गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, दूसरा अध्याय

गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, दूसरा अध्याय

By: Rajendra Kapil

भगवद् गीता का पहला अध्याय अर्जुन के विषाद पर समाप्त होता है. निराशा में डूबे अर्जुन के
तर्कों में से दो प्रश्न खुल कर सामने आते हैं. पहला मेरे सामने गुरु द्रोण जैसे पूज्यगुरु खड़े हैं, क्या
उन्हें मारने से मुझे पाप नहीं लगेगा?  क्या अपने स्वार्थ के लिए उनका वध करना नैतिक है?  और
दूसरा इस युद्ध में विजय के बाद मुझे जो राज्य मुझे मिलेगा, वह मुझे इस क़ीमत पर नहीं चाहिए.
इसलिए मैं अपना कर्तव्य, यनिकि युद्ध भी नहीं करना चाहता. अर्थात् अपने कर्तव्य से मुँह मोड़ता
हूँ.

भगवद् गीता का दूसरा अध्याय इन्हीं दो प्रश्नों का विस्तार से समाधान प्रस्तुत करता है. भगवान
कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि, जो दीख रहा है, वह अनित्य है. यह रिश्ते नाते केवल इस शरीर
से जुड़े हैं, और शरीर को तो एक दिन मारना है.

इस अध्याय में भगवान कृष्ण अर्जुन को आत्म-साक्षात्कार और आत्मा की शाश्वत प्रकृति को
समझने का महत्व सिखाते हैं, इसीलिए इस अध्याय को सांख्य योग की आधारशिला भी माना
जाता है. सांख्य योग इस बात पर ज़ोर देता है कि, आत्मा नित्य और शाश्वत है, जो भौतिक
शरीर या बाहरी परिस्थितियों से अप्रभावित रहती है.

वासांसि, जीर्णानि, यथा, विहाय, नवानि, गृह्णतिः, नरः, अपराणि,
तथा, शरीराणि, विहाय, जीर्णानि, अन्यानि, संयाति, नवानि, देही।

जैसे हम पुराने हो जाने पर अपने पुराने कपड़े त्याग नए कपड़े धारण कर लेते हैं, ठीक वैसे ही,
यह आत्मा, पुराने शरीर को त्याग कर नए शरीर को धारण कर लेती है. केवल शरीर बूढ़ा और
जर्जर होता है. शरीर बीमार पड़ता है. और अंत में शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है. शरीर के वियोग
पर दुखी होना उचित नहीं है.  लेकिन आत्मा का स्वरूप अलग है. वह नित्य है.

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
अच्छेद्यः, अयम्, अदाह्यः, अयम्, अक्लेद्यः, अशोष्यः, एव, च,
नित्यः, सर्वगतः, स्थाणुः, अचलः, अयम्, सनातनः


आत्मा के लक्षण:

आत्मा नाश रहित है. वह अजन्मा और नित्य है. इस आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकता. इस
आत्मा को कोई आग जला नहीं सकती. जल इसे गीला नहीं कर सकता और कोई पवन इसे सुखा

नहीं सकती. क्योंकि यह आत्मा अछेद्य है. यह आत्मा नित्य है, अर्थात् जीवन से पहले भी थी और
जीवन के बाद भी रहेगी. कोई भी शरीर इसके लिए एक छोटा सा पड़ाव है. शरीर के रहते यह,
उसमें प्राण रूप में विराजमान रहती है, और शरीर के समाप्त होते ही यह, वह शरीर त्याग एक
नए शरीर में प्रविष्ट कर, उसे प्राणवान बना देती है.

इसीलिए यह जितने भी सैनिक तुम्हारे सामने खड़े हैं, जितने भी परिवारी जन सामने खड़े हैं,
जितने भी पूज्यनीय सामने खड़े हैं, यह सब इस युद्ध में मारे जाएँगे. तेरे चाहने और न चाहने से
इनकी मृत्यु रुकने वाली नहीं है. लेकिन इनके भीतर विराजमान आत्मा कभी नहीं मरेगी, बल्कि
इन्हें त्याग कर नया शरीर धारण कर लेगी. इसलिए हे अर्जुन, तुझे इन सबके लिए कोई चिंता
अथवा शोक करने की आवश्यकता नहीं है.

दूसरे प्रश्न के उत्तर में भगवान कृष्ण एक श्लोक में कर्मयोग की आधार शिला का निर्माण करते हैं.
श्लोक नीचे प्रस्तुत है. 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ||


यह श्लोक विश्व के सनातन समाज में कर्मयोग की परिभाषा है. कर्म पर तुम्हारा अधिकार है,
लेकिन फल पर नहीं. साथ ही कर्म न करने के भाव में भी, तुम्हारी आसक्ति नहीं होनी चाहिए.
यह श्लोक जितना सरल दीखता है, उतना है नहीं. साथ इसका दूसरा भाग अक्रमण्यता से दूर रहने
की भी घोषणा करता है. इसे सरल शब्दों में समझने की आवश्यकता है. कर्म पर मेरा अधिकार
है, समझना सरल एवं आसान है. यह भाव किसी भी काम के लिए जम कर मेहनत करने की
प्रेरणा देता हैं. लेकिन फल पर तेरा अधिकार नहीं है, यह बात सबको नहीं पचती. फल की आशा
नहीं करेंगे, तो उद्देश्य के प्रति प्रयास में कमी रह जाएगी. इसलिए आम आदमी फल की इच्छा को
सामने रख कर, कर्म करना चाहता है.  उसके बिना उसमें मोटिवेशन की कमी रह जाती है.

