रामचरित मानस में प्रवाहित ऋषि परम्परा
By:Rajendra Kapil
चौथा सोपान – रघुवंश के राजगुरु ऋषि वशिष्ठ
महर्षि वशिष्ठ रघुवंश कुल के सम्माननीय राजगुरु थे. रामजी से पूर्व वह इश्वाकु काल से, पहले राजा दिलीप, फिर राजा अज, और उसके बाद राजा दशरथ के दरबार में उन्हें राजगुरु के पद पर सुशोभित किया गया. रामायण काल में, राजा दशरथ कोई भी बड़ा काम, राजगुरु की मंत्रणा के बिना नहीं करते थे. ऋषि वशिष्ठ को ब्रह्मा का मानस पुत्र भी कहा जाता है. क्योंकि वह ब्रह्मा जी के संकल्प से जन्मे थे. उन्होंने अपने जीवनकाल में अत्यधिक तप कर कई प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त की हुई थी. उनके पास एक कामधेनु थी, जो उन्हें हर समय उनकी मनचाही वस्तु प्रदान कर, उनकी हर छोटी बड़ी मुश्किल आसान कर देती थी.
रामचरित मानस में गुरु वशिष्ठ के दर्शन कई जगह पर होते हैं. अयोध्या काण्ड में जब रघुकुल परिवार पर सबसे बड़ा संकट आता है. तो गुरु वशिष्ठ घरके सब प्राणियों को अलग अलग प्रकार से समझाते दिखाई पड़ते हैं. उत्तराकाण्ड में जब रामजी वनवास के बाद लक्ष्मण और सीता के साथ लौट आते हैं, तो यही गुरु वशिष्ठ, रामजी का राजतिलक कर उन्हें अयोध्या की गद्दी पर आसीन करते हैं. गुरु वशिष्ठ की पत्नी का नाम अरुन्धति था. पति पत्नी दोनों जाप तप में व्यस्त रहते थे. वशिष्ठ जी की महानता इतनी थी कि, पुराणों में इनकी गिनती सप्त ऋषियों में की जाने लगी. सप्त ऋषियों के नाम इस प्रकार हैं:
१-ऋषि कश्यप, २-ऋषि अत्रि, ३-ऋषि भरद्वाज, ४-ऋषि विश्वामित्र, ५-ऋषि गौतम, ६-ऋषि वशिष्ठ और ७- ऋषि जमदग्नि. इन सभी सप्त ऋषियों की हमारी संस्कृति में विशेष भूमिका रही है.
बालकाण्ड के एक प्रसंग में जब ऋषि विश्वामित्र अपने आश्रम में आसपास राक्षसों के अत्याचार से परेशान हो जाते हैं. तो राजा दशरथ के पास सहायता माँगने आते हैं. उन्हें अपनी शक्ति से भान हो चुका होता है कि, रामजी ने राजा दशरथ के यहाँ जन्म ले लिया है. दशरथ जी ऋषि का कष्ट जान, अपनी पूरी सेना की सहायता उनके सामने रख देते हैं, लेकिन ऋषि को केवल राम और लक्ष्मण को साथ ले जाना था. चूकि महाराज दशरथ एक पिता की तरह सोच रहे थे, तो उन्हें लगा कि, सुकुमार राजकुमार राक्षसों को मार नहीं पायेंगे. राजा की इस दुविधा को भाँप, गुरु वशिष्ठ ने राजा को, रामजी के अदम्य बल और साहस का परिचय करवाया.
