गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, अठारहवाँ अध्याय- मोक्ष संन्यास योग (भाग१)

गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, अठारहवाँ अध्याय- मोक्ष संन्यास योग (भाग१)

प्रिय पाठकों अब हम गीता के अंतिम अध्याय तक आ पहुँचे हैं. यह भगवद् गीता का अंतिम पड़ाव है. इस अध्याय को मोक्ष संन्यास योग भी कहा गया है. इसे समझने के बाद मोक्ष की पूरी पूरी सम्भावना बन जाएगी. यह भगवद् गीता का सबसे लम्बा अध्याय है. इसीलिए मैंने इसे दो भागों में बाँट दिया है, ताकि इसे अच्छी तरह से समझा जा सके. इसमें पूरी गीता का सार समाहित है. इसे सुनने के बाद अर्जुन का मोह पूरी तरह से भंग हो जाता है.

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वप्रसादान्मयाच्युत

स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव

भावार्थ:  अर्जुन बोले- हे अच्युत! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मैं संशय रहित होकर स्थिर हूँ, अतः आपकी आज्ञा का पालन करूँगा॥

इस अध्याय के अन्त में संजय भी यह घोषणा करते हैं कि, जहाँ जहाँ योगेश्वर कृष्ण होंगे, विजय और विभूति वहाँ स्वयं चली आयेगी.  इस अध्याय के पहले भाग में संन्यास और त्याग के अन्तर को स्पष्ट किया गया है.

हर बार की तरह, अध्याय का आरम्भ अर्जुन के प्रश्न से होता है:

सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्

त्यागस्य हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन

हे महाबाहो, मैं संन्यास और त्याग के अन्तर को अच्छी तरह से समझना चाहता हूँ. भगवान कृष्ण इसके उत्तर में कहते हैं कि, कुछ विद्वान काम्य कर्मों या काम्य सांसारिक वस्तुओं, जैसेकि धन, स्त्री, पुत्र आदि सम्पदाओं के त्याग को सन्यास कहते हैं. और एक दूसरा विद्वान वर्ग सब कर्मों के फल त्याग को त्याग कहता है. पर मेरा मत यह है कि, यह एक दूसरे के पूरक हैं. मैं त्याग को अधिक महत्व देता हूँ. मेरा निश्चय यह है कि, त्याग तीन प्रकार का होता है, सात्विक राजसिक और तामसिक. कुछ लोग सभी कर्मों के त्याग को त्याग मानते हैं, लेकिन भगवान कृष्ण समझाते हैं कि, जीवन कर्म के बिना चल नहीं सकता. जीने के लिए कर्म करना, अधिकार भी है और कर्तव्य भी. कुछ कर्म शास्त्र सम्मत है और कुछ दुर्भावना से प्रेरित. शास्त्र सम्मत कर्म, जैसे यज्ञ, दान और तप आदि, योगी के कर्तव्य कर्म हैं. इसे उन्हें अवश्य करना चाहिए. इन सब के करने से, योगी पवित्र होता है. इसलिए इनका त्याग कभी भी नहीं करना चाहिए, हाँ, इन कर्मों को करते समय, उससे जुड़ी फल की कामना और आसक्ति का त्याग अवश्य करना चाहिए.

यहाँ भगवान कृष्ण कर्मयोग की सबसे बड़ी कुंजी को पुन: दोहरा रहे हैं. पूरी गीता में कर्मयोग पर बहुत कुछ कहा गया है. जैसे कि दूसरे अध्याय में: 

 कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि  

कर्म के बिना जीवन की गति नहीं है. यह जीवन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा है. हर छोटे बड़े कर्म हमें, हमारी दिनचर्या में करने पड़ते हैं. वह हमारे कर्तव्य और स्वभाव बन जाते हैं. कर्म पर हमारा पूरा अधिकार है. लेकिन कर्म के फल पर योगी का अधिकार न कभी था और न कभी होगा. इसलिए एक बार फिर भगवान कृष्ण, अर्जुन को सचेत कर रहे है की, यज्ञ दानऔर तप शुद्ध कर्म योगी को करने चाहिए, इससे उसका मन प्राण, पवित्र होता है तथा उससे समाज का बहुत सारा कल्याण होता है. यह सब कर्म जब फल की आशा किए बिना किए जाते हैं तो, सात्विक त्याग की श्रेणी में आते हैं.

