
केवट – मेरी नैया पार करो मेरे राम
By: Rajendra Kapil
रामायण का पात्र केवट, एक ऐसा चरित्र, जिसकी छवि बड़ी भोली है. केवट का ध्यान आते ही एक ऐसा चित्र सामने आ जाता है, जो रामजी के चरणों में बैठा, रामजी के पग पखार रहा है. और उस चरणामृत को पीकर अपने आप को धन्य धन्य अनुभव कर रहा है. रामजी को जब वनवास की आज्ञा सुनाई गई, तो वह संन्यासी वेष में, लक्ष्मण और सिया संग, वनों की ओर निकल पड़े. उनके साथ पूरी अयोध्या भी साथ हो चली. जहाँ जहाँ प्रभु रुकते, प्रजा भी वहाँ पड़ाव डाल लेती. ऐसा करते प्रभु गंगा के किनारे आ पहुँचे. साथ आये सुमंत्र काका से सलाह कर, उन्होंने निर्णय लिया कि, चुपचाप गंगा पार कर प्रजा से विलग हो जाते हैं. ताकि प्रजा अपने अपने घरों में लौट कर, अपनी दिनचर्या में पुन: व्यस्त हो सके. लेकिन प्रश्न यह था कि, गंगा पार कराए कौन?
यहीं केवट का प्रवेश राम रामायण में होता है. एक साधारण सा नौका चालक, जो दिन भर चप्पू चला अपनी जीविका कमा रहा था. प्रभु को जब उसके बारे में पता चला तो उसे बुला भेजा. केवट आ गया. प्रभु ने पार जाने की विनती की.
मागी नाव न केवटु आना, कहइ तुम्हार मरमु मैं जाना
केवट को रामजी के बारे में कुछ जानकारी पहले से थी. उसने रामजी और उनके द्वारा, अहिल्या उद्धार की कथा सुन रखी थी. उसने सुन रखा था कि, जैसे ही रामजी की चरण धूलि ने शिलावत् अहिल्या को छुआ, तो वह एक स्त्री के रूप में परिवर्तित हो गई थी.
चरन कमल रज कहुँ सबु कहई, मानुष करनि मूरि कछु अहई
आपके चरणों की धूलि के बारे सभी ने मुझे यह बता रखा है कि, उसमें एक जादू है, जो अगर पत्थर को भी छू ले तो उसे स्त्री बना देती है.
छुअत सिला भइ नारि सुहाई, पाहन तें न काठ कठिनाई
एहि प्रतिपालऊँ सबु परिवारु, नहीं जानऊँ कछु अउर कबारू
प्रभु, आपकी चरण धूलि छूते ही एक शिला एक सुंदर नारी बन गई थी, और मेरी नाव तो केवल लकड़ी की है. पत्थर की तुलना में लकड़ी पत्थर से कहीं अधिक कोमल है. अगर मेरी नौका कुछ और बन गई तो, मेरी तो जीविका ही जाती रहेगी. फिर यह ग़रीब नाविक अपने परिवार का पेट कैसे पाल पायेगा? मैं तो इसी नौका की मजूरी से परिवार पालता हूँ. मुझे कोई और दूसरा धंधा भी नहीं आता. लेकिन आपने कहा है तो, मैं आपकी सहायता अवश्य करूँगा. आपको निराश नहीं करूँगा. मेरी आपसे एक बिनती है, यदि आप मान लें तो हम दोनों का काम आसानी से हो सकता है. प्रभु ने बोला, बताओ मैं सुनने को तैयार हूँ. तब केवट बोला:
जौं प्रभु पार अवसि गा चहहू, मोहि पद पदुम पखारन क़हहू
अगर आप पार उतरना चाहते तो मुझे आप अपने चरण धोने की आज्ञा दीजिए. मैं आपके चरणों का चरणामृत पान कर आश्वस्त होना चाहता हूँ कि, मेरी नाव को कुछ नहीं होगा. इसके बाद मैं आपको ख़ुशी ख़ुशी गंगा पार करवा दूँगा. प्रभु केवट की भोली भोली बातें सुन मुस्कुराने लगे, और बोले केवट वही करो जिससे तुम्हारा कोई नुक़सान न हो. फिर क्या था, केवट भाग कर जल से भरा एक कठोता ले आया, और प्रभु के पग पखारने लगा.
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चहों
मोहि राम राउरि आन दसरथ सपथ सब साँची कहों
बरु तीर मारहुँ लखनु पै जब लगि न पाय पखारिहों
तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपाल पारू उतारिहों
तुलसी बाबा ने इस वार्तालाप को बड़े सुंदर ढंग से छंदबंध किया. केवट बोला, प्रभु मैं आपसे उतराई भी नहीं लूँगा. अगर आपको मंज़ूर न हो तो, फिर चाहे लखन लाल मुझे अपने तीर से घायल भी कर दें तो भी, मैं आपको पार नहीं उंतराऊँगा. प्रभु केवट की अटपटी बातों का आनंद ले रहें हैं.
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे
बिहसे करुनाऐन चितइ जानकी लखन तन
केवट के प्रेम एवं भक्ति से परिपूर्ण, ऐसे अटपटे बचन सुन रामजी, सीता और लखन की ओर देख मुस्कुराने लगे. मानो पूछ रहे हो कि, मैं अपने इस भक्त का क्या करूँ?
तुलसी बाबा इस मधुर दृश्य को देख गद गद हो कह उठे:
जासु नाम सुमिरत एक बारा, उतरहि नर भवसिंधु अपारा
सोइ कृपालु केवटहि निहोरा, जेहि जगु किय तिहु पगहु ते थोरा
वह रामजी जिनके नाम सिमरन से भक्त