
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, चौहदवाँ अध्याय
By: Rajendra Kapil
अब हम इस गीता शृंखला के चौहदवें सोपान पर आ पहुँचे हैं. यह अध्याय हमें जीवन में उपस्थित गुणों एवं स्वभावों के बारे में विस्तृत जानकारी देता है. हममें से कुछ लोग बड़े सात्विक स्वभाव के होते हैं. कुछ और इस जगत के विषयों में उलझे, लालच जैसी कमज़ोरियों से घिरे होते हैं. ऐसे लोगों को राजसिक प्रवृति का कहा जाता है. शेष जन, अज्ञान एवं मोह के अंधकार में खोये रहते हैं. ऐसे प्राणियों को तामसिक श्रेणी में रखा गया है.
श्रीभगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानं मानमुत्तमम् ।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः ॥ (१)
इस अध्याय का आरम्भ भगवान कृष्ण की एक उदघोषणा से होता है. वह अर्जुन से कहते हैं कि, अब जो ज्ञान मैं तुम्हें बताने जा रहा हूँ, वह बड़ा रहस्यमयी है. इसे जान कर बहुत से सन्त मुनि जन, इस संसार से मुक्ति पा लेते हैं. वह ज्ञान निम्नलिखित श्लोकों में है-
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥ (३)
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ (४)
भावार्थ: हे भरतवंशी! मेरी यह आठ तत्वों वाली जड़ प्रकृति (जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार) ही समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली योनि (माता) है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूप में चेतन–रूपी बीज को स्थापित करता हूँ, इस जड़–चेतन के संयोग से ही सभी चर–अचर प्राणीयों का जन्म सम्भव होता है। हे कुन्तीपुत्र! समस्त योनियों जो भी शरीर धारण करने वाले प्राणी उत्पन्न होते हैं, उन सभी को धारण करने वाली ही जड़ प्रकृति ही माता है और मैं ही ब्रह्म (आत्मा) रूपी बीज को स्थापित करने वाला पिता हूँ।
इन श्लोकों का आशय यह है कि, मैं और मेरी यह माया सम्पन्न प्रकृति इस जगत को उत्पन्न करने वाले हैं. यह प्रकृति इस सृष्टि को धारण करती है. यह ब्रह्म स्वरूपा एक योनि की तरह, इस जगत को अपने गर्भ में धारण करती है. और मैं एक पिता की भाँति, इस चेतन जगत का, इस प्रकृति के गर्भ में, बीजारोपण कर देता हूँ. इस प्रकार इस जड़ चेतन सृष्टि का जन्म, हमारे संयोग से होता है. उसी से विभिन्न प्रकार के जीव इस धरती पर जन्म लेते हैं.
इन जीवित प्राणियों में तीन प्रकार के गुण अथवा स्वभाव होते हैं. पहला सत्व गुण, दूसरा रजस गुण तथा तीसरा तमो गुण. इन्ही गुणों के आधार पर जीवों के स्वभाव का निर्माण होता है. जिसमें जिस प्रकार के गुण का आधिक्य होता है, उसका स्वभाव भी उसी प्रकार का बनता जाता है. इन गुणों की परिभाषा क्या है?
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ (५)
तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् ।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ ॥ (६)
पहला सत्व गुण: यह एक योगी को सात्विक प्रकृति वाला बनाता है. उसमें ज्ञान पिपासा को बढ़ावा देता है. दया, सेवा भाव, प्राणी मात्र के लिए करुणा भाव, सभी की सहज रूप से सेवा करना. प्रभु के सिमरन में लगे रहना. प्रभु प्राप्ति के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना. यह सब सत्त्व गुण के लक्षण हैं. यह योगी को आध्यात्म के पथ पर ले जाते है.
