February 22, 2025
राम सिया का प्रथम मिलन
Dharam Karam

राम सिया का प्रथम मिलन

By: Rajendra Kapil

राम सिया के प्रथम मिलन की कथा राम चरित मानस के बालकाण्ड में आती है.
जब राजा जनक ने सीता स्वयंवर के  बारे में निश्चय किया, तो उस समय उन्होंने देश के सभी  बड़े बड़े  राजाओं को निमंत्रण भेजा. यहाँ तक कि, लंकापति रावण को भी न्योता भेजा गया. राजाओं के साथ साथ राजा जनक ने प्रमुख ऋषियों के आश्रम में भी न्योते भिजवाए. ऐसा ही एक न्योता ऋषि विश्वामित्र के आश्रम भी पहुँचा. उस समय राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में रह रहे थे.
निमंत्रण मिलते ही, ऋषि दोनों राजकुमारों को लेकर मिथिला पहुँच गए. स्वयंवर में अभी कुछ दिन शेष थे. ऐसे में राम लखन ने गुरु की आज्ञा लेकर  नगर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया. जैसे ही वह दोनों राज मार्ग पर निकले, सभी मिथिला वासी उन्हें देख बड़े मुग्ध हो गए. रामजी अपने छोटे भैया को यज्ञ शाला की ओर ले चले और उस यज्ञ शाला की रचना समझाने लगे:

राम देखावहि अनुजहि रचना,  कहि मृदु मधुर मनोहर बचना
निज निज रुचि सब लेहि बोलाई, सहित सनेह जाहीं दोउ भाई|

अगली सुबह दोनों भाई गुरु के उठने से पहले, गुरुजी की पूजा के लिए, फूल चुनने के लिए राज वाटिका जा पहुँचे. वहाँ मालियों से पूछ  कर पुष्प इकट्ठे करने लगे.

चहुँ दिसि चितइ पूछीं मालीगन,  लगे लेन दल फूल मुदित मन

वह दोनों पुष्प चुन ही रहे थे कि, उधर से सीता अपनी सखियों के साथ उसी वाटिका में आ पहुँची. उस  वाटिका में देवी माँ का एक मंदिर था. और सीताजी की माँ  सुनयना ने सीता को, विवाह से पहले देवी माँ की आराधना कर, मनचाहा वर पाने का आशीर्वाद पाने को कहा था. इसी मनोवांछित भाव की पूर्ति हेतु सीता वहाँ आई थी.

तेहि अवसर सीता तहँ आई,  गिरिजा पूजन जननि पठाई

सीता के साथ उसकी सखियाँ भी थी. सब सीता की सहायता में लगी थी. उनमें से एक सखी विलग हो दूसरी दिशा में वाटिका देखने निकल गई.  और उसे दोनों सुंदर राजकुमार दिख गए:

एक सखी सिय संगु बिहाई,  गई रही देखन फुलवाई

वह राम लखन की सुंदरता पर इतनी मुग्ध हुई कि, भागते भागते सीता के पास आकर उनका बखान करने लगी.

तेहि दोउ बंधु बिलोके जाई, प्रेम बिबस सीता पहि आई

उसने सीता को बताया:

देखन बाग कुँअर दुइ आए,  बय किसोर सब भाँति सुहाए
स्याम गौर किमि कहों बखानी,  गिरा अनयन नयन बिनु बानी

बाग में दो सुंदर राजकुमार आए हुए हैं.  युवा अवस्था, दिव्य जटा मंडल, और हर प्रकार से बहुत ही सुंदर हैं. उनकी सुंदरता का वर्णन करना अत्यंत कठिन है.
क्योंकि नयन के पास वाणी नहीं है और वाणी के पास नयन नहीं हैं. वाह क्या बात कही तुलसी बाबा ने. नयन जिस सुंदरता को देख पा रहे हैं, उसे वाणी कहने में असमर्थ है, क्योंकि नयन में बोलने की क्षमता नहीं है. सीता जैसे जैसे यह सब सुनती जाती थी, तो उसकी उत्सुकता चरम सीमा पर पहुँचती जाती थी.

सुनि हरषी सब सखी सयानी, सिय हियं अति उतकंठा जानी

बात करते करते सीता और सखियों का झुंड, राम लखन की ओर चल पड़ा. सीता ने हाथों में कंगन पहने थे. पैरों में पायजेब पहनी हुई थी. कमर में करधनी लटकी हुई थी.  इन सब आभूषणों से लदी सीता की चाल एक मनमोहक कर्ण ध्वनि उत्पन्न कर रही थी. रामजी ने जब इस मधुर ध्वनि को सुना, तो लक्ष्मण से बोले:

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि, कहत लखन सन रामु हृदय गुनि मानहूँ मदन दुंदुभी दीन्ही, मनसा बिस्व विजय कहँ कीन्ही

