दो मार्ग, एक सत्य: श्रीमद्भगवद्गीता और पावन रामायण की शिक्षाएँ

दो मार्ग, एक सत्य: श्रीमद्भगवद्गीता और पावन रामायण की शिक्षाएँ

By: Rajendra Kapil

भारत की आध्यात्मिक सभ्यता दो अमर ग्रंथों पर आधारित है—श्रीमद्भगवद्गीता और पावन रामायण। यद्यपि ये दोनों अलग-अलग काल, शैली और प्रसंग में रचे गए, फिर भी इनकी आत्मा एक है—कि मनुष्य यदि धर्म, साहस और भक्ति से जीवन जिए, तो वह स्वयं ईश्वर के समीप पहुँच सकता है। ये ग्रंथ केवल मंदिरों में पूजे जाने वाले शास्त्र नहीं हैं, बल्कि जीवन जीने की विधि हैं—हृदय और आत्मा की भाषा में लिखे गए दिव्य जीवनसूत्र।

श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म एक युद्धभूमि पर हुआ—पर यह युद्ध राष्ट्रों के बीच नहीं, बल्कि आत्मा और मन के बीच है। कुरुक्षेत्र के मैदान में अर्जुन मोह और द्वंद्व में फँस जाता है। अपने ही कुटुंबियों के विरुद्ध युद्ध करने का विचार उसे अंदर से तोड़ देता है। तभी भगवान श्रीकृष्ण प्रकट होते हैं—हथियार लेकर नहीं, बल्कि ज्ञान देकर। गीता में जो संवाद होता है, वह केवल अर्जुन के लिए नहीं, बल्कि प्रत्येक आत्मा के भीतर चल रहे संघर्ष के लिए है।
भगवान श्रीकृष्ण समझाते हैं कि जीवन कर्म का क्षेत्र है। हमें बिना फल की चिंता किए अपना कर्तव्य निभाना चाहिए। वे सिखाते हैं कि सच्चा योग वही है जहाँ हम अपने कार्यों को ईश्वर को अर्पण करके करें—न तो मोह से बंधें, न फल की आकांक्षा से।

इसके विपरीत, पावन रामायण एक संवाद नहीं, बल्कि जीवन का दिव्य उदाहरण है। इसमें भगवान श्रीराम केवल उपदेश नहीं देते, बल्कि हर भूमिका में जीकर दिखाते हैं—राजा, पुत्र, पति, भाई, योद्धा और तपस्वी।
उनका जीवन सुख-दुःख, त्याग और तपस्या की लंबी यात्रा है, जिसमें हर मोड़ पर उन्होंने धर्म को चुना—भले ही वह रास्ता कठिन क्यों न हो।

जब उन्हें राज्याभिषेक से ठीक पहले वनवास मिलता है, तो वे बिना कोई क्षोभ के उसे स्वीकार कर लेते हैं। जब सीता माता का हरण होता है, तो वे केवल पति नहीं, बल्कि एक धर्मप्राण योद्धा बनकर उनके उद्धार के लिए निकल पड़ते हैं। वे रावण से युद्ध घृणा से नहीं, बल्कि धर्म की रक्षा हेतु करते हैं। श्रीराम के कर्मों में त्याग है, मर्यादा है और जनकल्याण का भाव है।

भगवान श्रीकृष्ण की गीता जहाँ हमें धर्म का अर्थ बताती है, वहीं भगवान श्रीराम का जीवन हमें धर्म को जीकर दिखाता है।

दोनों ग्रंथों में कर्म का मर्म गूढ़ है। गीता में कर्मयोग की बात है—जहाँ निष्काम भाव से कर्म करने पर बल दिया गया है। रामायण में कर्म है—निज जीवन के माध्यम से समाज को दिशा देना, अपने सुख-दुख की परवाह किए बिना। भगवान श्रीराम का संपूर्ण जीवन ही एक कर्मयज्ञ है, जो उनके भीतर बसे कर्तव्यबोध और भक्ति का प्रमाण है।

एक और बिंदु जहाँ दोनों ग्रंथ एक होते हैं, वह है भक्ति। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—“मां एकं शरणं व्रज”, यानी सब कुछ त्याग कर केवल मेरी शरण में आ जाओ। रामायण में यह भक्ति का भाव हनुमान जी में प्रकट होता है, जो भगवान श्रीराम की सेवा में तन, मन और प्राण अर्पित कर देते हैं। दोनों ग्रंथों में ईश्वर से संबंध डर या औपचारिकता का नहीं, बल्कि प्यार और समर्पण का है।

यद्यपि शैली और वातावरण भिन्न हैं, फिर भी दोनों ग्रंथों की आत्मा एक है। दोनों यह स्वीकार करते हैं कि जीवन में संघर्ष, दुःख, मोह और अन्याय होंगे। गीता हमें सिखाती है कि इन सबके बीच बुद्धि और विवेक से खड़े रहो, कर्म करो। रामायण कहती है कि धैर्य, त्याग और सेवा से इन परिस्थितियों को स्वीकार कर लो और भगवान की इच्छा में अपनी इच्छा समर्पित कर दो।

आज के युग में, जब मनुष्य आधुनिकता की दौड़ में उलझ गया है, जब सत्य से अधिक शोर और दिखावे को महत्व दिया जा रहा है, तब श्रीमद्भगवद्गीता और पावन रामायण हमें आत्मा की ओर लौटने का मार्ग दिखाते हैं।

गीता हमें सिखाती है—कैसे सोचना है।
रामायण हमें सिखाती है—कैसे जीना है।

इन दोनों का मिलन ही जीवन को पूर्ण बनाता है।
क्योंकि अंततः, सबसे बड़ा युद्ध न बाहर है, न दूसरों से—वह तो भीतर है।
और सबसे बड़ी विजय—स्वयं पर ही होती है।

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