सप्तश्लोकी दुर्गा – एक सरल प्रस्तुति
By: Rajendra Kapil
सप्तश्लोकी दुर्गा, हमारे आदरणीय ग्रंथ दुर्गा सप्तशती का एक संक्षिप्त रूप है, जिसमें माता दुर्गा
की स्तुति के सात सौ श्लोक हैं। यह सात श्लोक दुर्गा सप्तशती का निचोड़ है। यह सात श्लोक
भक्तों को आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करने के लिए और संकटों से रक्षा के लिए संकलित किए
गये हैं। यह देवी महात्म्य का एक छोटा संस्करण है, जो मार्कण्डेय पुराण में पाया जाता है। इसे
पढ़ने या जप करने से भक्तों को दुर्गा माँ की कृपा प्राप्त होती है और उनके सभी दुख और
संकट दूर होते हैं। इन श्लोकों का सरल भावार्थ करने का एक विनम्र प्रयास यहाँ नीचे प्रस्तुत है।
भगवान शिव माँ दुर्गा से कहते हैं, “हे देवी! तुम भक्तों के लिए सुलभ हो, और सभी कार्यों को
सिद्ध करने वाली हो। कलियुग में सभी कार्यों की सिद्धि के लिए कृपया कोई उपाय बताओ।
भगवान शिव के अनुरोध के उत्तर में, माँ दुर्गा कहती हैं, कि वे उन्हें और सभी भक्तों को
कलियुग में सभी इच्छाओं की पूर्ति का उपाय बताएंगी। इसी संदर्भ में, दुर्गा सप्तशती के आरंभ
में, सप्तश्लोकी दुर्गा का विवरण, शिव पार्वती के संवाद के रूप में, आता है। आइए इसे थोड़ा
गहराई से समझने का प्रयास करें।
पहला श्लोक :
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा ।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति ॥१॥
ॐ: प्रारंभिक ध्वनि जो सृष्टि के आदि से जुड़ी है और एक पवित्र प्रतीक है।
ज्ञानिनामपि चेतांसि: यहाँ बताया गया है कि देवी महामाया की शक्ति इतनी अद्भुत है
कि वे ज्ञानी लोगों के मन को भी आकर्षित कर लेती हैं।
देवी भगवती हिसा: देवी भगवती, जो हिंसा (शक्ति) का स्वरूप हैं। यहाँ हिंसा शब्द का अर्थ
शक्ति से है, जो दुर्गा की विशेषता है।
बलादाकृष्य मोहाय: वे अपनी शक्ति से सभी को आकर्षित और मोहित कर देती हैं।
महामाया प्रयच्छति: महामाया अपनी माया के माध्यम से सभी को वश में कर लेती हैं।
इस श्लोक में, माँ दुर्गा को महामाया के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिनकी शक्ति इतनी
विशाल है कि वे ज्ञानी लोगों के मन को भी अपने मोह में बाँध सकती हैं। यह उनकी अद्भुत
शक्ति और प्रभाव को दर्शाता है।
दूसरा श्लोक:
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि ।
दारिद्रयदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्र चित्ता ॥२॥
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः: हे दुर्गे! जब तुम्हें स्मरण किया जाता है, तो तुम सभी
प्राणियों के असीमित भय को हर लेती हो। यहाँ पर “दुर्गे” देवी दुर्गा को संबोधित किया
गया है, जो भक्तों के डर और चिंताओं को दूर करती हैं।
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि: जब भक्त स्वस्थ मन से तुम्हारा स्मरण करते हैं,
तब तुम उन्हें अत्यंत शुभ और सकारात्मक बुद्धि प्रदान करती हो। यह भाव दर्शाता है
कि, देवी दुर्गा की भक्ति और स्मरण से भक्तों की बुद्धि शुद्ध और सकारात्मक हो
जाती है।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि त्वदन्या: तुम दारिद्र्य, दुःख और भय को दूर करने वाली हो, तुम्हारे
समान अन्य कोई नहीं है। यहाँ देवी दुर्गा को ऐसी शक्ति के रूप में वर्णित किया गया है
जो दुःख, दरिद्रता, और भय को हरने की क्षमता रखती हैं।
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता: तुम हमेशा सभी का उपकार करने के लिए तैयार रहती हो,
तुम्हारा हृदय सदैव करुणा से भरा रहता है। इस भाव में देवी की करुणामयी प्रकृति का
वर्णन किया गया है जो हमेशा भक्तों के हित में काम करती हैं।
तीसरा श्लोक:
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥३॥
सर्वमंगलमंगल्ये: जो सभी मंगलों में सबसे अधिक मंगलकारी हैं, यानी कि जो सभी प्रकार
के शुभ और कल्याणकारी कार्यों का स्रोत हैं।
शिवे: शिव की संगिनी, शांति और कल्याण की प्रतीक। यहाँ शिव का अर्थ सिर्फ भगवान
शिव नहीं है, बल्कि शुभ और कल्याणकारी शक्ति का प्रतीक है।
सर्वार्थसाधिके: जो सभी प्रकार के अर्थों या लक्ष्यों को साधने में सक्षम हैं। यानी कि जो
हर एक की इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने की शक्ति रखती हैं।
शरण्ये: जो शरण देने वाली हैं, जिसके पास संकट के समय में शरण ली जा सकती है।
त्र्यम्बके गौरि: त्र्यम्बक (भगवान शिव) की पत्नी गौरि, जो शुभ्रता और पवित्रता का प्रतीक
हैं।
नारायणि: नारायण (विष्णु) की शक्ति, जो सृष्टि के पालनहार हैं। यहाँ देवी को विष्णु की
पार्श्वशक्ति के रूप में संबोधित किया गया है।
नमोऽस्तुते: तुम्हारे प्रति नमन है, तुम्हारी स्तुति है।
इस श्लोक के माध्यम से, भक्त माँ दुर्गा के उन सभी रूपों की स्तुति करते हैं जो सर्वोच्च