चौथेपन पायऊँ सुत चारी, विप्र बचन नहि कहेहु बिचारी
सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं, राम देत नहि बनइ गोसाईं
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा, कहँ सुंदर सुत परम किसोरा
राक्षस अत्यंत भयंकर और कठोर हैं, जबकि मेरे पुत्र बहुत ही सुंदर और सुकुमार हैं. यह उन राक्षसों का सामना नहीं कर पायेंगे. तब गुरु वशिष्ठ ने, जोकि रामजी के बल से परिचित थे, राजा दशरथ को समझाया:
तब बसिष्ठ बहुबिधि समुझावा, नृप संदेह नास कहँ पावा
अयोध्याकाण्ड में जब राजा दशरथ के मन में पहली बार रामजी को राजा बनाने का विचार आया तो उन्होंने सबसे पहले गुरु वशिष्ठ से मंत्रणा की, और गुरुजी का उत्तर था:
बेगि बिलंबु न करिअ नृप, साजिअ सबुइ समाजु
सुदिन सुमंगलु तबहि, जब रामु होहि ज़ुबराजु
यह तो बड़ा शुभ समाचार है, इसमें तनिक भी विलंब न कीजिए. वह दिन सबसे अधिक शुभ एवं सुमंगल होगा, जब राम युवराज हो, गद्दी पर विराजमान होंगे. गुरु के ऐसे आशीर्वचन सुनने के बाद, राजा दशरथ ने अन्य मंत्रीगणों से विचार विमर्श किया. सभी ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया. तब दशरथ जी बोले:
जौं पाँचहि मत लागै नीका, करहु हरषि हिय रामहि टीका
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी, अभिमत बिरवु परेउ जनु पानी
लेकिन विधि के विधान में तो कुछ और ही लिखा था. राज तिलक की बात सुन कैकेयी तड़प उठी, और रामजी को राज तिलक की बजाय वनवास गमन की आज्ञा मिली. वनवास की पूरी तैयारी हो जाने पर, रामजी गुरु जी से आशीर्वाद लेने उनके द्वारे जा पहुँचे:
निकसी बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े, देखे लोग बिरह दव दाढ़े
गुरु सन कहि बरषासन दीन्हे, आदर दान बिनय बस कीन्हे
रामजी के वन गमन के बाद, राजा दशरथ को थोड़ी आशा अभी भी थी कि, वन की भयंकर स्थिति को देख, या फिर मंत्री सुमंत्र के समझाने पर शायद, रामजी वापिस लौट आयें. लेकिन जब सुमंत्र ख़ाली हाथ लौटे, तो राजा की अधीरता का बांध टूट गया. उन्हें श्रवण कुमार के माता पिता द्वारा दिए गए श्राप का ध्यान हो आया. राजा सारी रात कौशल्या को सब कथा सुनाते रहे और रोते रहे. कौशल्या को लगा की, सूर्य कुल का दीपक बुझने को है. और अगले ही दिन राम विरह में राजा दशरथ ने रामजी को पुकारते पुकारते प्राण त्याग दिए:
राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम
तनु परिहरि रघुबर बिरह, राउ गयउ सुरधाम
एक बार फिर गुरु वशिष्ठ पर दायित्व आ पड़ा कि, ऐसे कठिन समय में परिवार को सँभाला जाए. उन्होंने राजा दशरथ के मृत शरीर को तेल की नाव में सुरक्षित किया और तुरंत दूतों को भरत के ननिहाल भेजा, और उन्हें यह संदेश देने को बोला, कि तुरंत अयोध्या पहुँचो. पिता की मृत्यु की बात वहाँ बताने को साफ़ मना किया. भरत जी गुरु की इस अति आवश्यक आज्ञा को सुन थोड़े चिंतित हुए, लेकिन अपने छोटे भाई शत्रुघ्न के साथ अयोध्या की ओर चल निकले. जैसे ही अयोध्या के निकट पहुँचे, वहाँ उन्हें हर कोई बड़ा उदास दिखाई पड़ा. तरह तरह की अपशकुन होते दिखाई पड़े. उन्हें एक अनकही चिंता ने घेर लिया. आकर सबसे पहले माँ से मिले.
माँ ने उन्हें बताया, की पिता स्वर्ग सिधार गए हैं. दोनों भाई फूट फूट कर रोने लगे. फिर धीरे से माँ कैकेयी ने रामजी के वन गमन की बात बताई, जिसके वियोग में पिता ने प्राण त्यागे. भरत जी यह सब सुनकर सन्न रह गए. उन्हें कुछ क्षण के लिए पिता का मरना भी भूल गया, और वह रामजी के बारे में सोचने लगे:
भरतहि बिसरेउ पितु मरन, सुनत राम बन गौनु
हेतु अपनपउ जानि जिय थकित रहे धरि मौनु
जब गुरु वशिष्ठ ने भरत के आगमन के बारे में सुना, तो उसे सभा में बुला भेजा:
बैठे राजसभा सब जाई, पठए बोलि भरत दोउ भाई
भरत बसिष्ठ निकट बैठारे, नीति धरममय बचन उचारे
गुरु वशिष्ठ ने भरत को सारी कथा यथावत सुनाई. रामजी के शील और मर्यादा की खूब प्रशंसा की. लखन लाल के भ्राता प्रेम का वर्णन किया. सीता जी के पतिव्रत प्रेम और श्रद्धा को सराहा. यह सब सुन भरत जी रो पड़े. उन्हें देख गुरु जी भावुक हो बिलख पड़े:
सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहेउ मुनिनाथ
हानि लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ
अगले दिन पास बैठा कर गुरु वशिष्ठ ने राजा दशरथ की बड़ी प्रशंसा की और भरत को समझाया कि, महाराज एक यशस्वी राजा थे. उन्होंने अपने जीवनकाल में बड़े उत्तम कर्म किए, उनका शोक त्याग दो. ऋषि बोले:
सोचनीय नहि कोसलराऊ, भुवन चारिदस प्रगट प्रभाऊ
भयउ न अहइ न अब होनिहारा, भूप भरत जस पिता तुम्हारा
तुम्हारे पिता के समान कोई दूसरा राजा नहीं हुआ है, न कभी होगा. उनका यश चारों दिशाओं में फैला हुआ था. उनमें हर प्रकार के सुंदर गुण थे. इसलिए उनका गमन सोचनीय नहीं है. इस प्रकार भरत ने गुरुजी की आज्ञा मन, पिता की अंतिम क्रिया विधिवत ढंग से की. उसके बाद उन्होंने गुरुजी से पूछा, कि वह वन जाकर एक बार रामजी मना कर, वापिस लाना चाहते हैं. वशिष्ठ जी बोले, प्रयास करने में कोई दोष नहीं है, आप अवश्य प्रयास कीजिए.
