
गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, दसवाँ अध्याय
By: Rajendra Kapil
इस दसवें अध्याय का आरम्भ प्रभु कृष्ण के संवाद से होता है, जोकि अर्जुन को अपना परम सखा मानते हैं. भगवान कृष्ण उसे समझाते हुए कहते हैं कि, यह जो ज्ञान मैं तुम्हें दे रहा हूँ, यह अति दुर्लभ है. यह मैं केवल अपने परम प्रिय भक्तों को ही देता हूँ. और क्योंकि तुम मुझे अत्यंत प्रिय हो, इसीलिए मैं तुम्हें सुना रहा हूँ. इस अध्याय में प्रभु कृष्ण अपनी विभूति का विस्तार से वर्णन करते हैं. उनकी दिव्य विभूति जो इस विश्व के कण कण में अपने सर्वोत्तम रूप से विराजमान है. प्रभु उस विभूति का इतनी सरल भाषा में वर्णन करते हैं कि, एक साधारण भक्त भी उसे आसानी से समझ सके. इसीलिए इस अध्याय को “विभूति योग” भी कहा गया है.
पहले तो प्रभु अपने निर्गुण एवं ब्रह्म स्वरूप की चर्चा करते हैं कि, मैं इस जगत की उत्पत्ति का एकमात्र कारण हूँ. मैं अनादि हूँ, मैं अजन्मा हूँ. मेरा न कोई आरम्भ है, न ही मेरा कोई अन्त है. जो भक्त मुझे संशय, भय, और मोह रहित हो कर, अपने मन को पूर्णतया वश में करके, मुझे भजते हैं. अपने सभी कामोंको निरंतर मुझे अर्पित करते हुए, सदा मेरे चिंतन मनन में लगे रहते हैं, वही मेरे असली स्वरूप को जानते हैं और समय आने पर उसे सहज प्राप्त भी करते हैं. इस जगत में जन्म, मृत्यु भय, शोक, सुख दुःख, हानि लाभ, सभी मेरी संकल्प शक्ति से, अर्थात् मेरी माया से उत्पन्न हैं. इससे साधारण जीव अत्यधिक प्रभावित रहते हैं. लेकिन मेरे प्रिय भक्त इसके प्रभाव से मुक्त रह, आनंद का जीवन जीते हैं.
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥ (९)
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥ (१०)
भावार्थ: जिन मनुष्यों के चित्त मुझमें स्थिर रहते हैं और जिन्होने अपना जीवन मुझको ही समर्पित कर दिया हैं, वह भक्तजन आपस में एक दूसरे को मेरा अनुभव कराते हैं, वह भक्त मेरा ही गुणगान करते हुए निरन्तर संतुष्ट रहकर मुझमें ही आनन्द की प्राप्ति करते हैं। जो सदैव अपने मन को मुझमें स्थित रखते हैं और प्रेम–पूर्वक निरन्तर मेरा स्मरण करते हैं, उन भक्तों को मैं वह बुद्धि प्रदान करता हूँ, जिससे वह मुझको ही प्राप्त होते हैं।
निरंतर मुझ में अपने मन प्राण लगाने वाले, मुझको समर्पित, मेरा गुणगान करने वाले भक्त, सदा सन्तुष्ट रहते हैं. और मुझ वासुदेव में सदा रमण करते रहते हैं. ऐसे भक्तों को, मैं ऐसा योग एवं मोक्ष देता हूँ कि, जिससे वह निश्चित रूप से मुझे प्राप्त हो जाते हैं. मैं उनका अपने बच्चों की तरह ध्यान रखता हूँ.
