
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, तीसरा अध्याय
By: Rajendra Kapil
दूसरे अध्याय में भगवान कृष्ण ने कर्मयोग की परिभाषा बड़ी स्पष्ट कर दी थी, लेकिन फिर भी अर्जुन के मन में अभी बहुत से प्रश्न बाक़ी थे. अर्जुन ने बहुत बार ज्ञानी जनों के सम्पर्क में यह महसूस किया था कि, ज्ञानी लोग आम लोगों से श्रेष्ठ होते हैं. इसीलिए उसके मन में प्रश्न आया कि, – हे प्रभु, एक कर्मयोगी तथा एक ज्ञानी पुरुष में से श्रेष्ठ कौन है? अगर आप ज्ञानी को श्रेष्ठ मानते हैं, तो मुझे युद्ध कर्म के लिए प्रेरित क्यों कर रहे हैं?
अर्जुन की इस जिज्ञासा के उत्तर में भगवान कृष्ण बोले, इस संसार में दो प्रकार की निष्ठा का वर्णन
पुराणों में मिलता है. एक ज्ञानी जनों की ज्ञानयोग में, और दूसरी साधारण योगियों की कर्मयोग में.
परन्तु किसी में भी कर्म को त्यागने की आवश्यकता नहीं है. क्योंकि कर्म किये बिना कोई प्राणी रह नहीं सकता.
न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ (४)
भावार्थ: मनुष्य न तो बिना कर्म किये कर्म-बन्धनों से मुक्त हो सकता है और न ही कर्मों के त्याग मात्र से सफ़लता को प्राप्त हो सकता है। (४)
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥ (५)
भावार्थ: कोई भी मनुष्य किसी भी समय में क्षण-मात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता है क्योंकि
प्रत्येक मनुष्य प्रकृति से उत्पन्न गुणों द्वारा विवश होकर कर्म करता है। (५)
इसमें कोई शक नहीं कि, प्राणी अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने को बाध्य होता है. उसकी प्रकृति, उसका स्वभाव उसे सहज ही, उसी प्रकार के काम के लिए प्रेरित करता है, जिसमें उसकी स्वाभाविक रुचि होती है. रुचि के कारण, उस कार्य में योगी का मन भी लगा रहता है. रुचि के कारण वह उसे बार बार करता रहता है. इस बार बार के अभ्यास के कारण उसमें निपुणता भी आ जाती है. इसी भाव को एक कवि (आत्रेय जी) ने ऐसे भी व्यक्त किया है:
अर्जित निज गुण से विवश, करें लोग निज कर्म
रहे नहीं बिन कर्म के कोई, यही है जीवन मर्म।
लेकिन दुर्भाग्य से कई बार योगीजन इस सहजता के विरुद्ध, अपनी कर्मेन्द्रियों को हठ से रोक कर, कर्म से विमुख हो जाते हैं. लेकिन उनका मन अभी भी उन्हीं भोगों के चिन्तन में लगा रहता है. ऐसे योगी को दम्भी या मिथ्याचारी कहा जाता है. योग में सबसे बड़ी आवश्यकता है मन से, कर्म या भोगों के प्रति अनासक्ति उत्पन्न की जाए. इस अनासक्ति के कारण, जब मन उस भोग की ओर नहीं जाएगा, तो शरीर में उसकी कामना स्वयं ही मर जाएगी. ऐसी सिद्धि प्राप्त करने वाला योगी श्रेष्ठ कहा गया है.
कर्म मुझे बन्धनों में बाँध देंगें, ऐसा सोच कर उनका त्याग करना ठीक नहीं है. कर्म तभी बाँधते हैं, जब उनसे फल की आशा की जाती है, अगर योगी उसे करते समय, अपनी मेहनत और उससे प्राप्त होने वाले फल को प्रभु के प्रति समर्पित कर दे, तो वह उसके बन्धन से सहज ही मुक्त हो जाता है.
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥ (९)
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (१०)
भावार्थ: सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजापति ब्रह्मा ने यज्ञ सहित देवताओं और मनुष्यों को रचकर उनसे कहा
कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा सुख-समृध्दि को प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों के इष्ट अर्थात्
सांसारिक भोग संबन्धित कामना की पूर्ति करेगा। (१०)
हमारे शास्त्रों में यज्ञ की बहुत बड़ी परम्परा है. यज्ञ प्रायः किसी देवता को प्रसन्न करने के लिए किया
जाता है. यज्ञ के बाद, जब देवता प्रसन्न होते हैं तो, किसी न किसी सम्पदा, या सांसारिक मनोकामना को पूर्ण होने का वरदान देते हैं. अगर योगी उस वरदान से जुड़े सांसारिक भोग में आसक्त हो जाता है, तो वह सांसारिक बन्धन में बँध जाता है. और अगर अगर यज्ञ के फलस्वरूप प्राप्त सम्पदा को प्रभु को समर्पित कर देता है तो, उसके दो लाभ होंगे. एक वह उस फल का पूरा पूरा आनन्द ले पाएगा और दूसरा उसका अनासक्त भाव, उसे इस फल के बन्धन से भी मुक्त रखेगा. इसे कहते हैं, दोनों हाथों में लड्डू. जोकि भगवद् कृपा का सबसे बड़ा उपहार है.