दूसरा रजस अथवा रजो गुण: यह गुण योगी को संसार में प्रवृत करता है. ऐसा योगी सांसारिक कामों को अत्यधिक महत्व देता हुआ, उनसे लाभ की आशा लगाए रखता है. लाभ से लोभ बढ़ता है. लोभ से इस संसार के भौतिक सुखों की लालसा बढ़ती है. यह सांसारिक सुख, बहुत सी सांसारिक बेड़ियाँ डाल, योगी को बाँध लेते हैं. इन सांसारिक सुखों में उलझा योगी, प्रभु को भूल, इस मिथ्या संसार को ही सच मानने लगता है. और अपने हीरे जैसे जन्म को, कोड़ियों के भाव, गँवाने लगता है. उसके जीवन का उद्देश्य, केवल धन कमाना और विषयों को भोगना रह जाता है. इस प्रकार के योगी इस मायावी संसार को चलायमान रखने में सबसे अधिक सहायक होते हैं. इन्ही के लिए भगवान कृष्ण ने, दूसरे अध्याय में कहा है:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (४७)
हे योगी, तुम्हारा कर्म करने पर अधिकार है, लेकिन उससे प्राप्त होने वाले फल पर नहीं. लेकिन यह सब फल को अपना परम उद्देश्य और अधिकार मान, उसे प्राप्त करने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार रहते हैं. उसे पाने के लिए कोशिश में कोई कमी नहीं छोड़ते.
तमो गुण- और अंत में आता है, तमो अथवा तमस् गुण. तम का अर्थ होता है, अन्धकार. यह गुण अन्धकार, निराशा और आलस्य की ओर ले जाता है. इस प्रकार के प्राणी किसी तरह का ज्ञान पाने में रुचि नहीं रखते, बल्कि जो ज्ञान दे रहे होते हैं, उनसे दूर ही रहते हैं. यह सदा मोह से घिरे रहते हैं. जीवन के प्रति बड़ा निराशावादी दृष्टिकोण रखते हैं. दूसरे लोगों के जीवन में बाधाएँ डालते रहते हैं. इनमें सबसे बड़ा दोष होता है, अहंकार. कभी पैसे का, कभी पद का, तो कभी शारीरिक बल का अहंकार. इनमें पाँचों विकार (काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार) कूट कूट कर भरे रहते हैं. यह सदा चाटुकार लोगों से घिरे रहते हैं. क्योंकि यह तम गुण बड़ी निकृष्ट प्रकृति का होता है, इसीलिए इस प्रकृति के लोग प्रायः बड़ी छोटी सोच वाले होते हैं.
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ (२१)
यह सब सुन कर अर्जुन के मन एक प्रश्न जन्म लेता है. वह पूछते हैं, हे प्रभु क्या कोई ऐसा भी भक्त या योगी होता है, जो इन गुणों से ऊपर उठा हुआ हो? यदि हाँ, तो तो उसके लक्षण क्या होते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं कि, जो योगी इन गुणों से घिरा होने के बावजूद, उनमें लिप्त नहीं होता. जो सुख में अधिक सुख की कामना नहीं करता. जो दुख में हताश और निराश नहीं होता. और जो अपने आप को मुझे पूर्णतया समर्पित कर देता है, वह इन गुणों से ऊपर उठा हुआ माना गया है. अब मैं तुम्हें ऐसे योगी के लक्षण बताता हूँ. निम्न श्लोकों में, प्रभु ने ऐसे योगी के लक्षणों का विस्तार से वर्णन किया है.
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः ।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ (२४)
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥ (२५)
भावार्थ : जो सुख और दुख में समान भाव में स्थित रहता है, जो अपने आत्म–भाव में स्थित रहता है, जो मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण को एक समान समझता है, जिसके लिये न तो कोई प्रिय होता है और न ही कोई अप्रिय होता है, तथा जो निन्दा और स्तुति में अपना धीरज नहीं खोता है।
जो मान और अपमान को एक समान समझता है, जो मित्र और शत्रु के पक्ष में समान भाव में रहता है तथा जिसमें सभी कर्मों के करते हुए भी कर्तापन का भाव नही होता है, ऎसे मनुष्य को प्रकृति के गुणों से अतीत कहा जाता है।
इस प्रकार भगवान कृष्ण ने, अर्जुन के माध्यम से पूरी मानव जाति को समझाया कि, इन तीन गुणों को समझो. इनके अच्छे और बुरे पक्ष का पूरा पूरा ज्ञान अर्जित करो. इन में छुपी बुराइयों से सचेत रहो. अगर हम इन गुणों के अन्दर छुपे हुए दोषों से अवगत रहेंगे, तो उनसे आसानी से बच भी पायेंगे. यह ज्ञान निश्चित रूप से हमें प्रभु के समीप ले जाने का सरल एवं सहज मार्ग है. आशा करते हैं कि, भक्त जन इस परम् दुर्लभ ज्ञान का लाभ उठा, प्रभु प्राप्ति के मार्ग पर चलने का प्रयास करेंगे. “जय श्री कृष्णा”