अब अर्जुन के मन एक प्रश्न जन्म लेता है कि, हे प्रभु यदि आप इस जगत के कान कण में हैं तो मैं आपको उन सब में से कैसे पहचानूँ? मैं आपको प्रत्यक्ष रूप में देखना चाहता हूँ, तो कृपया बताइए कि, मैं अपनी यह इच्छा कैसे पूर्ण करूँ? अर्जुन प्रभु की विभूति को देख सुन कर, अनुभव करना चाहता है. उसकी दिव्यता को देख भाव विभोर होना चाहता है. यह सुन प्रभु, अपनी विभूति का वर्णन आरम्भ करते हैं. एक लम्बी सूची द्वारा प्रभु अर्जुन को बताते की देव ऋषियों में, पशु पक्षियों में, कहाँ कहाँ मेरे दर्शन किए जा सकते हैं. यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि, इस जगत में जो भी सर्वाधिक श्रेष्ठ है, वही भगवान का वास है
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान् ।
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ (२१)
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ (२२)
रुद्राणां शङ्करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ (२३)
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम् ।
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ (२४)
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ (२५)
भावार्थ: मैं सभी आदित्यों में विष्णु हूँ, मैं सभी ज्योतियों में प्रकाशमान सूर्य हूँ, मैं सभी मरुतों में मरीचि नामक वायु हूँ, और मैं ही सभी नक्षत्रों में चंद्रमा हूँ।
मैं सभी वेदों में सामवेद हूँ, मैं सभी देवताओं में स्वर्ग का राजा इंद्र हूँ, सभी इंद्रियों
में मन हूँ, और सभी प्राणियों में चेतना स्वरूप जीवन–शक्ति हूँ।
मैं सभी रुद्रों में शिव हूँ, मैं यक्षों तथा राक्षसों में धन का स्वामी कुबेर हूँ, मैं सभी
वसुओं में अग्नि हूँ और मै ही सभी शिखरों में मेरु हूँ।
हे पार्थ! सभी पुरोहितों में मुख्य बृहस्पति मुझे ही समझ, मैं सभी सेनानायकों में कार्तिकेय हूँ, और मैं ही सभी जलाशयों में समुद्र हूँ।
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, मैं सभी वाणी में एक अक्षर हूँ, मैं सभी प्रकार के यज्ञों में जप (कीर्तन) यज्ञ हूँ, और मैं ही सभी स्थिर (अचल) रहने वालों में हिमालय पर्वत हूँ।
अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारदः ।
गन्धर्वाणां चित्ररथः सिद्धानां कपिलो मुनिः ॥ (२६)
उच्चैःश्रवसमश्वानां विद्धि माममृतोद्धवम् ।
एरावतं गजेन्द्राणां नराणां च नराधिपम् ॥ (२७)
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक् ।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः ॥ (२८)
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम् ।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम् ॥ (२९)
भावार्थ : मैं सभी वृक्षों में पीपल हूँ, मैं सभी देवर्षियों में नारद हूँ, मै सभी गन्धर्वों में चित्ररथ हूँ और मै ही सभी सिद्ध पुरूषों में कपिल मुनि हूँ।
समस्त घोड़ों में समुद्र मंथन से अमृत के साथ उत्पन्न उच्चैःश्रवा घोड़ा मुझे ही समझ, मैं सभी हाथियों में ऐरावत हूँ, और मैं ही सभी मनुष्यों में राजा हूँ।
मैं सभी हथियारों में वज्र हूँ, मैं सभी गायों में सुरभि हूँ, मैं धर्मनुसार सन्तान उत्पत्ति का कारण रूप प्रेम का देवता कामदेव हूँ, और मै ही सभी सर्पों में वासुकि हूँ।
मैं सभी नागों (फ़न वाले सर्पों) में शेषनाग हूँ, मैं समस्त जलचरों में वरुणदेव हूँ, मैं सभी पितरों में अर्यमा हूँ, और मैं ही सभी नियमों को पालन करने वालों में यमराज हूँ।
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम् ।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी ॥ (३१)
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन ।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ (३२)
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च ।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः ॥ (३३)
भावार्थ : मैं समस्त पवित्र करने वालों में वायु हूँ, मैं सभी शस्त्र धारण करने वालों में राम हूँ, मैं सभी मछलियों में मगर हूँ, और मैं ही समस्त नदियों में गंगा हूँ।
हे अर्जुन! मैं ही समस्त सृष्टियों का आदि, मध्य और अंत हूँ, मैं सभी विद्याओं में ब्रह्मविद्या हूँ, और मैं ही सभी तर्क करने वालों में निर्णायक सत्य हूँ।
मैं सभी अक्षरों में ओंकार हूँ, मैं ही सभी समासों में द्वन्द्व हूँ, मैं कभी न समाप्त होने वाला समय हूँ, और मैं ही सभी को धारण करने वाला विराट स्वरूप हूँ।
इस प्रकार अर्जुन को प्रभु की विभूति के सहज दर्शन हो जाते हैं. प्रभु पुन: उसे समझाते हैं कि, यह सब जानते हुए, तू निस्संदेह होकर, एकाग्र चित्त से, सभी कर्तव्य कर्मों को करता चल, और उन्हें, मुझे निर्मल मन से समर्पित करता चल. बाक़ी सब मैं सम्भाल लूँगा. तू मेरा परम प्रिय सखा और शिष्य है, तेरे कुशल क्षेम के लिए मैं सदा तत्पर रहूँगा. प्रभु के ऐसे ऐश्वर्य को देख हर भक्त का मन उन्हें केवल नमन करने को लालायित रहता है. “जय श्री कृष्णा”