गुरु की आज्ञा मान जब भरत जी अपने परिवार सहित वन गए, तो गुरु वशिष्ठ को भी साथ के गए. क्योंकि रामजी को वापिस लाना कोई सरल काम नही था, ऐसे में बड़े बूढ़े साथ हो तो, काम आसान हो जाया करते हैं. वहाँ पहुँच, जब रामजी को पिता की मृत्यु का समाचार सुनाने की बात आयी, तो भी गुरु वशिष्ठ को आगे कर दिया गया.
मुनिबर बहुरि राम समुझाए, सहित समाज सुसरित नहाए
करि पितु क्रिया बेद जसि बरनी, भे पुनीत पातक तम हरनी
पिता के अंतिम क्रिया-विधि से विशुद्ध हो कर ऋषि वशिष्ठ ने एक सभा बुलाई. उस सभा में सभी परिवारी जन थे. राजा जनक भी, अपनी पत्नी सहित, मिथिला से पहुँच गए थे सभी माताएँ भी उपस्थित थी. माता कैकेयी मन ही मन बहुत पछता रही थी, और प्रार्थना कर रही थी कि, रामजी अयोध्या आने के लिए मान जायें.
गुर पद कमल प्रनामु करि, बैठे आयसु पाइ
विप्र महाजन सचिव सब, जुरे सभासद आइ
बहुत विचार विमर्श हुआ. सभी ने अपने अपने मत सभा के समक्ष रखे. भरत जी, जोकि ग्लानि से भरे हुए थे, और रामजी के वनवास के लिए, अपने आप को सबसे बड़ा दोषी मानते थे. उन्होंने रामजी से नम आँखों से, हाथ जोड़ कर, प्रार्थना की झड़ी लगा दी. रामजी भी भावुक हो गए. रामजी ने सारा निर्णय राजा जनक एवं गुरु वशिष्ठ पर छोड़ दिया. इस सब वाद विवाद, के बाद गुरुजी ने सभी की सहमति से निर्णय सुनाया. जिस वचन के लिए राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिए:
रघुकुल रीति सदा चली आई, प्रान जायें पर वचन न जाई
उसी मर्यादा की महत्ता को बचाने के लिए, रामजी को वन वास पूरा करना चाहिए और भरत को रामजी की चरण पादुकाएँ ले जाकर अयोध्या का राज्य तब तक सँभालना चाहिए, जब तक रामजी लौट नहीं आते. भरत जी ने सबकी आज्ञा शिरोधार्य कर सबका मान रखा:
भरत सील गुर सचिव समाजू, सकुच सनेह बिबस रघुराजु
प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्ही, सादर भरत सीस धरि लीनही
इस प्रकार गुरु एवं राज पुरोहित ऋषि वशिष्ठ ने अपने ज्ञान एवं बुद्धिमत्ता से रघुकुल पर आये संकट को एक सुंदर दिशा दिखाई.
भरत जी एक मार्ग दिखाया, जिस पर चल कर अयोध्या का राजकाज पुन: सुचारू रूप से चलने लगा. इसीलिए रघुवंश चिरकाल तक गुरु वशिष्ठ का आभारी रहा. ऐसे महान, सप्त ऋषियों में से एक, ऋषि वशिष्ठ को मेरा कोटि कोटि नमन!!!