मंगलकारी, शांतिदायक, सभी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली, शरण देने वाली, और पवित्रता का
प्रतीक हैं। यह श्लोक देवी की विविधता और उनके दिव्य गुणों को सामने लाता है।
चौथा श्लोक:
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥४॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे: जो शरण में आए हुए दुःखी और पीड़ितों की रक्षा के लिए
समर्पित हैं।
सर्वस्यार्तिहरे: जो सभी के दुःख और पीड़ा को हरने वाली हैं।
देवि नारायणि नमोऽस्तुते: हे देवी नारायणि, आपको नमन है।
इस श्लोक में माँ दुर्गा की उस दिव्य गुण की स्तुति की गई है जो शरण में आये भक्तों का
संरक्षण करती हैं और उनके दुःख-दर्द को दूर करती हैं।
पांचवा श्लोक:
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते ।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥५॥
सर्वस्वरूपे: जो सभी स्वरूपों में विद्यमान हैं, अर्थात् माँ दुर्गा हर एक चीज़ में मौजूद हैं।
सर्वेशे: सभी की ईश्वरी शक्ति और सभी की अधिपति है।
सर्वशक्तिसमन्विते: सभी शक्तियों से युक्त, यानी कि माँ दुर्गा के पास सभी शक्तियाँ हैं।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि: हे देवी, हमें सभी प्रकार के भय से रक्षा करें।
दुर्गे देवि नमोऽस्तुते: हे दुर्गा देवी, आपको नमन है।
इस श्लोक के माध्यम से, भक्त माँ दुर्गा की सर्वशक्तिमत्ता और सर्वोच्चता को स्वीकार करते हैं
और उनसे जीवन के सभी भयों और चिंताओं से मुक्ति की कामना करते हैं। यह श्लोक भक्तों
को यह विश्वास दिलाता है कि माँ दुर्गा की शरण में आकर वे सभी प्रकार के भय और संकटों
से मुक्त हो सकते हैं।
छठा श्लोक:
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥६॥
रोगानशोषानपहंसि तुष्टा: जब आप प्रसन्न होती हैं, तो आप रोगों और दुःखों को दूर कर
देती हैं। यहाँ देवी दुर्गा की उस शक्ति का वर्णन किया गया है जिससे वे अपने भक्तों के
रोग और दुःख को नष्ट कर देती हैं।
रूष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्: जब आप रुष्ट होती हैं, तो सभी अनिष्ट (अनचाहे)
कामनाएँ नष्ट हो जाती हैं। इस श्लोक में यह दर्शाया गया है कि देवी के असंतुष्ट होने
पर भी उनकी शक्ति से अनचाहे और हानिकारक परिणाम दूर हो जाते हैं।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां: जो आपकी शरण में आते हैं, उनका कभी भी विनाश नहीं
होता। इस लाइन से पता चलता है कि जो लोग देवी दुर्गा की शरण में आते हैं, उनकी
रक्षा हमेशा की जाती है।
त्वामाश्रिता ह्माश्रयतां प्रयान्ति: जो आपकी शरण लेते हैं, वे अन्य लोगों के लिए आश्रय
बन जाते हैं। इस भाग में बताया गया है कि देवी दुर्गा की शरण में आये लोग खुद भी
दूसरों के लिए सहारा और संरक्षण का स्रोत बन जाते हैं।
इस श्लोक के माध्यम से, माँ दुर्गा की वह दिव्य शक्ति और करुणा की स्तुति की गई है, जो
भक्तों के रोगों और दुखों को दूर करती है, उनकी अनचाही कामनाओं को नष्ट करती है, और
उन्हें एक सुरक्षित और सहायक आश्रय प्रदान करती है।
सातवाँ और अंतिम श्लोक:
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि ।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरि विनाशनम् ॥७॥
सर्वाबाधाप्रशमनं: जो सभी प्रकार की बाधाओं का शमन करती हैं। यहाँ माँ दुर्गा की उस
शक्ति का वर्णन किया गया है जो भक्तों के जीवन से सभी बाधाओं और विघ्नों को दूर
करती है।
त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि: तीनों लोकों की सर्वेश्वरी, अर्थात स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल की
सम्पूर्ण अधिपति है। यह देवी दुर्गा के सर्वोच्च स्वामिनी होने की बात को दर्शाता है।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्: इसी तरह, आपको शत्रुओं का विनाश करने का कार्य
करना चाहिए। यह भाग देवी से प्रार्थना करता है कि वे भक्तों के शत्रुओं का नाश करें
और उन्हें सुरक्षित रखें।
इस अंतिम श्लोक के माध्यम से, भक्त माँ दुर्गा से जीवन की सभी बाधाओं और शत्रुओं से रक्षा
की प्रार्थना करते हैं। यह श्लोक माँ दुर्गा की अपार शक्ति और करुणा को स्वीकार करता है, और
उनसे संरक्षण और मार्गदर्शन की कामना करता है। सप्तश्लोकी दुर्गा का यह पाठ भक्तों को
आत्मिक शक्ति, सुरक्षा, और सफलता प्रदान करने का एक साधन है।
सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ करने से विभिन्न आध्यात्मिक, मानसिक, और भौतिक लाभ होते हैं। यह
पाठ माँ दुर्गा की असीम शक्तियों की स्तुति करता है और भक्तों को उनकी कृपा प्राप्त करने
का मार्ग प्रशस्त करता है। और उनके जीवन को सकारात्मक दिशा में मार्गदर्शन करते हैं। ऐसी
करुणामयी माँ को हम सादर नमन करते हैं!