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥ (२१)
भावार्थ: महापुरुष जो-जो आचरण करता है, सामान्य मनुष्य भी उसी का ही अनुसरण करते हैं, वह श्रेष्ठ- पुरुष जो कुछ आदर्श प्रस्तुत कर देता है, समस्त संसार भी उसी का अनुसरण करने लगता है।
प्रभु आगे अर्जुन को और समझाते हुए कहते हैं कि, श्रेष्ठ जनों की एक और ज़िम्मेवारी होती है कि, वह लोग ऐसा आचरण उपस्थित करें, जिसका दूसरे आम लोग अनुसरण कर सकें. ज्ञानी जन, जब मन को वश में करके, अनासक्त भाव से कर्म करते हुए, जो भी उदाहरण सामने रखेंगे, उसे साधारण जन, उत्साह से अपना लेंगे. वरना इस जगत में ऐसे बहुत से. ऐसे लोग घूम रहें हैं, जो कहते कुछ और हैं, और करते कुछ अलग हैं. ऐसे दोगले लोगों के लिए तुलसी बाबा ने भी लिखा है.
पर उपदेस कुसल बहुतेरे, जे आचरहि ते नर न घनेरे
आज के समाज में बहुत से, ज्ञान गुरु स्टेज पर बैठ ऐसे ऐसे उपदेश दे रहे हैं, जिसका सही आचरण से दूर दूर तक कोई नाता नहीं होता. लेकिन भोली भाली जनता उनके उनकी इस वाक पटुता के जाल में फँस जाती हैं. और ऐसे काम कर बैठती है, जिसका लाभ केवल इन दम्भी ज्ञान गुरुओं को ही होता है. जब तक जनता को सच्चाई का भान होता है, तब तक वह बहुत कुछ गवाँ चुके होते हैं.
-:कामना रूपी शत्रु का शमन:-
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥ (३६)
भावार्थ: अर्जुन ने कहा – हे जनार्दन! मनुष्य न चाहते हुए भी किसकी प्रेरणा से पाप-कर्म करता है, यधपि ऎसा लगता है कि, उसे बल-पूर्वक पाप-कर्म के लिये प्रेरित किया जा रहा है। (३६)
अर्जुन एक और प्रश्न पूछते हैं. आम लोग किससे प्रेरित होकर पाप कर्म करते हैं?
भगवान कृष्ण थोड़ा गंभीर हो कर कहते हैं, सभी प्राणियों के मन में कम वासनाओं का निवास होता है. यह काम वासनाएँ हमें अधर्म की ओर ले जाती हैं. जब आम जगत में इन वासनाओं की पूर्ति नहीं होती, तो निराशा होती है, उससे क्रोध उत्पन्न होता है. क्रोध विवेक को ढक देता है. विवेकहीन पुरुष, अच्छे बुरे की पहचान करना भूल जाता है. विवेकहीन योगी, मोह में लिप्त हो, अंधा हो जाता है. और इस प्रकार एक योगी बड़ी आसानी से पाप कर्म के लिए प्रेरित हो उठता है. अपने पथ से भटक जाता है. इसीलिए हे अर्जुन, मैं बार बार कहता हूँ कि, सबसे पहले अपने मन और बुद्धि को वश में करो. जब बुद्धि वश में आ जाएगी तो बाक़ी सब काम स्वयं ही आसान हो जायेंगे.
अगर तुम समझते हो कि, यह सब सम्भव नहीं है, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि, यह पूरी तरह से सम्भव है. उसका कारण है कि, शरीर से ऊपर या परे, हमारी ज्ञान इंद्रियाँ हैं, इन्द्रियों से ऊपर हमारा मन है. इन्द्रियों और मन से भी परे है, हमारी आत्मा. आत्मा प्राण रूप है. मन ही सारी मुसीबत की जड़ है. मन के वश में आते ही इंद्रियाँ वश में आ जाती हैं, और इंद्रियों के निग्रह से शरीर अपने आप शांत हो जाता है. इसके काबू में आते ही
योगी का लोक परलोक दोनों ही सुधरने लगते हैं. इसलिए मन की ओर सबसे अधिक ध्यान देना चाहिए. उसे अपने वश में करने का हर सम्भव प्रयास करते रहो. जय श्री कृष्णा!!!