
भगवद् गीता के 16वां अध्याय: दैवासुर सम्पद् विभाग योग
इस अध्याय में, भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को मनुष्य के चरित्र में धार्मिकता और अधार्मिकता के बीच का विवेक करने के लिए उपदेश देते हैं। यहाँ हम इस अध्याय की गहराई से जानकारी प्राप्त करेंगे और हर श्लोक का विस्तृत अर्थ समझेंगे।
अधर्म और धर्म का विवेक:
भगवान श्रीकृष्ण शुरुआत में अर्जुन को समझाते हैं कि जो पुरुष सत्त्वगुण के संशुद्ध और अभय से युक्त है, उसकी श्रद्धा और अध्यात्मज्ञान में स्थिरता है, और वह दान, इंद्रियों की निग्रह, यज्ञ, स्वाध्याय (स्वयं की ध्यानाभ्यास), तपस्या और सच्चाई में स्थित होता है।
दैवी प्रकृति के लक्षण:
यहाँ श्रीकृष्ण दैवी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन करते हैं। दैवी प्रकृति वाले व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अक्रोध, त्याग, शान्ति, निर्मलता, दया, भूतों की मेहरबानी, मार्दव (कोमलता), ह्री (लज्जा), तेज (उज्ज्वलता), क्षमा, धृति, शौच (शुद्धता), अद्रोह, अति-गर्व नहीं करते। ये सभी गुण उनमें प्राप्त होते हैं।
असुरी प्रकृति के लक्षण:
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण असुरी प्रकृति के लक्षणों का वर्णन करते हैं। असुरी प्रकृति वाले व्यक्ति दम्भ (शोभाविष्ट), घमंड, अहंकार, क्रोध, पारुष्य (कठोरता), अज्ञान और अति-गर्व के लक्षण दिखाते हैं। इन लक्षणों के साथ, वे अन्य लोगों को विलुप्त करने की चेष्टा करते हैं और अपने ही हित के लिए उनका शोध करते हैं। असुरी सम्पद संसार में आसक्ति और बंधन के लिए है, जबकि दैवी सम्पद मुक्ति और मोक्ष के लिए है।
धर्म और अधर्म का अन्तिम फल
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट करते हैं कि धर्मवाले व्यक्ति का प्राण धर्म में संरक्षित होता है, जबकि अधर्मवाले का प्राण अधर्म में नष्ट होता है। धर्म का पालन करने वाले का अंत महान् और श्रेष्ठ होता है, जबकि अधर्म का पालन करने वाले का अंत दुःखमय और नरकमय होता है।
धर्म का महत्व: इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण धर्म का महत्व बताते हैं। धर्म ही मानव जीवन का मूल आधार होता है। धर्म का पालन करने से ही मनुष्य शुद्ध और सफल बनता है।
अधर्म का नाश: धर्म की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण जन्म-जन्मांतर के बंधन से मुक्ति का वादा करते हैं। वे अधर्म को नष्ट करने का संकल्प लेते हैं और सदा धर्म की रक्षा करते हैं। धर्म के पालन से ही मनुष्य अपने आप को शुद्ध कर सकता है और अधर्म के पालन से ही उसका नाश होता है।
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने धर्म और अधर्म के बीच का विवेक करने के लिए अनेक उपदेश दिए हैं। यह उपदेश मनुष्य को उसके जीवन में सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं और उसे धार्मिक जीवन की महत्ता को समझाते हैं।