
गीता स्वाध्याय, मेरी समझ से – बारहवाँ अध्याय
By: Rajendra Kapil
भगवद् गीता का बारहवाँ अध्याय भक्ति योग के नाम से प्रसिद्ध है. भगवद् प्राप्ति के दो प्रमुख मार्ग बताए गए हैं. एक को कहते हैं, ज्ञान मार्ग या ज्ञान योग और दूसरे को कहते हैं, भक्ति मार्ग या भक्ति योग. ज्ञान मार्ग सुबुद्ध योगियों का मार्ग है, जो वेदों पुराणों के अध्ययन के बाद, ब्रह्म तत्व को जान कर, प्रभु का सामीप्य प्राप्त करना चाहते हैं. इसमें अध्ययन है, मनन है, और ध्यान उपासना है. कठोर तपस्या है. इसी लिए इसे कठिन मार्ग भी कहा गया है.
दूसरा मार्ग है, भक्ति योग का मार्ग. इस मार्ग में भक्त, केवल श्रद्धा और प्रेम में डूब कर अपने प्रभु का सिमरन करता है. सिमरन के हज़ारों तरीक़े हैं, और सभी सहज एवं सरल हैं. यह मार्ग बहुत सरल मार्ग है. न अधिक अध्ययन, मनन और चिंतन. न कठोर तपस्या. न ध्यान की कठिन प्रक्रिया. इसी लिए क़रीब पाँच सौ साल पहले यह, भारत में यह बहुत ही प्रचलित हो गया. तुलसीदास जैसे संत महाकवियों ने इसे, गीता से निकाल, अपनी रचनाओं के माध्यम से, इसे जन जन तक पहुँचाया. तुलसीदास जी के निम्न दोहे इसकी महत्ता को प्रतिपादित करते हैं.
निज अनुभव अब कहऊँ खगेसा, बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा
राम कृपा बिनु सुनु खगराई, जानि न जाइ राम प्रभुताई
बिनु बिस्वास भगति नहीं, तेहि बिनु द्रवहि न राम
राम कृपा बिनु सपनेहू, जीव न लह विश्राम
यह तुलसी बाबा का उद्घोष है कि, विश्वास के बिना भक्ति हो नहीं सकती. उसके बिना रामजी की दयालुता नहीं बरसेगी, और भक्ति के बिना जीव को सपने में भी मानसिक शांति नहीं मिल सकती. भक्ति में डूबा भक्त, प्रभु के चरणों में अपना सर्वस्व लुटा देता है. दीवाना होकर, नाचता है, गाता है, और झूम झूम कर गाता है:
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो
या फिर,
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई, जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई
इस मधुर भक्ति योग को गीता के इस अध्याय में भी प्रतिष्ठित किया गया है. इस अध्याय का आरम्भ, अर्जुन के एक प्रश्न से होता है. हे माधव, जो अनन्य भक्त आपको सगुण रूप में निरन्तर भजते हैं तथा जो योगी आपके निराकार स्वरूप का चिन्तन ध्यान आदि करते हैं, इन दोनों प्रकार के भक्तों में से श्रेष्ठ कौन है? प्रभु कहते हैं, हे अर्जुन, जो भक्त एकाग्र मन से मेरे साकार रूप को भजते हैं, वह निश्चित रूप से श्रेष्ठ हैं.
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः ॥ (२)
भावार्थ : श्री भगवान कहा – हे अर्जुन! जो मनुष्य मुझमें अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण–साकार रूप की पूजा में लगे रहते हैं, और अत्यन्त श्रद्धापूर्वक मेरे दिव्य स्वरूप की आराधना करते हैं वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं।
ज्ञान मार्ग कठिन है, इसमें बहुत परिश्रम है. इसको करते करते भक्त में, सूक्ष्म देह अभिमान हो जाता है.
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥ (५)
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥ (६)
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (७)
भावार्थ : अव्यक्त, निराकार स्वरूप के प्रति आसक्त मन वाले मनुष्यों को परमात्मा की प्राप्ति अत्यधिक कष्ट पूर्ण होती है क्योंकि जब तक शरीर द्वारा कर्तापन का भाव रहता है तब तक अव्यक्त परमात्मा की प्राप्ति दुखप्रद होती है।
परन्तु हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने सभी कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी शरण होकर अनन्य भाव से भक्ति–योग में स्थित होकर निरन्तर मेरा चिन्तन करते हुए मेरी आराधना करते हैं। मुझमें स्थिर मन वाले उन मनुष्यों का मैं जन्म–मृत्यु रूपी संसार–सागर से अति–शीघ्र ही उद्धार करने वाला होता हूँ।
ज्ञानी मुझ निराकार ब्रह्म के लिए घोर तपस्या करते हैं. इसके लिए ऐसे योगियों को, अपनी इंद्रियों को साध कर, मनको वश में करके, ध्यान चिन्तन करना पड़ता है. जब वह अपनी इन्द्रियों पर विजय पा लेते हैं, तो उन्हें अपने शरीर की इस सफलता पर देह अभिमान हो जाता है. उस अभिमान को त्यागना आसान नहीं है. लेकिन श्रद्धा युक्त योगी, मेरे पारायण हुए, मेरे भजन कीर्तन में लगे रहते हैं. वह अपने तन मन की सुध बुध खो बैठते हैं. मुझ में इतने तल्लीन हो जाते हैं कि, अपना आपा भूल, मुझ में आत्मसात् हो जाते हैं. उन्हें दीन दुनिया का होश नहीं रहता. वह बिना किसी मान सम्मान की चिन्ता किये बिना बस हरि सुमिरन में मस्त रहते हैं. इसी को बाबा नानक ने यूँ कहा:
नाम ख़ुमारी नानका चढ़ी रहे दिन रात
इसलिए मेरे प्यारे सखा अर्जुन, तू मुझ में अपने मन प्राणों को लगा. अपनी बुद्धि को पूर्णतया मुझे समर्पित कर, तू निश्चय ही मुझ को प्राप्त होगा. इसमें किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है.
