
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, पहला अध्याय
By: Rajendra Kapil
संपादक की तरफ़ से: आज से इंडोयूएस ट्रिब्यून एक नयी श्रृंखला आरंभ करने जा रहा है, गीता स्वाध्याय, जोकि भगवद् गीता को समझने और समझाने का एक विनम्र प्रयास होगा. इस श्रृंखला में, हमारे स्तम्भ के लेखक, राजेन्द्र कपिल जी, जिन्होंने पहले रामचरित मानस पर कई लेख प्रस्तुत किये हैं, गीता संबंधी स्वाध्याय को अपनी सरल भाषा मैं पाठकों के साथ साझा करेंगे. आशा करता हूँ कि, उनका यह प्रयास, पाठकों को गीता का संदेश समझने में सहायता करेगा- डॉ अवि वर्मा
भगवद् गीता, भारत के महान महाकाव्य महाभारत का एक छोटा सा हिस्सा है. एक ही परिवार का, सत्ता के लिए लड़ना लड़ाना इस महाकाव्य की मूल कथा है. स्वयं भगवान कृष्ण भी इसी परिवार का एक हिस्सा थे. उन्होंने शांतिदूत बन कर इस समस्या को शांति से सुलझाने के लिए बहुत से अथक प्रयास किए, लेकिन जब आदमी अपने स्वार्थ और अहंकार में अंधा हो जाता है, तो वह भगवान की भी नहीं सुनता. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तो केवल एक उपाय बाक़ी रह जाता है, वह है, युद्ध!! इस महाकाव्य का खलनायक दुर्योधन, अपने चचेरे भाई पाण्डवों को सुई की नोक बराबर भूमि भी, युद्ध के बिना देने से साफ़ इंकार कर देता है.
यह भगवद् गीता उसी युद्ध से पूर्व का एक संवाद है. गीता एक ढाँढस है, एक सहारा है. एक कमज़ोर पड़ गए मित्र को मानसिक बल दे, उसे सबल बनाने का एक सफल प्रयास है. उस समय राज गद्दी पर एक दृष्टिहीन राजा धृतराष्ट्र बैठा था. जो अपने उद्दण्ड और अहंकारी बेटे दुर्योधन के सामने बेबस था. माँ गांधारी ने, उस समय वैसे ही आँखों पर पट्टी बांधी हुई थी, उसे मोह की पट्टी के सामने बेटों का कोई दोष दिखाई ही नहीं पड़ रहा था.
युद्ध निश्चित हो जाता है. युद्ध क्षेत्र निश्चित हो जाता है. ऐसे में पिता को युद्ध के परिणाम की चिंता होने लगती है. ऐसे में प्रभु कृष्ण, राजा धृतराष्ट्र के मंत्री संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं, ताकि वह राजा को युद्ध का आँखों देखा हाल सुना सके. यहाँ से आरंभ होती है, भगवद् गीता:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय॥
इस युद्ध में पूरे भारत के विभिन्न राजा दो ख़ेमों में बँट कर, एक दूसरे के सामने आ खड़े होते हैं. भगवान कृष्ण इस युद्ध में, अपने प्रिय मित्र अर्जुन के सारथी की भूमिका निभाते हैं. पहले ही दिन अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य लाकर खड़ा कर देते हैं. धर्म के इस पुनीत क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध बस होने ही वाला है. अर्जुन रथ पर खड़ा हो अपने प्रतिद्वंदी सेना को देखना चाहता है. जैसे ही वह देखता है, उसे दीखते हैं, गुरु द्रोण. उसे दीखते हैं, पितामह भीष्म. और भी बहुत सारे परिवारी जन, जिन्हें वह बड़े प्रेम एवं आदर से पूजता आया है. उन सबको देख, अर्जुन एक असह्य विषाद से घिर जाता है. मन में विचार आता है कि, इन सबको मार कर प्राप्त क्या होगा? हस्तिनापुर का राज्य? यहीं से आरंभ होता है, अर्जुन और कृष्ण का संवाद, जो आज विश्व में भगवद्गीता के नाम से प्रसिद्ध है.
