगवान राम के मुख
से यहाँ तक कहलवा दिया:

निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा

भक्त कभी कभी क्रोध में आकर, शुद्ध भाव से, अगर कोई ग़लत कर्म कर भी देता है, तो भी प्रभु उसे शिरोधार्य कर
लेते हैं. रामायण का एक प्रसंग है, जिसमें ब्रह्म ऋषि नारद एक बार क्रोध कर, रामजी को श्राप दे डालते हैं, तो
भी प्रभु बिना नाराज़ हुए, नारद के श्राप को पूरा करने के लिए रामावतार में नरलीला कर, उसे पूरा करते हैं.
क्योंकि नारद की भावना शुद्ध थी, तो प्रभु ने उसके श्राप को कहा, तथास्तु!!!
समत्व भाव:- 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ (१९)


भावार्थ: तत्वज्ञानी मनुष्य का मन सम-भाव में स्थित रहता है, उसके द्वारा जन्म-मृत्यु के बन्धन रूपी संसार जीत लिया जाता है क्योंकि वह ब्रह्म के समान निर्दोष होता है और सदा परमात्मा में ही स्थित रहता हैं।

इस श्लोक में समत्व भाव को खुल कर समझाया गया है. सम भाव का सरल भाषा में अर्थ है, हर सुख दुख में एक
समान रहना. हर प्रकार के हानि लाभ में स्थिर रहना. सर्दी गर्मी में, रामजी को समर्पित रहना. एक साधारण
भक्त ऐसा नहीं कर पाता. वह दुख में दुखी तथा सुख में, सातवें आसमान पर उछल रहा होता है. परंतु ज्ञानी लोग
यह भली भाँति जानते हैं कि, सुख दुख दोनों ही अस्थायी हैं, टेम्पोरेरी हैं. आज हैं, लेकिन कल नहीं रहेंगे.
इसीलिए ज्ञानी जन सुख दुख दोनों प्रभु को सौंप, बड़ा निश्चिंत एवं आनंददायी जीवन जीते हैं. उन्हें प्रभु की
बनायी हर विधा पर पूरा भरोसा होता है. वह कभी अस्थिर नहीं होते. ऐसे स्थिर मन वाले योगी, जिन्होंने
अपनी इंद्रियों को वश कर, प्रभु को सब कुछ सौंपा होता है, वह प्रभु के सबसे निकट होते हैं. ऐसे भक्त, प्रभु को भी
अत्यंत प्रिय होते हैं. और प्रभु ऐसे भक्तों का योग क्षेम स्वयं वहन करने लगते हैं. इसीलिए गीता के अंतिम अध्याय
में, भगवान कृष्ण ने यह घोषणा कर दी:

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥


भावार्थ:  संपूर्ण धर्मों को अर्थात संपूर्ण कर्तव्य कर्मों को मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ
सर्वशक्तिमान, सर्वाधार परमेश्वर की ही शरण में आ जा। मैं तुझे संपूर्ण पापों से मुक्त
कर दूँगा, तू शोक मत करl
सब कर्तव्य कर्मों को, यथा योग्यता तथा यथा स्वभाव करके मुझे सौंप दो. मैं तुम्हें हर प्रकार के पाप से मुक्त कर
दूँगा, किसी प्रकार किसोच या चिंता मत करो. और इस प्रकार इस अध्याय के अंत में अर्जुन को यही याद करवाया
कि:

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्‌ ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥ (२९)

भावार्थ: ऎसा मुक्त पुरूष मुझे सभी यज्ञों और तपस्याओं को भोगने वाला, सभी लोकों और
देवताओं का परमेश्वर तथा सम्पूर्ण जीवों पर उपकार करने वाला परम-दयालु एवं हितैषी
जानकर परम-शान्ति को प्राप्त होता है।

हे अर्जुन, मेरा भक्त जब यज्ञ आदि पूजा अर्चना के माध्यम से, स्वार्थ रहित हो, निर्मल मन से, जब सब कुछ मुझे
समर्पित कर, मुझसे जुड़ता है तो, वह मुझे ही पाता है. मुझे पाकर ही उसका मन परम् शांति एवं संतोष का
अनुभव करता है. उसके मन प्राण में, मैं बस जाता हूँ, और वह दिन रात बस यही सुमिरन करता रहता है,
वासुदेवाय नम: वासुदेवाय नम: !!  सभी गीता प्रेमियों को शत शत नमन तथा जय श्री कृष्णा!!!!

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