लेकिन एक कदम और आगे बढ़ कर, अगर हम सोचें, तो पता चलेगा कि प्रभु क्या कह रहे हैं? 
अगर पहले ही पता चल जाए कि क्या फल मिलने वाला है, या फल कम मिलने वाला है, तो कई
बार हमारे प्रयास में ढिलाई आ जाती है. इसीलिए प्रभु कह रहे हैं कि, कर्म पर ध्यान एकग्रित
कर, सारी मेहनत कोशिश में लगा दो. अगर मेहनत में पूरी ईमानदारी होगी तो, फल निश्चय ही
अनुकूल होगा. जो फ़ोकस है, वह काम या मेहनत पर, होना चाहिए, न कि फल पर. फल की
आशा और निराशा, जो आलस्य भाव उत्पन्न कर देती है, उसके प्रति भी सजग रहना चाहिए.
काम ना करने की आसक्ति से बचना चाहिए.

स्थिर बुद्धि के लक्षण: 

प्रजहाति, यदा, कामान्, सर्वान्, पार्थ, मनोगतान्
आत्मनि, एव, आत्मना, तुष्टः, स्थितप्रज्ञः, तदा, उच्यते
दुःखेषु, अनुद्विग्नमनाः, सुखेषु, विगतस्पृहः,
वीतरागभयक्रोधः, स्थितधीः, मुनिः, उच्यते।।
यः, सर्वत्र, अनभिस्नेहः, तत्, तत्, प्राप्य, शुभाशुभम्,
न, अभिनन्दति, न, द्वेष्टि, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता।


स्थिर बुद्धि के क्या लक्षण हैं? इसके उत्तर में भगवान कृष्ण कहते हैं कि, जिस योगी के मन से
सभी कामनायें समाप्त हो जाती हैं, वह अपने आप में संतुष्ट हो जाता है. ऐसा संतुष्ट प्राणी
स्थिरबुद्धि वाला कहलाता है. ऐसा योगी सुख में उत्तेजित नहीं होता. दुख मैं निराश नहीं होता.
क्रोध ऐसे प्राणी को विचलित नहीं करता. वह शुभ और अशुभ में समभाव बनाये, स्थिर रहता है.
इंद्रियों के बहाव में बह जाना बड़ा स्वाभाविक है. स्थिर बुद्धि योगी इन इंद्रियों को वश में कर,
जब मेरे परायण हो जाता है, तो मैं उसके हर कुशल क्षेम का स्वयं ध्यान रखता हूँ.

ध्यायतः, विषयान्, पुंसः, संग, तेषु, उपजायते, संगात्,
सजायते, कामः, कामात्, क्रोधः, अभिजायते।
क्रोधात्, भवति, सम्मोहः, सम्मोहात्, स्मृतिविभ्रमः,
स्मृतिभ्रंशात्, बुद्धिनाशः, बुद्धिनाशात्, प्रणश्यति।
रागद्वेषवियुक्तैः, तु, विषयान्, इन्द्रियैः, चरन्,
आत्मवश्यैः, विधेयात्मा, प्रसादम्, अधिगच्छति।


अगर इंद्रियों को वश में न किया जाए, तो यह इंद्रियाँ भक्त को बहुत भटकाती हैं. ऐसे में पुरुष
विषयों के बारे में निरंतर चिंतन करने लगता है. चिंतन से विषयों में आसक्ति बढ़ जाती है.
आसक्ति से बहुत सी कामनाएँ जन्म लेती हैं. जब कामनाएँ पूर्ण नहीं होती तो क्रोध उत्पन्न होता
है. क्रोध से अविवेक, और अविवेक, से भ्रमित बुद्धि, और भ्रमित बुद्धि से घोर अज्ञान. और इस
प्रकार योग के पथ पर की गई सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है.

विहाय, कामान्, यः, सर्वान्, पुमान्, चरति, निःस्पृहः,
निर्ममः, निरहंकारः, सः, शान्तिम्, अधिगच्छति।।

अंत में प्रभु अर्जुन को स्थिर बुद्धि योगी बनने की प्रेरणा देते हैं. क्योंकि स्थिर बुद्धि योगी के
समक्ष विभिन्न भोग भी, किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं करते. ऐसा योगी सहज ही सम्पूर्ण
कामनाओं को त्याग कर, ममता रहित एवं अहंकार रहित हो, परम शांति को प्राप्त होता है. जय
श्री कृष्ण!!

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