अनिष्टमिष्टं मिश्रं त्रिविधं कर्मणः फलम्

भवत्यत्यागिनां प्रेत्य तु सन्न्यासिनां क्वचित्‌

आगे प्रभु श्री कृष्ण और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि, हर कर्म का फल मिलेगा. अच्छे कर्म का अच्छा और बुरे का बुरा. कई लोग अपने कर्मों के फलों को इसी जन्म में भोगेंगे. और कुछ उसे अगले जन्म तक साथ ले

जाएँगे. लेकिन कर्म की गति से कोई बच नहीं पाएगा. अगर योगी कर्म को कर्म फल की कामना से रहित होकर, तथा केवलप्रभु चरणों में अर्पित कर, करता है तो, वह उसके परिणाम से अवश्य मुक्त हो जाएगा.  महत्वपूर्ण बात यह है कि, योगी में कर्तापन काअभिमान नहीं होना चाहिए. कर्म केवल निष्काम भाव से, आसक्ति रहित हो, शुद्ध भावना से, पूजा की भाँति करना चाहिए. भावना का उद्देश्य और शुद्धि सर्वोपरि है.

जिस ज्ञान से योगी को इस संसार के कण कण में परमात्मा की उपस्थिति का भान होता है, वही ज्ञान सात्विक ज्ञान कहलाता है. जिस ज्ञान में एक योगी विभिन्न वस्तुओं में भिन्न भिन्न रूप देखता है, उसे राजसिक ज्ञान कहा जाता है. और जिस ज्ञान के चलते कर्मयोगी हर कर्म के बाद फल की कामना करता है, और कभी कभी तो दूसरों के अनिष्ट कि भी कामना करता है, उसे तामसिक योगी या तामसिक ज्ञान कहा जाता है.  नीचे के श्लोकों में तीनों प्रकार के त्याग की बड़ी सुंदर व्याख्या की गई है.

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः

सिद्धयसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते॥

भावार्थ:  जो कर्ता संगरहित, अहंकार के वचन न बोलने वाला, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य के सिद्ध होने और न होने में हर्ष -शोकादि विकारों से रहित है- वह सात्त्विक कहा जाता है॥26॥

रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः।

हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः॥

भावार्थ:  जो कर्ता आसक्ति से युक्त कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाववाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है वह राजस कहा गया है॥27॥

आयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठोनैष्कृतिकोऽलसः

विषादी दीर्घसूत्री कर्ता तामस उच्यते॥

भावार्थ:  जो कर्ता अयुक्त, शिक्षा से रहित घमंडी, धूर्त और दूसरों की जीविका का नाश करने वाला तथा शोक करने वाला, आलसी और दीर्घसूत्री (दीर्घसूत्री उसको कहा जाता है कि जो थोड़े काल में होने लायक साधारण कार्य को भी फिर कर लेंगे, ऐसी आशा से बहुत काल तक नहीं पूरा करता) है वह तामस कहा जाता है॥28॥

इसी प्रकार योगी की बुद्धि या प्रवृति भी तीन प्रकार की बताई गई है, सात्विक, राजसिक और तामसिक. जिसका विश्लेषण नीचे के श्लोकों में है:

प्रवत्तिं निवृत्तिं कार्याकार्ये भयाभये।

बन्धं मोक्षं या वेति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी

भावार्थ:  हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग (गृहस्थ में रहते हुए फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदर्पण बुद्धि से केवल लोकशिक्षा के लिए राजा जनक की भाँति बरतने का नाम ‘प्रवृत्तिमार्ग’ है।) और निवृत्ति मार्ग को (देहाभिमान को त्यागकर केवल सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव स्थित हुए श्री शुकदेवजी और सनकादिकों की भाँति संसार से उपराम होकर विचरने का नाम ‘निवृत्तिमार्ग’ है।), कर्तव्य और अकर्तव्य को, भय और अभय को तथा बंधन और मोक्ष को यथार्थ जानती है- वह बुद्धि सात्त्विकी है ॥30॥

यया धर्ममधर्मं कार्यं चाकार्यमेव च।

अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी॥

भावार्थ:  हे पार्थ! मनुष्य जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म को तथा कर्तव्य और अकर्तव्य को भी यथार्थ नहीं जानता, वह बुद्धि राजसी है॥31॥

अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।

सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी॥

भावार्थ:  हे अर्जुन! जो तमोगुण से घिरी हुई बुद्धि अधर्म को भी ‘यह धर्म है’ ऐसा मान लेती है तथा इसी प्रकार अन्य संपूर्ण पदार्थों को भी विपरीत मान लेती है, वह बुद्धि तामसी है॥32॥

इस तरह से प्रभु कृष्ण ने एक बार फिर कर्म की शुद्धता और त्याग के विभिन्न प्रकारों और उनमें छुपे दोषों से, हम सब को परिचित करवाया है. साथ ही यह भी बताया किमाँ उनसे कैसे बचा जा सकता है. यह सब सुन अर्जुन जैसे महारथी का मोह छूट जाता है. हम आशा करते हैं कि, यह ज्ञान हम में समाये बहुत से संशयों को भी समाप्त कर देगा. गीता के गोपनीय ज्ञान ज्ञान के लिए प्रभु श्री कृष्ण को हमारा शत शत नमन. “जय श्री कृष्णा”

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