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥
अर्जुन निराश हो बैठ जाता है. कहता है, माधो, मैं नहीं लड़ पाऊँगा. मेरा मुख सूखा जा रह है, मेरा धनुष गाण्डीव हाथ से छूटा जा रहा है. मैं खड़ा नहीं हो पा रहा. अर्जुन के मन में विषाद घर कर जाता है. विषाद का अर्थ है, एक पीड़ा, एक कसक, एक लम्बी निराशा. वह अपने मित्र कृष्ण से कहता है कि, मुझे राज्य और गद्दी नहीं चाहिए, अगर दुर्योधन कुछ नहीं देता, तो कोई बात नहीं, मैं भिक्षा माँग कर गुज़ारा कर लूँगा. मैं इन सबको मार कर पाप का भागी नहीं बनना चाहता. मैं इतनी सारी महिलाओं को विधवा नहीं बनाना चाहता. धृतराष्ट्र के इतने सारे पुत्रों का बध करके मुझे कोई ख़ुशी नहीं मिलने वाली.
अर्जुन का विषाद निर्बाध गति से बहता चला जाता है. लोभ से प्रेरित मेरे चचेरे भाई अपने कुल के नाश में भी कोई दोष नहीं देख रहे. लेकिन हम तो समझदार हैं, हमें ऐसे पाप कर्म से मुख मोड़ लेना चाहिए. क्योंकि कुल के नाश से सनातन कुलधर्म नष्ट हो जाता है. ऐसे में कुल की स्त्रियाँ भटक जाती हैं. स्त्रियों के भटकने से वर्णसंकर की सम्भावना बढ़ जाती है. और वर्णसंकर से कुल एवं जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं. तत्पश्चात् ऐसे कुल अनंत काल तक नरक में वास करते हैं. मैं ऐसे कुकृत्य का गीदार नहीं बनना चाहता.
इस प्रकार गीता का पहला अध्याय, जिसे “अर्जुन विषाद योग” भी कहा जाता है, महाभारत के युद्ध के मैदान में अर्जुन की दुविधा और निराशा को दर्शाता है। इस अध्याय में, अर्जुन अपने संबंधियों और गुरुओं को युद्ध में खड़ा देखकर दुखी होता है और युद्ध करने में असमर्थ महसूस करता है. वह श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है कि वह उसे युद्ध के मैदान से दूर ले जाए.
इस अध्याय में मुख्य रूप से निम्नलिखित बातें शामिल हैं:
संजय का धृतराष्ट्र को वर्णन:
संजय, धृतराष्ट्र को युद्ध के मैदान का वर्णन करता है और अर्जुन की निराशा के बारे में बताता है.
अर्जुन का दुख:
अर्जुन युद्ध के मैदान में अपने संबंधियों और गुरुओं को देखकर दुखी होता है और उन्हें मारने की इच्छा नहीं
करता.
अर्जुन की दुविधा:
अर्जुन को अपनी अपने कर्तव्य और कर्मों के बीच दुविधा होती है.
कर्तव्य और कर्म का महत्व:
गीता का पहला अध्याय हमें अपने कर्तव्यों का पालन करने के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करता है.
दुविधा और निराशा का सामना करना:
यह हमें सिखाता है कि जीवन में दुविधा और निराशा का सामना करना पड़ता है, लेकिन हमें अपने कर्तव्य का पालन करने से नहीं चूकना चाहिए.
इस प्रकार गीता का पहला अध्याय विषाद से आरम्भ होता है और अर्जुन के मन में उत्पन्न अनेक प्रकार की दुविधाओं को सामने लाता है. जब दुविधाएँ उत्पन्न होगी, तभी तो समाधान सामने आएँगे. अगले अध्याय में सुनेंगे कि, भगवान कृष्ण कैसे अर्जुन की चिंता का निवारण करेंगे. जय श्री कृष्णा !!!