अथैतदप्यशक्तोऽसि कर्तुं मद्योगमाश्रितः ।
सर्वकर्मफलत्यागं ततः कुरु यतात्मवान् ॥ (११)
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धयानं विशिष्यते ।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥ (१२)
भावार्थ : यदि तू मेरे लिये कर्म भी नही कर सकता है तो मुझ पर आश्रित होकर सभी कर्मों के फलों का त्याग करके समर्पण के साथ आत्म–स्थित महापुरुष की शरण ग्रहण कर, उनकी प्रेरणा से कर्म स्वत: ही होने लगेगा। बिना समझे मन को स्थिर करने के अभ्यास से ज्ञान का अनुशीलन करना श्रेष्ठ है, ज्ञान से ध्यान श्रेष्ठ समझा जाता है और ध्यान से सभी कर्मों के फलों का त्याग श्रेष्ठ है, क्योंकि ऎसे त्याग से शीघ्र ही परम–शान्ति की प्राप्त होती है।
इस प्रकार प्रभु की, भक्ति को प्राप्त भक्त, एक सुखद शान्ति को प्राप्त होता है. उसका मन खीर समान निर्मल हो जाता है. वह किसी से द्वेष नहीं करता. वह बड़े ही निस्वार्थ भाव से, सदा सबका भला ही चाहता है, और भला ही करता है. ऐसा भक्त, समस्त प्राणियों से सहज प्रेम एवं दयालुता का व्यवहार करता है. उसमें ममता का मोह और बन्धन नहीं होता. वह अहंकार से कोसों दूर रहता है. अगर कोई दूसरा उसके प्रति कुछ अनिष्ट या अपराध कर भी दे, तो भी ऐसा भक्त उस अपराधी को क्षमा कर, अपना और अपराधी का मन हल्का कर देता है. ऐसे भक्त के लिए, एक कवि ने एक कुछ इस प्रकार भी कहा है.
रहे सदा तुष्ट संतुष्ट ख़ुद, करे न कुछ परवाह
जिससे भगति दृढ़ ज्ञान की, रहती हर क्षण चाह
अर्जुन ऐसे जन सदा, प्रिय लगते अति मोहि
धराधाम संसार में , सत्य बताऊँ तोहि
नीचे दिए गए श्लोकों में, भगवान कृष्ण ने, एक भक्ति मार्ग के योगी के, लक्षणों का वर्णन, बड़े विस्तार से किया है. इसमें स्पष्ट कहा गया है कि, भक्त संसार के मान अपमान की चिन्ता किए बिना, केवल प्रभु की मस्ती में डूबा रहता है.
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ॥ (१७)
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः ।
शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्गविवर्जितः ॥ (१८)
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित् ।
अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः ॥ (१९)
भावार्थ : जो मनुष्य न तो कभी हर्षित होता है, न ही कभी शोक करता है, न ही कभी पछताता है और न ही कामना करता है, जो शुभ और अशुभ सभी कर्म–फ़लों को मुझे अर्पित करता है ऎसी भक्ति में स्थित भक्त मुझे प्रिय होता है। जो मनुष्य शत्रु और मित्र में, मान तथा अपमान में समान भाव में स्थित रहता है, जो सर्दी और गर्मी में, सुख तथा दुःख आदि द्वंद्वों में भी समान भाव में स्थित रहता है और जो दूषित संगति से मुक्त रहता है।
जो निंदा और स्तुति को समान समझता है, जिसकी मन सहित सभी इन्द्रियाँ शान्त है, जो हर प्रकार की परिस्थिति में सदैव संतुष्ट रहता है और जिसे अपने निवास स्थान में कोई आसक्ति नही होती है ऎसा स्थिर–बुद्धि के साथ भक्ति में स्थित मनुष्य मुझे प्रिय होता है।
इस प्रकार भगवान कृष्ण ने, इस अध्याय में, अपने प्रिय मित्र अर्जुन के लिए, तथा अर्जुन जैसे सभी भक्तों के लिए, भक्ति योग का सरल स्पष्टीकरण किया. सभी को विश्वास दिलाया की, जो भक्त मुझे परम आश्रय मान, अपनी सारी पूजा अर्चना कर, मुझे पूर्ण रूप से समर्पित रहते हैं, ऐसे निस्वार्थ एवं निष्काम भक्तों को मैं अपना धाम सहज ही प्रदान करता हूँ. वह निस्संदेह मुझे प्राप्त होते हैं, और मैं उनका अपने बच्चों की भाँति, हर प्रकार से ध्यान रखता हूँ. ऐसे अत्यंत दयालु भगवान कृष्ण को मेरा श्रद्धा भाव से, कोटि कोटि प्रणाम.
“जय श्री कृष्ण “