गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, सत्रहवाँ अध्याय-श्रद्धात्रय योग

गीता स्वाध्याय- मेरी समझ से, सत्रहवाँ अध्याय-श्रद्धात्रय योग

By: Rajendra Kapil

इस अध्याय का आरम्भ अर्जुन के एक प्रश्न से होता है. 

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ()

भावार्थ: अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! जो मनुष्य शास्त्रों के विधान को त्यागकर पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर पूजा करते हैं, उनकी श्रद्धा सतोगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी या अन्य किस प्रकार की होती है? 

हे प्रभु, जो लोग शास्त्र विधि को जानते हुए या फिर जान कर भी उस पर ध्यान न देते हुए, केवल श्रद्धा से प्रेरित हो यज्ञ आदि शुभ कार्य करते हैं, उनकी मनःस्थिति कैसी होती है? ऐसी परिस्थिति में किया गया शुभ कार्य किस श्रेणी में आता है, सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक?

प्रभु श्री कृष्ण, अर्जुन की इस उत्सुकता के निवारण के लिए बताते हैं कि, जिस प्रकार हर योगी में तीन प्रकार के गुण सात्त्विक, राजसिक और तामसिक होते हैं, ठीक उसी प्रकार प्राणियों में श्रद्धा भी तीन प्रकार की होती है. योगी की भावना, नीयत और उद्देश्य के अनुसार श्रद्धा की पवित्रता और गुणवत्ता को परखा जाता है.

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु ()

भावार्थ: श्री भगवान्‌ ने कहा – शरीर धारण करने वाले सभी मनुष्यों की श्रद्धा प्रकृति गुणों के अनुसार सात्विक, राजसी और तामसी तीन प्रकार की ही होती है, अब इसके विषय में मुझसे सुन। 

श्रद्धा के साथ साथ प्रभु आहार यानिकि भोजन के प्रकारों पर भी चर्चा करने लगते हैं. आहार भी तीन प्रकार का होता है, सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक.  एक शुद्ध योगी को ताज़ा, रसमय, पौष्टिक एवं शाकाहारी भोजन प्रिय लगता है. ऐसा भोजन जो बल बुद्धि की वृद्धि करता है. सुख और प्रीति को बढ़ाता है. सात्विक भोजन स्वभाव को निर्मल एवं शान्त बनाये रखता है.  ऐसे आहार को सात्त्विक आहार कहा जाता है. राजसिक योगी थोड़ा चटोरा होता है. उसे गरम, तीखा, और मसालेदार ख़ाना अच्छा लगता है. ऐसे योगी को जीभ का स्वाद, पौष्टिकता से अधिक प्रिय लगता है.  तामसिक योगी, अक्सर रस रहित, बासी एवं मांसाहारी खाने का शौक़ीन होता है. ऐसा ख़ाना शरीर में आलस्य उत्पन्न करता है. कभी कभी तो ऐसा भोजन पाकर योगी बीमार भी पड़ जाता है. लेकिन तामसिक प्रकृति के प्राणी को आलस्य या बीमारी परेशान नहीं करती. वह उसे एक सुखद जीवन शैली मान, उसी में रम जाता है.

आगे प्रभु कृष्ण श्रद्धा त्रय के तीन भागों की विस्तार से व्याख्या करने लगते हैं.

सात्त्विक श्रद्धा वह भावस्थिति, जिसमें योगी यज्ञ और पूजा अर्चना आदि विधियाँ, शास्त्र विधि के अनुसार, शुद्ध भाव से करते हैं. जिस पूजा अर्चना का उद्देश्य प्रभु प्राप्ति या समाज कल्याण होता है, सात्त्विक श्रद्धा कहलाती है. ऐसी विधि में योगी,  ज्ञानी जनों को बिठा कर, उनका मान सम्मान करते हैं. उन्हें पूजा आदि के बाद भोजन कराया जाता है. भोजन के बाद उचित दान दक्षिणा देकर उचित, आशीर्वाद लिया जाता है. यह पूजा अर्चना एवं श्रद्धा, सात्त्विक कही जाती है. इसमें अगर शास्त्र विधि का पूरा पालन न भी किया जाये, तो भी उसका फल सात्त्विक ही होता हैं. और यह सात्त्विक योगी को प्रभु प्राप्ति की ओर ले जाति है. ऐसे योगी फल की कामना नहीं करते, सभी कुछ निस्वार्थ भाव से करते हैं, इसलिए उन्हें शुभ कार्य का शुभ फल अवश्य मिलता है.

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते (१७)

भावार्थ: पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से उपर्युक्त तीनों प्रकार से जो तप किया जाता है उसे सात्विक (सतोगुणी) तप कहा जाता है। 

राजसिक श्रद्धा राजसिक श्रद्धा वाला योगी बड़ा स्वार्थी होता है.  ऐसा योगी हर पूजा अर्चना किसी उद्देश्य विशेष के लिए करता है. कभी कभी उस के कार्य कलाप में दिखावे का भी अंश होता है.  वह अपने परिवार और समाज को यह दिखाने के लिए पूजा पाठ करता है कि वह कितना बड़ा भक्त है. वह अगर किसी मंदिर या संस्था में दान देगा, तो चाहेगा कि, उसके नाम की बहुत बड़ी पलेट साथ लगे, ताकि उसका नाम हो और लोग उसकी निरन्तर प्रशंसा करें.  वह संसार में इस प्रकार की थोथी प्रशंसा कमाना चाहता है.  उसमें मन की शुद्धता कम, और सांसारिक सुखों की कामना अधिक होती है.

यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः
दीयते परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌ (२१)

भावार्थ: किन्तु जो दान बदले में कुछ पाने की भावना से अथवा किसी प्रकार के फल की कामना से और बिना इच्छा के दिया जाता है, उसे राजसी (रजोगुणी) दान कहा जाता है। 

तामसिक श्रद्धा जो तप यज्ञ आदि मूढ़ता पूर्वक हठ से तथा अशुद्ध मन एवं वाणी से किया जाए उसे तामसिक श्रद्धा कहा जाता है.  इसका प्रमुख उद्देश दूसरों की बुराई की कामना करना या उनके शारीरिक कष्ट की प्रार्थना करना होता है.  ऐसे तामसिक योगी दान आदि शुभ कर्म भी बड़ी त्रिस्कृत भावना से करते हैं. जैसे एक ग़रीब साधु किसी के द्वार पर गया, जो थोड़ा मैला कुचैला है और खाने को माँग रहा है. ऐसे में यह तामसिक योगी, उसे ख़ाना तो खिला देंगे लेकिन दूर दूर से. ऐसे ग़रीब साधु को नज़दीक नहीं आने देंगे. बाहर एक कोने में बिठा कर किसी नौकर के हाथ से उसे ख़ाना दे देंगे. ऐसे प्राणियों के मन में घृणा और तिरस्कार की भावना कूट कूट कर भरी होती है.  मंदिर में जाकर कर प्रार्थना करेंगे कि, फ़लाँ आदमी का व्यापार डूब जाए या फिर उसपर कोई भारी शारीरिक कष्ट आन पड़े.  और अगर कभी दुर्भाग्य से ऐसा ही जाए तो इस प्रकार के तामसिक प्राणी बड़े प्रसन्न होते हैं. ऐसी श्रद्धा को तामसिक श्रद्धा कहा जाता है.

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌ (२२)

भावार्थ: जो दान अनुचित स्थान में, अनुचित समय पर, अज्ञानता के साथ, अपमान करके अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणीदान कहा जाता है।

तामसिक श्रद्धा का एक सुंदर उदाहरण रामायण में आता है. राम रावण युद्ध के समय जब रावण लक्ष्मण के बाण से मूर्छित हो अपने रथ में गिर जाता है, तो उसका सारथि उसे असहाय देख, महल में सुरक्षित ले आता है. वहाँ होश में आने के बाद, वह जीतने का उपाय सोचने लगता है. उसे एक ऐसे यज्ञ का उपाय सूझता है, जिसके करने से, उसे अमरता का आशीर्वाद प्राप्त हो सकता था. बस यह विचार आते ही, वह उस यज्ञ के तैयारी में लग जाता है, जिसके पीछे लोगों के विनाश की भावना थी. यह यज्ञ एक तामसिक श्रद्धा से प्रेरित था. किसी तरह विभीषण को रावण के इस योजना की सूचना मिल जाती है. वह रामजी के साथ मिल कर, अंगद आदि योद्धायों को भेज कर, रावण का यह तामसिक यज्ञ विध्वंस करवा देता है:

जग्य बिधँसी कुसल कपि, आए रघुपति पास

चलेउ निसाचर क्रुद्ध होइ, त्यागी जीवन की आस

इस प्रकार तीनों तरह की श्रद्धा की व्याख्या के बाद, प्रभु कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि, इन तीनों तरह की श्रद्धा में से सबसे श्रेष्ठ है, सात्त्विक श्रद्धा. एक शुद्ध योगी को केवल उसी के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए. जिसमें वेद मन्त्रों के उच्चार से पूजा अर्चना हो तथा ओंकार की ध्वनि से तप आदि विधियाँ हो. प्रभु का सिमरन और कीर्तन हो. बड़ों और गुरुजनों का उचित आदर सम्मान हो. हमेशा सत मार्ग का पालन हो. दीन दुखियों की निस्वार्थ भाव से, सेवा हो. सुपात्रों को दान दक्षिणा आदि से सम्मानित किया जाए.  दैनिक जीवन में दिखावा या आडम्बर न हो.  हर काम को निष्काम भाव से कर, प्रभु को अर्पित कर दिया जाए. ऐसे सच्चे सरल हृदयी, भक्त प्रभु को भी अत्यन्त प्रिय लगते हैं.

इस अध्याय का यह श्रद्धा त्रय योग हम सबके जीवन को सात्त्विक और शुद्ध बनाए. हृदय की निर्मलता, प्रभु चरणों की कृपा की, सदा हमेशा कामना करते रहे. और हम सब समाज की सेवा में, अपना यह जीवन सहज भाव से अर्पित कर दें.  प्रभु के इस दिव्य ज्ञान के लिए उन्हें हमारा कोटि कोटि नमन. “जय श्री कृष्णा”

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