ऐसा  प्रतीत होता है, मानो कामदेव विश्व को जीतने के लिए उनकी ओर चला आ रहा है. और अगले ही क्षण उनका साक्षात्कार सीता की सुंदर छवि से हो गया.
तुलसी बाबा इस मनोहर दृश्य को देख लिखते हैं:
देखि सीय सोभा सुख पावा, हृदय सराहत बचनु न आवा जनु बिरंचि सब निज निपुनाई, बिरचि बिस्व कहँ प्रगटी देखाई सीता जी का सौंदर्य बहुत ही मनमोहक था. रामजी उस सौंदर्य की मन ही मन प्रशंसा करने लगे. उनके नेत्र एकटक सीता को देखते ही रह गए. उनकी वाणी मौन हो गई. कुछ क्षणों के लिए रामजी इस सौंदर्य में बस खो से गए. उन्हें लगा मानो ब्रह्मा जी ने अपनी सारी निपुणता को इस देवी सिया में मूर्तिमान कर दिया हो.

विश्व की सर्वोत्तम सुंदरी उनके सामने थी. उसकी इस सुंदरता को देख रामजी को अनिर्वाच्य आनंद की अनुभूति हुई. तुलसी का कवि हृदय गद गद हो उठा:

सुंदरता कहुँ सुंदर करई, छवि गृहं दीपसिखा जनु बरई
सब उपमा कबि रहे जुठारी, केहि पटतरों बिदेहकुमारी

सीताजी की शोभा सुंदरता को और सुंदर बना रही थी. ऐसा लग रहा था, मानो एक शांत घर में एक दीप अपनी लौ से पूरे घर को देदीप्यमान कर रहा हो. उस शोभा के सामने सारी उपमाएँ झूठी लगने लगी. सीता का सौंदर्य सब उपमाओं से ऊपर था.
जब रामजी सीता जी के सौंदर्य से थोड़ा उबरे तो, लक्ष्मण को कहने लगे, सुनो भाई, यह राजा जनक की बेटी सीता है, जिसके लिए स्वयंवर की रचना की जा रही है.
फिर उन्होंने अपने मन में झाँका. उन्हें सीता जी  के प्रति  प्रीति अनुभव हुई. हृदय में प्रेम पुष्प खिल  उठा था.  मन इस परम सुंदर छवि की बारंबार सराहना कर रहा था. फिर वोह सोचने लगे, ऐसा पहले तो कभी हुआ नहीं.

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ,  मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी, जेहि सपनेहूँ परनारी न हेरी

रघुवंशियों का मन तो सहज ही सात्विक होता है, वह तो प्रेम आदि मार्गों पर कभी भटका नहीं. पर आज क्या हो रहा है?  मेरे इस मन ने कभी स्वप्न में भी परनारी का ध्यान नहीं किया, आज वह सीता सौंदर्य में बहका जा रहा है. आख़िर यह सब हो क्या रहा है? उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था. यह सोचते सोचते दोनों भाई वाटिका के दूसरी ओर निकल गए. इधर जब सीता को सुध आई, और राजकुमार कहीं दिखाई नहीं पड़े, तो वह फिर से उन्हें खोजने लग गई.

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता,  कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता लता ओट तब सखिन्ह लखाए, स्यामल गौर किसोर सुहाए देखि रूप लोचन ललचाने, हरषे जनु निज निधि पहिचाने थके नयन रघुपति छवि देखें, पलकिन्हहुँ परिहरी निमेषें
अधिक सनेह देह भै भोरी,  सरद ससिहि जनु  चितव चकोरी

तब एक सखि ने एक टहनी की ओट से सीता को राम लखन पुन: दिखा दिए.  उनका रूप देख नयन मदमस्त हो गए. उनका उन्हें देखने का लोभ ख़त्म ही नहीं हो रहा था. सीता को लगा मानो उसे कोई अमूल्य निधि मिल गई हो. रामजी को देखते सीता की पलकें झपकना ही भूल गई. हृदय में प्रेम उमड़ने लगा. प्रेम भाव से देह भारी हो गई. ऐसा लग रहा था, मानो शरद ऋतु के चन्द्र को कोई बेसुध
चकोरी देख रही हो. थोड़ी देर बाद दोनों भाई वृक्षों के झुंड से बाहर निकल, खुले में आ गए:

लता भवन तै प्रगट भे,तेहि अवसर दोउ भाइ निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ

तुलसी बाबा ने लिखा, लता भवन से दोनों भाई ऐसे प्रगट हुए, मानो दो निर्मल चंद्रमा बादलों के पटल हटा, पुन: स्वच्छ आकाश पर खिल हो उठें हो. ऐसा था, हमारे रामजी का सिया से प्रथम मिलन. लव ऐट फर्स्ट साइट. पहली ही भेंट में दोनों एक दूसरे को अपना हृदय सौंप, पूर्ण समर्पण कर बैठे थे. रामचरितमानस के इस दिव्य युगल को मेरी सादर चरण वंदना. यह प्रेम का सौंदर्य उनके पूरे
जीवनकाल में उनका सबसे बड़ा संबल बना रहा. जय श्री राम !!!

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